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अल्पसंख्यक कल्याण बनाम तुष्टीकरण

।। महेश राठी ।। वरिष्ठ पत्रकार अल्पसंख्यकों के लिए बनी संस्थाओं और योजनाओं के क्रियान्वयन पर एक नजरिया जब भी देश के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए केंद्र सरकार या राज्य सरकारें नयी योजनाएं लेकर आती हैं, यह सवाल उठता है कि पहले से चली आ रही योजनाओं का क्रियान्वयन किये बगैर नयी योजना का क्या […]

।। महेश राठी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

अल्पसंख्यकों के लिए बनी संस्थाओं और योजनाओं के क्रियान्वयन पर एक नजरिया जब भी देश के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए केंद्र सरकार या राज्य सरकारें नयी योजनाएं लेकर आती हैं, यह सवाल उठता है कि पहले से चली आ रही योजनाओं का क्रियान्वयन किये बगैर नयी योजना का क्या औचित्य. अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं और संस्थाओं के काम करने के तरीके पर भी सवाल उठाये जाते रहे हैं. ऐसे ही सवालों के बीच ले जाता यह आलेख..

अगले आम चुनाव की आहट के साथ ही अल्पसंख्यकों के लिए सत्तारूढ़ यूपीए और अन्य राजनीतिक दलों की घोषणाओं में तेजी और तत्परता नजर आने लगी है. यूपीए सरकार ने अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलिम अल्पसंख्यकों के लिए बननेवाली योजनाओं को अब जिला केंद्रित योजनाओं से बदल कर ब्लॉक केंद्रित बनाने का निर्णय लिया है.

भारत सरकार अल्पसंख्यकों के लिए बनी योजनाओं को पुनर्गठित करते हुए इसे ब्लॉक आधारित बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के रूप में पेश करने की योजना बना रही है. हालांकि इस योजना की शुरुआत 11वीं पंचवर्षीय योजना में हुई थी, परंतु उस समय इस योजना का फोकस जिला स्तर पर था. इस योजना के तहत 45 जिलों में 144 ब्लॉक और 18 कस्बों को चुना गया है. पहचाने गये ये ऐसे क्षेत्र होंगे, जहां पर आबादी का 50 प्रतिशत अल्पसंख्यक समुदाय के लोग रहते हैं.

एक दस्तावेज के रूप में बहु क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम एक बहु आयामी, बेहद लुभावनी योजना है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रस्ट्रक्चर से लेकर आवास तक जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नही है, जिसकी आवश्यकता की पूर्ति यह योजना न करती हो. परंतु कागजी तसवीर जितनी लुभावनी और खूबसूरत है, हकीकत उसके विपरीत है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का गठन 2006 में किया गया था और 2007-08 में बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम की शुरुआत की गयी थी.

परंतु इस मंत्रालय और सरकार की अल्पसंख्यक कल्याण की मंशा शुरू से सवालों के घेरे में है. अल्पसंख्यकों के लिए आवंटित राशि मंत्रालय के गठन और योजना के शुरू होने के बाद से ही बगैर उपयोग के लौटायी जाती रही है. यह स्थिति केवल केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की नहीं है, राज्य सरकारों की भी कमोबेश यही स्थिति है.

मसलन, देश में धर्मनिरपेक्षता का सबसे अधिक बिगुल फूंकनेवाले और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई की स्वयंभू अलमबरदार अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले साल में आवंटित राशि का महज 2.7 प्रतिशत ही खर्च किया. अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार को बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के अंतर्गत 230 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे, जिसमें यूपी सरकार सिर्फ 6.3 करोड़ रुपये ही खर्च कर पायी है.

यह स्थिति लगभग सभी राज्यों की है.

