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अवधेश प्रीत

तू सोता क्यों नहीं? नींद नहीं आ रही क्या?’ आवाज में खीझ थी, बेचैनी की हद तक. ‘हां नींद नहीं आ रही. हर कोशिश करके देख ली.’ प्रत्युत्तर में, उभरे स्वर की लाचारी छुपी न रह सकी. ‘क्या बात है, बहुत दुखी लग रहा है तू?’ पहली आवाज में यकायक सहानुभूति की तरलता आ गयी […]

तू सोता क्यों नहीं? नींद नहीं आ रही क्या?’ आवाज में खीझ थी, बेचैनी की हद तक. ‘हां नींद नहीं आ रही. हर कोशिश करके देख ली.’ प्रत्युत्तर में, उभरे स्वर की लाचारी छुपी न रह सकी. ‘क्या बात है, बहुत दुखी लग रहा है तू?’ पहली आवाज में यकायक सहानुभूति की तरलता आ गयी थी. ‘दुख अपनी जगह है, नींद का न आना अपनी जगह. दोनों का एक-दूसरे से रिश्ता हो ही कोई जरूरी नहीं.’

दूसरी आवाज संजीदा थी. शायद लंबी उम्र का अनुभव बोल रहा था. ‘कहता तो तू ठीक है. लेकिन, बहुत देर से गौर कर रहा हूं. तू खासा बेचैन है. रहा नहीं गया, सो पूछ लिया.’ पहले ने सफाई दी. ‘अच्छा किया.’ दूसरे ने उसका हौसला बढ़ाया, ‘इसी तरह शायद बेचैनी कुछ कम हो. बोलने-बतियाने से जी हल्का होता है.’ पहले को विश्वास हो आया कि दूसरा जरूर उम्रदराज है. अनुमान. ‘क्या?’ ‘यही कि तेरी उम्र साठ साल है.’ ‘हां, तेरा अंदाजा सही है. मैं साठ साल का हूं. और तू? तेरी उम्र कितनी है?’ दूसरे ने बगैर माथा-पच्ची के सीधा सवाल किया. ‘मेरी उम्र! तू बता कितनी होगी?’ पहले ने चुहल की. ‘मैं इस मामले में अनाड़ी हूं. हिसाब-किताब से कभी वास्ता नहीं रहा.’ दूसरे ने साफगोई से अपनी कमजोरी बता दी. ‘फिर इतनी लंबी जिंदगी तूने जी कैसे ली?’ पहले ने हैरानी से पूछा. ‘कोई जरूरी नहीं कि जो जिया वो जिंदगी ही थी.’ दूसरा हिसाबी-किताबी न सही खासा अनुभवी जान पड़ रहा था. ‘तो अब दुखी क्यों है तू? अब तो वैसी जिंदगी से छुट्टी पा चुका है?’ पहले ने टोका, ‘अब क्यों नहीं नींद आ रही?’ चैन से सो क्यों नहीं जाता? ‘मेरी छोड़!’ दूसरे ने झिड़की दी, ‘तू क्यों नहीं सो जाता? खामख्वाह क्यों हलकान हुआ जा रहा है?’ ‘क्यो? मैं क्यों न हलकान होऊं?

अचानक एक गहरी चुप्पी तिर आयी. एकदम से जैसे सब कुछ ठहर गया हो. यह अंतराल लंबा हो इससे पहले ही दूसरे की मद्धिम आवाज आयी, ‘तो…तू हिंदू है?’ ‘हां. और तू?’ पहले ने संशय में सवाल दागा. ‘मैं तो मुसलमान हूं.’ दूसरे ने जवाब दिया. ‘फिर तो तू सही जगह आ पहुंचा है.’ पहले ने संतोष जताया. ‘नहीं, मैं अपनी मौत मरा होता, तो इससे बेहतर जगह मिली होती.’ दूसरे ने पहले की आश्वस्ति को निरस्त कर दिया. ‘क्यों इस जगह में क्या खराबी है?’ पहले ने सशंक पूछा. ‘वही जो तुझे लगता है. इतनी तंग जगह कि न पांव ठीक से फैला सको न करवट तक बदल सको.’ दूसरे की आवाज में गहरी पीड़ा उतर आयी थी. ‘तो तेरी नींद न आने की वजह भी वही है.’ पहला पुष्टि चाहता था.

