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शराब की लत से जूझते एक शराबी की आत्मकथा

शिवम विज वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए मैं आपको अपना नाम नहीं बता सकता. केवल निजता की वजह से नहीं, बल्कि यह एक गुमनाम व्यक्ति के ‘एलकॉहोलिक्स एनोनिमस’ संगठन का मूल सिद्धांत है. हम व्यक्तित्व के ऊपर मूल्यों को महत्व देते हैं. 1988 में जब मैं कॉलेज में था, तब मैंने शराब […]

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मैं आपको अपना नाम नहीं बता सकता. केवल निजता की वजह से नहीं, बल्कि यह एक गुमनाम व्यक्ति के ‘एलकॉहोलिक्स एनोनिमस’ संगठन का मूल सिद्धांत है.

हम व्यक्तित्व के ऊपर मूल्यों को महत्व देते हैं. 1988 में जब मैं कॉलेज में था, तब मैंने शराब की पहली घूंट पी थी. लेकिन मुझे लगता है कि 1994 तक मैं शराबी बन गया. मैं 1970 में पटना में पैदा हुआ लेकिन पढ़ाई कहीं और से की.

फिर दूसरे राज्य में मुझे एक अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई. उसके बाद मैं शराब का ऐसा आदी हुआ कि मेरे सपनों जैसी सरकारी नौकरी पर बन आई.

साल 2011 में मेरी पत्नी ने मुझे तलाक दे दिया और 2012 में नौकरी से इस्तीफ़ा देने के बाद मैं पटना वापस लौट आया.

आपको समझना पड़ेगा कि सामाजिक तौर से शराब पीना और शराब का आदी हो जाना, दो बिल्कुल अलग बातें हैं.

बहुत से ऐसे लोग हैं जो कुछ घूंट पीने के बाद नशा चढ़ने पर रुक जाते हैं. उन्हें हर शाम शराब की ज़रूरत नहीं पड़ती.

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वो पार्टियों में दोस्तों के साथ पीते हैं, ख़ासतौर पर सप्ताह के अंतिम दिनों में. ‘शराब की लत’ एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग सावधानी से करना चाहिए.

लत ऐसी चीज़ है, जब शराब या ड्रग्स पर आदमी इस कदर निर्भर हो जाता है कि उसकी ज़िन्दगी काबू से बाहर हो जाती है.

शराब की लत के कई लक्षण हैं. जब आपको लत पड़ती है तो शराब पीना आपके लिए ज़रूरी हो जाता है, आप ख़ुद को रोक नहीं पाते हैं.

शराब की लत आपको आत्मकेंद्रित, स्वार्थी और ख़ुद का ही नुक़सान करने वाला बना देती है.

‘एलकॉहोलिक्स एनोनिमस’ यानी एए का एक 12 प्वाइंट टेस्ट होता है. अगर आप उनमें से चार या उससे अधिक सवालों का जवाब हां में देते हैं को आपको शराब की लत है, आपको मदद की ज़रूरत है.

2005 में मैं मदद लेने के लिए नशा मुक्ति केंद्रों में जाने लगा. उससे मुझे बहुत मदद मिली, लेकिन फिर से मैं सुबह से लेकर रात तक पीने लगा.

जब भी मैं 2 से 7 दिनों के लिए लगातार पीता, मैं फिर नशा मुक्ति केंद्र पहुंच जाता. मैं पटना में भी नशा मुक्ति केंद्र में रहा.

भले ही पिछले 10 सालों में मैंने बहुत कम शराब पी, लेकिन मैं बार-बार नशे का आदी होता रहा.

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नशा मुक्ति केंद्रों ने मेरी बहुत मदद की, पर मुझे कोई स्थाई इलाज चाहिए था. फिर मैं पटना के एक स्थानीय ‘एलकॉहोलिक्स एनोनिमस’ में मैं भर्ती हुआ.

पहले पांच दिनों में मैंने छह बैठकों में हिस्सा लिया. अब मैं हर हफ्ते जाता हूं. 13 महीने हो चुके हैं और मैंने शराब की एक बूंद तक नहीं पी है.

मुझे अब खुद पर भरोसा हो गया है कि मैं दोबारा अपनी ज़िन्दगी को बना सकता हूं. मैं कहीं नौकरी या व्यवसाय शुरू करूंगा.

एए की बैठकों में मुझे भगवान की मौजूदगी का एहसास हुआ. अगर आपको कैंसर, एड्स, डायबिटीज़ या केवल बुखार भी हो तो लोग आपसे सहानुभूति रखेंगे.

वो आपकी मदद करेंगे, आपके जल्द ठीक होने की दुआ करेंगे, लेकिन शराबियों से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता.