आरटीआइ से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश के अधिकतर राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने आवंटित राशि का आधा भी खर्च नहीं किया है. आवंटित राशि का सबसे अधिक खर्च करनेवालों में नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली ओड़िशा सरकार है. ओड़िशा ने उसे आवंटित 256 करोड़ रुपये का 81.31 प्रतिशत 208.32 करोड़ खर्च करने का कीर्तिमान स्थापित किया है. इसके अतिरिक्त कई राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने आवंटित राशि का 20 प्रतिशत भी खर्च नहीं किया है और हैरानी की बात यह है कि ऐसे राज्यों में उन पार्टियों की सरकारें हैं, जो अल्पसंख्यक कल्याण की चैंपियन समझी जाती रही हैं.

इस राजनीतिक बदनीयती में पक्षपाती कार्यान्वयन और सांप्रदायिक रूप से पक्षपाती नौकरशाही की भी भूमिका रहती है. जिला मुख्यालयों में जहां एक उप जिलाधिकारी स्तर के अधिकारी को अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी के बतौर नियुक्त किया जाता है, तो उसे उसके काम को अंजाम देने के लिए उतने कर्मचारी भी नहीं दिये जाते हैं, जिससे योजनाओं को ठीक से लागू कर सकें.

आंकड़े बताते हैं कि समाज कल्याण विभाग के ऐसे ही कामों के लिए कर्मचारियों की संख्या 149 है, तो आदिवासी कल्याण के लिए 77 और पिछड़ा वर्ग के लिए 64 तो वहीं अल्पसंख्यक कल्याण के ऐसे ही एक समान काम के लिए महज 27 व्यक्ति ही नियुक्त किये जा रहे हैं. इसके अलावा आवंटित राशि को इस्तेमाल करने में भी सांप्रदायिक रूप से पक्षपाती ऐसे व्यक्तियों की भूमिका रहती है, जो आवंटित धन राशि को ऐसी जगह स्थानांतरित करते हैं, जहां अल्पसंख्यकों की संख्या नगण्य होती है. ऐसे में आवंटित राशि बगैर उपयोग किये ही वापस चली जाती है.

दरअसल इन योजनाओं की घोषणाओं के और लागू होने नहीं होने और फिर उन पर लगातार राजनीति होने के अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं. इन योजनाओं की घोषणा अल्पसंख्यक मतों को रिझाने और उनके ध्रुवीकरण के लिए कई धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों द्वारा की जाती है. वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश के इस खेल में किसी को इस बात से मतलब नहीं कि यह योजनाएं लागू होंगी की नहीं अथवा इन्हें लागू करने के लिए कितने गंभीर प्रयास हो रहे हैं. ऐसी कोई व्यवस्था विकसित की जाये, जो योजनाओं को लागू करवाने की गारंटी कर सकें.

वोट की गारंटी का यह खेल केवल एकपक्षीय और अल्पसंख्यकों तक ही सीमित है. असल में वोटों का यह खेल बहुआयामी है. एक तरफ जहां अल्पसंख्यकों को मनभावन घोषणाओं से लुभाने का काम किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक सांप्रदायिक वोटों की राजनीति करनेवाले राजनीतिक दल इन घोषणाओं और मुसलिम तुष्टीकरण का हवाला देकर अपने वोट बैंक को मजबूत बनाते हैं और बहुसंख्यक सांप्रदायिक वोटों का ध्रुवीकरण करते हैं.

ऐसे में धर्मनिरपेक्षता के झूठे अलमबरदार फिर से सक्रिय होकर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के खतरे का हवाला देकर अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना का उभार करते हुए उनकी असुरक्षा के दोहन करने के और वोटों के ध्रवीकरण के नये अभियान की शुरुआत करते हैं. अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की यह ऐसी राजनीति है जिसमें देश का अल्पसंख्यक हमेशा वंचित रहता है. जिसे ना योजनाओं से और ना ही अपनी सुरक्षा के फरेबी तर्क के आधार पर वोटों के एकीकृत होने से कुछ हासिल होता है.