‘हां, पूरी देह अकड़ गयी है. जख्म में रिसा खून जम कर अलग से चुनचुना रहा है.’ दूसरा बुरी तरह आजिज आ गया था. ‘तेरा जख्म कहां है? मेरा मतलब किस जगह पर?’ पहले ने हमदर्दी से पूछा. ‘सीने पर. बुरी तरह छलनी हो गया है.’ दूसरे के स्वर में आह थी. ‘च्च…च्च!’ पहले ने अफसोस जताया, ‘वाकई बहुत तकलीफ हुई होगी.’ ‘वो तो है.’ दूसरे ने गमजदा लहजे में पूछा, ‘लेकिन तू यहां कैसे आ फंसा?’ ‘गधों के चक्कर में.’ पहले के स्वर में जबरदस्त गुस्सा था, ‘स्साले सरकारी कारकून जो न करें.’ ‘ठीक कहता है तू. सबके सब खानापूरी करते हैं.’ दूसरे ने हामी भरी, ‘मेरे साथ भी यही हुआ.’ ‘अच्छा? तेरे साथ क्या हुआ?’ पहले ने उत्सुकता जतायी. ‘वही. सरकारी कारकून रात के अंधेरे में ढेरों लाशें ले कर आये और बित्ता-बित्ताभर गड्ढ़े में दफना गये. गोया थोड़ा ज्यादा जमीन खोदने में स्सालों की जान जा रही हो.’ दूसरे की आवाज में उज्र था.

‘सोचा होगा मुसलमान की गद्दी पर सारे कारिंदे मुसलमान ही होंगे!’ दूसरे ने बेसाख्ता तंज लहजे में तब्सरा किया, ‘गोया हिंदू की रोजी हिंदू, मुसलमान की रोजी मुसलमान. ‘अक्ल के अंधे को कौन समझाये कि सुलेमान सेठ तो गया, अब कौन देगा मेरे घरवालों को रोटी?’

पहले के स्वर में गजब की बेबसी थी. एकबारगी दूसरे ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की. दोनों के बीच चुप्पी सनसनाती रही. आखिरकार पहले ने ही पहल की, ‘क्या हुआ, तू चुप क्यों हो गया?’ ‘नहीं! बस तेरे ही बारे में सोचने लगा था.’ दूसरे ने सफाई दी. ‘मेरे बारे में? मेरे बारे में क्या सोचने लगा तू?’ ‘यही कि तेरे घर में कौन-कौन होगा?’ दूसरे ने इसरार-सा किया, ‘कौन-कौन था तेरे घर में?’ ‘बीवी. दो बच्चे. पहला पांच साल का, दूसरा तीन साल का!’ पहला हुलस कर बोला. ‘तो तू जवान लगता है. कितनी उम्र है तेरी?’ दूसरे ने अफसोस भरे लहजे में पूछा. ‘यही कोई तीस साल! ‘च्च…च्च…च्च!’ दूसरा जज्बाती हो आया था, ‘सचमुच तेरे साथ बहुत ज्यादती हुई है.’ ‘क्यों, तू अभी कह रहा था उम्र तीस की हो या साठ की, क्या फर्क पड़ता है?’ पहले ने पलटवार किया. ‘यूं तो कोई फर्क नहीं पड़ता!’ दूसरे ने दलील दी, ‘लेकिन तेरे मामले में बात दूसरी है!’ ‘क्या मतलब?’ ‘मतलब ये कि तेरे पीछे तेरे बीवी-बच्चों को कौन पालेगा?’ दूसरे के स्वर में गहरी चिंता थी.

‘वे ही पालेंगे, जिन्होंने पलीता लगाया है.’ पहला चिढ़ा-सा जान पड़ रहा था. ‘मुझे तो नहीं लगता!’ दूसरे का अनुभवजन्य स्वर दो टूक था. ‘तो मेरे बच्चे एक दिन उन्हें ही पलीता लगा देंगे.’ पहला तिलमिलाया हुआ था. दूसरे ने कुछ नहीं कहा. एक बार फिर सन्नाटा छा गया. पहला थोड़ी देर तक इंतजार करता रहा, लेकिन दूसरे की ओर से कोई प्रतिक्रिया न होती देख उससे रहा नहीं गया. बोला, ‘क्या हुआ, तू चुप क्यों हो गया?’ ‘कुछ खास नहीं. दिल का जख्म हरा हो गया था. इसलिए बोलने में दिक्कत हो रही है.’ दूसरे की आवाज में वाकई दर्द था. ‘स्सालों ने बड़ी बेरहमी से तुझे मारा न?’

पहला उत्तेजित हो आया था. दूसरे ने संजीदा स्वर में कहा, ‘‘कातिल रहमदिल भी होते हैं क्या?’’ ‘किसने मारा तुझे?’ पहले ने उत्सुकता से पूछा. ‘कातिलों ने!’ दूसरे ने छोटा-सा जवाब दिया. ‘आखिर वे थे कौन? हिंदू?’ पहले ने जोर दे कर पूछा. ‘क्यों? मुसलमान क्यों नहीं हो सकते?’ ‘मुसलमान. मुसलमान को क्यों मारेगा?’ पहले ने हैरानी जतायी. ‘भाई, कातिल तो सिर्फ कातिल ही होता है.’ दूसरे ने फलसफा दिया.

‘क्या हुआ फिर कहीं खो गया क्या?’ ‘आं-हां!’ दूसरा जैसे चिहुंका, ‘कुछ याद आने लगा था?’ पहले ने फिर छेड़ा. ‘अरे नहीं! अपना कोई था ही नहीं, जिसकी याद आये!’ दूसरे ने आह भरी.