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हमें नीची नज़रों से देखा जाता है, खुद के हाल पर छोड़ दिया जाता है. एक शराबी ही दूसरे शराबी को समझ सकता है. केवल एक शराबी ही दूसरे शराबी की मदद कर सकता है. इसलिए एए का तरीका सफल है.

जब बिहार सरकार ने इसी साल अप्रैल में शराबबंदी लागू की तो मैं बहुत खुश हुआ.

ऐसे में मेरे लिए तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता था जब मैं खुद बेताबी से शराब छोड़ना चाहता था.

शहर में ऐसा कोई शराबखाना नहीं था जहां मैं अक्सर नहीं जाता था. मैं उन सभी को बंद होते देखकर खुश था .

अब कोई ऐसा साइनबोर्ड नहीं था जो मुझे अपनी तरफ बुलाए और मुझे एक बार फिर से शराब का आदी बना दे.

लेकिन कुछ महीनों बाद मैं इतने यकीन से नहीं कह सकता था. अगर मुझे दारू की एक बोतल चाहिए तो मैं कोई तरीका ढूंढ ही लूंगा.

कानून तोड़कर, गिरफ़्तार होने का ख़तरा मोलकर, भारी कीमत चुकाकर अवैध शराब खरीदकर. मैंने सुना है पटना में कई लोग ऐसा कर रहे हैं.

ड्राई दिनों में, जैसे चुनाव या महात्मा गांधी के जन्मदिवस पर, मैं एक-दो बोतल शराब का जुगाड़ कर ही लेता था.

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मुश्किल था, लेकिन मैं हासिल कर ही लेता था. ये लत की ही निशानी है कि जो भी हो वो अपने शराब का जुगाड़ कर ही लेगा.

आख़िर लत की जो बीमारी है, वो आपको स्वार्थी और आत्म-बर्बादी के रास्ते पर ले ही जाएगा. शराबी एक बोतल के लिए चोरी और लड़ाई तक कर सकता है.

ड्रग का उदाहरण लीजिए. देशभर में मनोरंजन के लिए ड्रग्स लेने पर पाबंदी है. फिर भी इतने लोग नशाखोर हैं. नशा मुक्ति केंद्र ऐसे लोगों से भरे हुए हैं.

पटना में एक ‘नारकोटिक्स एनोनिमस’ संस्था भी है. 1920 में अमरीका में प्रतिबंध लगाए गए थे लेकिन वो सफल नहीं हो पाया.

तेरह सालों बाद प्रतिबंध को हटा दिया गया. अगर अमरीका में ये सफल नहीं हो पाया तो सब जगहों में से बिहार में ये कैसे सफल हो पाएगा?

सरकार क्या करना चहती है? क्या वो शराबियों को शराब नहीं लेने में मदद कर रही है.

या सामाजिक और नैतिक बुराई के आधार पर वो पूरी तरह से शराब पर पाबंदी लगाना चाहती है.

जहां अमीर बड़ी आसानी से शराब हासिल कर सकते हैं, गरीब लोग नकली शराब पीते हैं.

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आपने गोपालगंज में जहरीली शराब से मौतें देखीं. पटना की सड़कों पर मैं काफी लोगों को खुलेआम मैरिजुआना पीते देखता हूं

पाबंदी से निश्चित रूप से अधिक मादक पदार्थों के सेवन को बढ़ावा मिलेगा. लेकिन मेरी भावनाएं मिली जुली हैं.

मुझे लगता है कि इससे कई गरीबों की ज़िन्दगी बेहतर हुई है, केवल गांव में ही नहीं बल्कि पटना में भी.

मैं एक ऐसे मजदूर को जानता हूं जो अपने रोज़ की कमाई का आधा हिस्सा शराब खरीदने में बर्बाद करता था.

उनका काम, जीवन और परिवार को बहुत भुगतना पड़ा. शराबबंदी लागू होने के बाद पहले 10 दिनों तक उन्हें काफ़ी दिक्कत हुई.

उल्टी और पेट खराब रहने के कारण वो काम पर नहीं जा पा रहे थे. लेकिन दस दिनों के बाद वो ठीक हो गए और उनकी ज़िन्दगी अब बेहतर है.

एक दिन वो और उनके पांच दोस्तों ने अवैध रूप से शराब खरीदने की कोशिश की. लेकिन इतनी महंगी होने के कारण वो उसे नहीं खरीद पाए.

इस तरह की कहानियां और मेरे खुद के शराब से दूर रहने की कोशिश, शराबबंदी का पूरी तरह से समर्थन या विरोध करने को कठिन बना देता है.

(बीबीसी संवाददाता शिवम विज के साथ बातचीत पर आधारित)

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