कौशलेंद्र रमण
निजी सेक्टर के एक दफ्तर का यह वाकया है. एक नये कर्मी ने ज्वाइन किया. इससे पहले वह किसी दूसरे संस्थान में काम करते थे. ज्वाइनिंग के दस-बारह दिन बाद ही उनकी शादी हो गयी.शादी पहले से तय थी. शादी की छुट्टी से लौटने के बाद वह फोन पर कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने लगे. एक सहकर्मी ने इसे लेकर उनसे मजाक किया. इसके बाद उन्होंने अपनी पीड़ा बतानी शुरू की. बोले, अभी शादी का एक माह भी नहीं हुआ, लेकिन रिश्ते तेजी से बदलने लगे हैं. पहले मैं दस दिन घर फोन नहीं करता था, तो कोई पूछने वाला नहीं था.
आजकल तीन-चार बार घर के लोग यह शिकायत करने के लिए फोन करते हैं कि शादी के बाद मैंने उनसे बात करना छोड़ दिया है. उनकी बात सुन कर एक लेखक की पंक्ति याद आ गयी – आदमी जैसे-जैसे नये रिश्तों में बंधता जाता है, पुराने रिश्तों की डोर अपने आप ढीली पड़ने लगती है. यह किस लेखक की पंक्ति है, मुझे याद नहीं, लेकिन उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है. यहां जरूरत सिर्फ इस बात की है कि डोर को टूटने नहीं दिया जाये, क्योंकि किसी भी चीज को तोड़ने के बाद उसे जोड़ना संभव नहीं होता.
रिश्तों पर भी यह नियम लागू होता है. जुटने पर मन में गांठ रह ही जाती है. इसलिए, जब भी हम किसी नये रिश्ते से जुड़ते हैं, हमें कोशिश करनी चाहिए कि पुराने रिश्ते की डोर सिर्फ ढीली पड़े, टूटे नहीं. ढीली पड़ने से नुकसान नहीं होगा, लेकिन टूटने से जीवन में सब गड्डमड्ड हो जाता है.
उन कर्मी को सलाह यही दी जा सकती है कि हर रिश्ते का अपना महत्व होता है. उसे सहेजने के लिए उस पर समय देना जरूरी होता है. यह जरूरी नहीं है कि आप सभी को बराबर का समय दें. लेकिन, आप सबको सिर्फ इतना एहसास तो करा ही सकते हैं कि नये रिश्ते में बंधने के बाद भी आपकी जिंदगी में उनका महत्व कम नहीं हुआ है.