वास्तव में यदि केंद्र और राज्य सरकारें अल्पसंख्यक कल्याण को गंभीरता से लें, तो ऐसा नहीं है कि अल्संख्यकों के लिए घोषित योजनाओं को लागू नहीं कराया जा सकता है. परंतु इसके लिए मजबूत इच्छा शक्ति से ईमानदार कोशिश किये जाने की आवश्यकता है, जो ना तो वर्तमान केंद्र सरकार में दीखती है और न धर्मनिरपेक्षता के सूबाई क्षत्रपों में ही नजर आती है और एक हद तक मुसलिम संगठन भी इसके लिए जिम्मेदार हैं, जो अपने निहित स्वार्थो के कारण अल्पसंख्यकों के समाजार्थिक सवालों पर राजनीति करने से बचते हैं और केवल भावनाएं भड़काने की भावुक राजनीति का ही सहारा लेते हैं.

अब उनकी इस भावनाएं भड़कानेवाली राजनीति का इस्तेमाल दोनों तरफ की राजनीति अपनी राजनीतिक जीत के लिए करती है, परंतु राजनीतिक हार-जीत की इस लड़ाई में हिंदुस्तानी मुसलमान एक ऐसा पक्ष है, जो हमेशा और हर बार हारता है.

वक्फ विकास निगम की स्थापना

बीते दिनों अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की स्थापना की आठवीं वर्षगांठ (स्थापना : 29 जनवरी, 2006) थी. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय वक्फ विकास निगम (एनएडब्ल्यूएडीसीओ) का उद्घाटन समारोह आयोजित किया गया था. उद्घाटन के बाद समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि इस निगम की स्थापना में 500 करोड़ रुपये का खर्च आया है. इस निगम से पारदर्शी तरीके से मुसलिम समुदाय के उद्देश्यों के लिए वक्फ संपत्तियों पर स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों जैसी सुविधाएं स्थापित करने के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने में सहायता मिलेगी.

प्रधानमंत्री ने कहा कि हाल ही में वक्फ कानून में संशोधन किया गया है. इसलिए उम्मीद है कि इससे वक्फ संपत्तियों के प्रशासन में पारदर्शिता आयेगी और मुसलिम समुदाय के लाभ के लिए वक्फ की जमीन के विकास और उसको उपयोगी बनाने में कामयाबी मिलेगी. इस संशोधन में केंद्रीय वक्फ परिषद् (सीड्ब्ल्यूसी) मजबूत बनाया गया है. गौरतलब है कि केंद्रीय वक्फ की स्थापना राज्य वक्फ बोर्डो के कामकाज तथा उनकी वक्फ संपत्तियों के उचित प्रशासन से संबंधित मामलों में सरकार को सलाह देने के लिए की गयी है.

सच्चर समिति की सिफारिश रंग लायी है, जिसके अनुरूप पिछले दिनों राष्ट्रीय वक्फ विकास निगम (एनएडब्ल्यूएडीसीओ) की स्थापना की गयी है. यह निगम अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के अधीन एक नया केंद्रीय-सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम होगा.

इस निगम को स्थापित करने का मकसद मुसलिम समाज के सामुदायिक विकास कार्यो के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के वक्फ बोर्डो और मुतवल्लियों (वक्फ संपत्तियों की देखरेख करनेवाले) के साथ मिल कर देश भर में मौजूद वक्फ की सभी परिसंपत्तियों के विकास के लिए वित्तीय साधन जुटाना है. ऐसा माना जा रहा है कि यह निगम भारतीय मुसलिम अल्पसंख्यकों के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण संस्था होगी.

गौरतलब है कि दुनिया में भारत ही ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा वक्फ संपत्तियां मौजूद हैं. राज्यों के विभिन्न वक्फ बोर्डो के आंकड़ों के मुताबिक देश भर में आज 4.9 लाख पंजीकृत वक्फ संपत्तियां हैं, जिनकी सालाना आय तकरीबन 163 करोड़ रुपये है. इनमें कुछ संपत्तियां तो ऐसी हैं, जिनके पास और भी लाभ कमाने की क्षमता है.

सच्चर समिति के अनुमानों के अनुसार यदि इन संपत्तियों का उचित तरीके से विकास किया जाता है, तो संपत्ति के मूल्य पर सालाना दस प्रतिशत के लाभ अनुमान के अनुसार इन संपत्तियों से सालाना 12 हजार करोड़ रुपये की आय प्राप्त की जा सकती है.

अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाले नये केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, राष्ट्रीय वक्फ विकास निगम का उद्घाटन अल्पसंख्यकों के विकास को ध्यान में रखते हुए किया गया है. उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा कि इस संस्था की स्थापना देश में अल्पसंख्यकों के हितों का संवर्धन करने की दिशा में आगे बढ़ाया गया एक अन्य कदम है.

समारोह में एक व्यक्ति ने उठ कर यह कहा कि अल्पसंख्यकों के लिए बनायी गयी जब पिछली संस्थाओं और योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है और ज्यादातर संस्थाओं से अल्पसंख्यकों को कोई लाभ नहीं हो रहा है, तो ऐसे में फिर से एक नयी संस्था की स्थापना का क्या औचित्य है. यह सवाल एक बहस का मुद्दा है और जाहिर है कि आगे आनेवाले दिनों में इस पर पुरजोर बहस होगी कि आखिर ऐसी संस्थाओं और योजनाओं का क्या फायदा जिनका क्रियान्वयन ही नहीं हो पा रहा है.

इसके साथ ही बिहार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शाहिद अली खान ने वक्फ बोर्ड के विकास के लिए केंद्र सरकार से एक हजार करोड़ रुपये की मांग की है. अली का कहना है कि यदि केंद्र यह राशि मुहैया कराता है तो राज्य सरकार पांच साल के बाद यह राशि केंद्र सरकार को लौटाने के लिए भी तैयार है. अली ने यह भी कहा कि इस तरह के काम के लिए एक दीर्घकालिक सोच की जरूरत है. सिर्फ घोषणाएं करने से मुसलमानों का भला नहीं हो सकता है.

1952 से ही मुसलमानों को ठगने का प्रयास जारी है. अली ने कहा कि कांग्रेस सरकार मुसलमानों को बेवकूफ बना रही है, लेकिन अब उसके झांसे में मुसलमान आनेवाले नहीं हैं. बहरहाल एनएडब्ल्यूएडीसीओ की स्थापना से वक्फ संपत्तियों से आय को लेकर एक उम्मीद जगी है और यह भी इन संपत्तियों के अधिग्रहण पर रोक लगे और अच्छी तरह देखरेख हो.

विवेकानंद और इसलाम

– गुलाम रसूल देहलवी –

स्वामी विवेकानंद धार्मिक पूर्वाग्रह के सख्त विरोधी थे. उनका मानना था कि ईश्वर तक पहुंचने के रास्ते तंग, अवरुद्ध, बंद या किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं हैं. वे मानते थे कि सभी धर्म अपने अंतिम लक्ष्य में एक हैं. जैसे हिंदू दर्शन के अनुसार मोक्ष के माध्यम निर्वाण (दुख से मुक्ति या ब्रह्म से मिलाप) जीवन का वास्तविक और अंतिम लक्ष्य है, बिल्कुल उसी तरह इसलामी अध्यात्मिकता (सूफीवाद) के अनुसार मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता (विसाल-ए-इलाही) अल्लाह के साथ अंतरंग संबंध है.

दुर्भाग्य से, हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के कुछ धार्मिक कट्टरपंथी अपने गलत उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हिंदुस्तान के दो सबसे बड़े धर्मो के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों को खराब कर रहे हैं. वे यह अफवाह भी फैला रहे हैं कि स्वामी विवेकानंद इसलाम के जबरदस्त विरोधी थे, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है.

मेरा मानना है कि स्वामी जी इसलाम के बुनियादी मूल्यों के बहुत बड़े प्रशंसक थे, जिनके बारे में उनका विश्वास था कि पूरी दुनिया में इसलाम के अस्तित्व का एकमात्र कारण उसके अंदर छुपे आध्यात्मिक नैतिक मूल्य हैं. उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था, ‘लोग पूछते हैं कि पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के धर्म में क्या गुण है? अगर उन के धर्म में कोई गुण या अच्छाई नहीं होती, तो यह धर्म आज तक कैसे जीवित रहता? केवल अच्छाई ही जीवित रहती है, अगर उनकी शिक्षाओं में कोई अच्छाई नहीं होती, तो इसलाम कैसे जीवित रहता? उनके धर्म में अच्छाई है.’

