जब मई, 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार चुनी गई थी तब केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में एक उम्मीद जगी थी.
इस सरकार से विदेश और आर्थिक नीति में ठोस क़दम उठाने की उम्मीद थी. लेकिन दो साल बाद ये आशा अब निराशा की ओर बढ़ती नज़र आ रही है.
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने दावा किया था कि वही एक नेता हैं जो भारत को आगे की ओर बढ़ा सकते हैं. लगा था कि वे भारत को आर्थिक तौर पर पिछड़ा रखने वाली नीतियों को बदलने का काम करेंगे.
उनसे ये भी उम्मीद थी कि वे न्यूनतम सरकार के साथ अधिकतम प्रशासन उपलब्ध करा सकते हैं. लेकिन बीते दो साल में इस सरकार ने ऐसे क़दम नहीं उठाए जिससे ये लगे सरकार अपने वादों पर खरी उतरे. यहां तक कि सरकार फिज़ूल के आतंरिक विवादों में उलझती दिखाई दे रही है.
सरकार का सारा ज़ोर राज्यों के चुनाव जीतने में लग गया है, यह भूलते हुए कि जनता को उनसे प्रशासन की उम्मीद थी और अगर वे बेहतर प्रशासन दे पाते तो चुनाव अपने आप ही जीत जाते.
नई सरकार के आते ही कई राज्यों में, ख़ासकर उन राज्यों में जो चुनाव की ओर जा रहे थे, वहां सांप्रदायिक तनाव की ख़बरें आनी शुरू हुईं.
घर वापसी, गोवध पर पाबंदी और गोमांस खाने पर पाबंदी की मांग उठी.
यहां तक कि महाराष्ट्र की प्रदेश सरकार ने बीफ़ रखने या ख़ाने पर क़ानूनी पाबंदी लगा दी. इस सरकार ने व्यर्थ में हैदरबाद विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय और कई अन्य संस्थाओं पर प्रहार किया जो वामपंथियों के प्रभाव में समझी जा रही थीं.
इसका नतीजा यह भी हुआ कि सभी दल एकजुट हो करके इस सरकार की ससंद में एक नहीं चलने दी और महत्वपूर्ण क़ानून पारित नहीं हुए.
लेकिन मोदी सरकार ने विदेश नीति में जरूर कुछ करने की कोशिश की है और इसमें नरेंद्र मोदी की छाप नज़र आती है.
मोदी ने चीन और पाकिस्तान से संबंध सुधारने में कई नए क़दम उठाए हैं. इसके अलावा उन्होंने अमरीका, जापान, रूस, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, अफ़ग़ानिस्तान, अरब देश, इसराइल से अपने संबंध बढ़ाए हैं, हालांकि यह नीति कितनी कारगर होती है, यह देखना अभी बाक़ी है. लेकिन यह सराहनीय तो है ही.
जहां तक अमरीका से संबंध है, दोनों देश आर्थिक और सामाजिक पहलुओं में, जनतंत्रात्मक होने के नाते एकसमान भी हैं और मोदी में इन दोनों देशों को पास लाने का माद्दा भी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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