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देशभक्ति या डॉलर-भक्ति?

ब्रजेश उपाध्याय बीबीसी संवाददाता, वॉशिंगटन अमरीकी देशभक्ति बड़े ज़ोर-शोर से ट्रेंड कर रही है. ट्विटर, फ़ेसबुक और गूगल पर नहीं बल्कि पूरी फ़िज़ा देशभक्ति के तीन रंगों यानि लाल, नीला और सफ़ेद की आगोश में है. चार जुलाई है, कोई मज़ाक थोड़ी है. दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क अपनी आज़ादी मना रहा है. और इस […]

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अमरीकी देशभक्ति बड़े ज़ोर-शोर से ट्रेंड कर रही है. ट्विटर, फ़ेसबुक और गूगल पर नहीं बल्कि पूरी फ़िज़ा देशभक्ति के तीन रंगों यानि लाल, नीला और सफ़ेद की आगोश में है.

चार जुलाई है, कोई मज़ाक थोड़ी है. दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क अपनी आज़ादी मना रहा है. और इस बार तो चुनावी साल है यानि सोने पर सुहागा.

ये अमरीका को फिर से महान बनाने का साल है, अमरीकी सरहदों को पुख़्ता करने का साल है, देशभक्ति को जताने का साल है, बाहर से आए लोगों को भगाने का साल है और उनके नाम पर अमरीकियों को डराने का साल है.

दुकानों में तो देशभक्ति जैसे बरस रही है. चीन, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में बनी चीज़ें अमरीकी रंगों में लिपटकर धड़ाधड़ बिक रही हैं.

चप्पल हो या चश्मा सब पर देशभक्ति की छाप है.

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स्वमिंग पूल और समंदर के किनारे अपने गोरे जिस्मों को धूप में जलाकर भूरा करने की कवायद में लगी जवानियों को ढकने की नाकाम कोशिश कर रही नन्ही सी बिकिनी भी अमरीकी देशभक्ति में रंगी हुई है.

अंदाज़ा है कि चार जुलाई को पचास करोड़ बीयर की बोतलें सुड़की जाएंगी, पंद्रह करोड़ हॉट डॉग भकोसे जाएंगे, पिछले बरसों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा झंडे खरीदे जाएंगे.

बीयर बनानेवाली कंपनी बडवाइज़र ने तो अपना नाम बदल डाला है और बोतलों पर सिर्फ़ "अमरीका" लिखा जाएगा.

देशभक्ति और डॉलर-भक्ति दोनों ही फल-फूल रहे हैं.

लेकिन अटलांटिक के उस पार यही देशभक्ति कहर बरपा रही है. जिस तेज़ी से देशभक्ति ऊपर जा रही है उसी तेज़ी से ब्रिटिश पाउंड ज़मीन पर लोट रहा है. ये गड़बड़ कैसे हो गई?

आज़ादी तो ग़ुलाम रहे देश मनाते हैं. जिसने बरसों तक सिर्फ़ राज किया है उसे आज़ादी मनाने की ज़रूरत क्या थी?

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जिसने हम अनपढ़-गंवारों को अंग्रेज़ी बोलना सिखाया, डिवाइड ऐंड रूल की तालीम दी, एक काम को रोकने के सौ तरीकों वाली बाबूगिरी दी उस मुल्क से ऐसी ग़लती कैसे हो गई?

चुनाव में किए गए वादों को सिरियसली थोड़ी न लेते हैं? ये बात डेविड कैमरन साहब कैसे भूल गए?

चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि यूरोप से आज़ादी के लिए रेफ़रेंडम करवाएंगे. लेकिन पूरा करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी थी. बल्कि अब आज़ादी का नारा लगानेवाले देशभक्तों के पास भी कुछ करने को रह नहीं गया है तो आने-जानेवालों पर मलबा फेंक रहे हैं.

अपनी पुरानी कॉलोनियों को ही देख लेते. चुनाव के दौरान कोई अखंड भारत की बात करता है तो कोई पाकिस्तान को सभी आतंकवादियों से मुक्त करने की बात करता है, लेकिन सचमुच ऐसा कोई करता है क्या? दुकान भी तो चलानी होती है.

गर्मियों का महीना था. भारत-पाकिस्तान के सियासतदान इन दिनों ज़रूरी काम से लंदन में ही होते हैं–कोई दिल के इलाज के लिए, कोई पुरानी बीवी के भाई के चुनाव में कैंपेनिंग के लिए तो कोई टेम्स नदी की सफ़ाई के बारे में जानने के लिए.

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कैमरन साहब, इन मंजे हुए लोगों में से किसी से तो मिल लेते. निहारी भी मिलती और सलाह भी.

अब भुगतो. सुना है सभी पीठ पीछे हंस रहे हैं. लोग ये भी कह रहे हैं कि ब्रिटेन ने तो ट्रंप का मज़ाक उड़ाने का हक़ भी खो दिया.

आपको ये तो नहीं लगा कि अमरीका में भी जो फिर से महान बनने की मुहिम चल रही है वो सचमुच में होने जा रहा है और लोग आप पर ऊंगलियां उठाएंगे कि उन्हें मौका नहीं दिया गया?

अरे सर कहां हो आप? देशभक्ति तो क्रिकेट और फ़ुटबॉल के मैदानों पर या चुनावी वादों में ही भुनाने वाली चीज़ रह गई है. अमरीका में भी वो जबतक डॉलर बरसाती है, तभी अच्छी लगती है. आपके देशभक्त भी नारे लगाते, फिर अपने काम में लग जाते. किसके चक्कर में फंस गए आप.

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ख़ैर, जिस बिल्डिंग में मैं रहता हूं वहां नोटिस लगा है कि इस बार चार जुलाई की शाम बीयर और खाना मुफ़्त होगा लेकिन साथ में देशभक्ति का एक गीत भी गाना होगा. जाकर पूछता हूं कि इक़बाल का लिखा "सारे जहां से अच्छा…" गाऊं तो चलेगा क्या?

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