स्वामी विवेकानंद का उक्त बयान ‘स्वामी विवेकानंद की शिक्षा’ नामक किताब में ‘मुहम्मद और इसलाम’ अध्याय का एक अंश है. यह पुस्तक ब्रिटिश लेखक क्रिस्टोफर एशरोवुड के 30 पृष्ठों के प्रकथन (परिचय) पर आधारित है. यह अध्याय अमेरिकी दर्शकों के सामने किये गये विवेकानंद के भाषण के चुनिंदा अंश का एक संग्रह है. पेश है संग्रह में दर्ज स्वामीजी के भाषण से कुछ अंश..

‘मुहम्मद (सल्ल.) ने अपने जीवन के द्वारा इस बात का प्रदर्शन किया कि मुसलमानों के बीच सही संतुलन होना चाहिए. पीढ़ी, जाति, रंग या लिंग का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. तुर्की का सुल्तान अफ्रीका के बाजार से एक हबशी खरीद सकता है और जंजीरों में उसे जकड़ कर तुर्की ला सकता है, लेकिन वह हबशी अपनी कम क्षमता के बिना भी सुल्तान की बेटी से भी शादी कर सकता है.

इसकी तुलना इस तथ्य के साथ करें कि हबशियों और अमेरिकी भारतीयों के साथ देश (संयुक्त राज्य अमेरिका) में कैसा व्यवहार किया जाता है. जैसे ही एक व्यक्ति मुसलमान हो जाता है, इसलाम के सभी अनुयायी किसी प्रकार का कोई भेदभाव किये बिना उसे एक भाई के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, जो कि किसी अन्य धर्म में नहीं पाया जाता. अगर कोई अमेरिकी भारतीय मुसलमान बन जाता है तो, तुर्की के सुल्तान को उसके साथ खाना खाने में कोई आपत्ति नहीं होगी. अगर उसके पास बुद्धि है तो वह किसी तरह से वंचित नहीं होगा. इस देश में, मैंने अभी तक ऐसा कोई चर्च नहीं देखा जहां सफेद पुरुष और हबशी कंधे से कंधा मिला कर भगवान की पूजा के लिए झुक सकें.’

‘यह कहना उचित नहीं है जो हमें बराबर बताया जाता है कि, मुसलमान इस बात पर विश्वास नहीं करते कि महिलाओं के पास भी आत्मा होती है. मैं मुसलमान नहीं हूं, लेकिन मुझे इसलाम का अध्ययन करने के भरपूर अवसर मिले. मुझे कुरान में एक भी आयत (श्लोक) ऐसी नहीं मिली, जो यह कहती है कि महिलाओं के पास कोई आत्मा नहीं है, बल्कि वास्तव में कुरान यह सिद्ध करता है कि उनके पास आत्मा है.’

‘भारत का इसलाम किसी भी अन्य देश के इसलाम से पूरी तरह अलग है. कोई अशांति या फूट तभी होती है, जब अन्य देशों से मुसलमान आते हैं और हिंदुस्तान में अपने धर्मो पर उनके साथ न रहने का प्रचार करते हैं, जो उनके धर्म के नहीं हैं. व्यावहारिक अद्वितीय (वैदिक दर्शन की एक विचारधारा) को हिंदुओं के बीच वैश्विक स्तर पर बढ़ावा देना अभी बाकी है.

इसलिए हम इस बात के जबरदस्त समर्थक हैं कि वेदांत की विचारधारा चाहे अपने आप में जितनी सुंदर और शानदार हों, वह व्यावहारिक इसलाम की सहायता के बिना बेकार और बड़े पैमाने पर इनसानों के लिए निष्फल हैं. हमारे अपने देश के लिए दो महान विचारधाराओं की प्रणाली इसलाम और हिंदू धर्म का संगम ‘वेदांत का दिमाग और इसलाम का शरीर’ ही सिर्फ एक उम्मीद है.

(न्यूएजइसलामडॉटकॉम से साभार)

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