‘क्यों बीवी-बच्चे?’ पहले ने संकोच भरे स्वर में पूछा. ‘अरसा हुआ उन्हें गुजरे. अब तो साल-तारीख भी याद नहीं.’ दूसरे का स्वर सपाट था. ‘कैसे मरे वे?’ ‘भूख से!’ ‘भूख से?’ पहले ने हैरानी से पूछा, ‘तू कमाता-धमाता नहीं था क्या?’ ‘नहीं. तब मैं गांव में रहता था. उन्हीं दिनों जबरदस्त अकाल पड़ा. लोग दाने-दाने को मुहताज हो गये. मैं शहर में मजदूरी के लिए आया और उधर मेरी बीवी-बच्चे भूख से तड़प कर मर गये. बहुत सारे लोग मरे थे तब!’ दूसरा एक किस्से की तरह सब कुछ बोल गया. ‘सारे के सारे मुसलमान ही मरे थे?’ दबी जुबान से पहले ने पूछा. ‘धत्त !’ दूसरे ने झिड़की लगायी, ‘इतना भी नहीं जानता कि भूख से सिर्फ गरीब मरते हैं?’

इससे पहले कि वह और दुखी हो, पहले ने बात का रुख मोड़ा, ‘अच्छा, ये बता, तू करता क्या था? मेरा मतलब काम-धंधा?’ ‘मैं राज मिस्त्री था!’ पहले की कारगुजारी काम आ गयी. दूसरे की आवाज सहज हो आयी थी, ‘लोगों के मकान बनाता था.’ ‘वाह! खुद के लिए दो गज जगह भी नसीब नहीं हुई?’ पहला हंसा. ‘अपनी मौत मरता, तो ऐसा नहीं होता!’

दूसरे ने सफाई दी. ‘तो तू मरा कैसे?’ पहले की आवाज में तड़प थी. ‘मैं एक बेवा का मकान बना रहा था. मकान अभी आधा-अधूरा ही बना था कि इलाके के कुछ लोगों ने बावेला खड़ा कर दिया.’ ‘क्यों?’ पहले के स्वर में हैरानी थी. ‘वे लोग बेवा पर दबाव डाल रहे थे कि हिंदू का मकान कोई मुसलमान नहीं बनायेगा!’ दूसरे की तिलमिलाहट छुपी न रह सकी. ‘फिर?’ पहले की उत्सुकता बढ़ गयी थी. ‘यकीन मान उस दिन मुझे बहुत गुस्सा आया. जी हुआ कि स्सालों को एक-एक कर दीवार में चुन दूं. लेकिन, मेरी बेबसी देख, मेरी रुलाई फूट पड़ी.’

‘बहुत तकलीफ हो रही है न?’ दूसरे के स्वर में तड़प थी. ‘हां, बहुत ज्यादा. बरदाश्त नहीं होता!’ पहले की भिंची-भिंची आवाज आयी. ‘एक काम करते हैं!’ दूसरे ने कुछ सोचते हुए सुझाया, ‘हम दोनों के बीच जो दीवार है न, इसकी मिट्टी कुछ नम लगती है. तू अपनी ओर से कुरेद. मैं अपनी ओर से कुरेदता हूं.’

‘राजमिस्त्री है न, तू!’ पहला अपनी पीड़ा के बावजूद चुहल से बाज नहीं आया, ‘कब्र में भी कारीगरी सूझ रही है?’ ‘सुन, लाशें दफन होती हैं. कारीगरी नहीं!’ दूसरे की आवाज में उम्र का तर्जुबा था. ‘बड़ी-बड़ी बातें करता है, तू. मेरी समझ में नहीं आतीं.’ पहला आजिजी से बोला, ‘सीधे- सीधे बता करना क्या है?’ ‘तू अपनी तरफ से मिट्टी खोद. मैं अपनी तरफ से खोदता हूं. दीवार गिरी कि समझ थोड़ी ज्यादा जगह निकल आयेगी.’ दूसरे ने संजीदा स्वर में पहले को समझाया, ‘कम से कम करवट लेना आसान हो जायेगा. क्या पता आड़े-तिरछे हाथ-पांव फैलाना भी मुमकिन हो जाये.’ पहले की ओर से कोई जवाब आता न पा कर दूसरा घबराया, कहीं बुरा तो नहीं मान गया! हड़बड़ाते हुए जोर से हांक लगा बैठा, ‘क्या हुआ? रूह फना हो गयी क्या?’ ‘नहीं बड़े मियां!’

पहले ने दोगुने जोर से जवाब दिया, ‘मैं अपनी तरफ की मिट्टी खोदने लगा था!’ ‘ठीक है. फिर मैं भी शुरू करता हूं.’ दूसरे ने आश्वस्त किया.

…और अचानक अब तक का सबसे नामुमकिन वाकया वजूद में आया. सहमे हुए समय ने गौर से देखा, जमीन में जिंदगी की-सी हरकत हो रही है.

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