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जब श्री कृष्ण ने दिखायी राह
बल्देव भाई शर्मा महाभारत की एक कथा बड़ी प्रेरक है. इसमें मनुष्य का अहंकार, विनम्रता, त्याग और सेवा भाव कुछ इस तरह सामने आते हैं कि आज के दौर में भी ये जीवन की सही राह दिखते हैं. महाभारत भारत की सांस्कृतिक चेतना का महाकाव्य है. जीवन के विविध पक्ष इसमें कुछ इस तरह प्रस्तुत […]
बल्देव भाई शर्मा
महाभारत की एक कथा बड़ी प्रेरक है. इसमें मनुष्य का अहंकार, विनम्रता, त्याग और सेवा भाव कुछ इस तरह सामने आते हैं कि आज के दौर में भी ये जीवन की सही राह दिखते हैं.
महाभारत भारत की सांस्कृतिक चेतना का महाकाव्य है. जीवन के विविध पक्ष इसमें कुछ इस तरह प्रस्तुत हुए हैं कि उनसे रू-ब-रू होकर मन का सारा भ्रम, संपूर्ण अंधकार विलीन हो जाता है. महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया, पांडवों की विजय हुई. युधिष्ठिर राज सिंहासन पर बैठे. इस विजय के उपलक्ष्य में युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया. इतने विशाल आयोजन की तैयारियां भी उतनी ही व्यापक होनी थीं इसलिए सबको अलग-अलग जिम्मेवारियां सौंपी गयीं. श्री कृष्ण तो भगवान के रूप हैं उन्हीं के मार्गदर्शन में पांडवों ने युद्ध लड़ा और विजय प्राप्त की. उनको क्या जिम्मेवारी दी जाये, यह उन्हीं से पूछना तय हुआ.
जो उनको उचित लगे वहीं दायित्व उन्हें दिया जाये. कृष्ण के पास बात पहुंची, उन्होंने कहा कि अतिथियों के पैर धोने और उनकी पादुकाओं (जूतों) की रखवाली का काम मुझे दो. सब भौंचक हो गये, ऐसा कैसे हो सकता है. युधिष्ठिर अनमने होकर बोले-केशव यह क्या कह रहे हो, आप हमारे आराध्य हैं. यह करना आपको शोभा नहीं देगा. आप तो सारे कार्य संचालन की देख-रेख कीजिए. कृष्ण टस-से-मस न हुए और वहीं कार्य उन्हाेंने अपने लिए चुना.
आज जब हर आदमी बड़ी कुरसी संभालने को लालायित रहता है जबकि उसकी पात्रता कुछ भी नहीं. लेकिन आदमी कभी सोचता नहीं कि उसकी योग्यता क्या है, उसमें वैसे गुण हैं भी कि नहीं. बस, एक लालसा कि मैं सबसे ऊपर दिखूं, सबसे आगे दिखूं. व्यवस्था तंत्र का संचालन कर रहे लोग भी तो ऐसे ही चाटुकारों और उनके हितों को साधने में सहायक बननेवाले या उनके हर सही-गलत में हां में हां मिलानेवाले लोगों को चुनते हैं. गुणवान, कर्मठ और सात्विक भाववाले लोग इस प्रक्रिया में छिटकते चले जाते हैं. उन्हें कोई अहमियत नहीं मिलती, क्याेंकि वे उद्देश्य के प्रति समर्पित होते हैं, व्यक्ति के प्रति नहीं.
तब ऐसा ही समाज बनता है, जैसा देश की आजादी के 68 साल बाद भी हम अपने आसपास देख रहे हैं. केवल बड़े आदर्शों का उद्घोष करने से समाज नहीं बदलता. उन आदर्शों के अनुरूप जब बड़े लोग आचरण करते हैं, तब समाज उनका अनुसरण करता है. अन्यथा ये आदर्श ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ जैसी उक्ति ही साबित होते हैं. इसीलिए हमारे शास्त्रकारों ने कहा – महाजनो येन गत: सा पंथा. श्रीकृष्ण ने सेवा का आदर्श प्रस्तुत करने के लिए कि पांडवों को सत्ता का अहंकार न हो जाये और वे प्रजा की सेवा के बजाय ऐश्वर्य भोग में न लिप्त हो जायें, अपने लिए वह काम चुना.
पांडव जान गये हैं कि श्रीकृष्ण परमब्रह्म हैं, वह हर दृष्टि से उन्हें ऊंचे-अासन पर बिठाये रखना चाहते हैं, लेकिन केशव हैं कि उन्हें आगंतुकों का चरण रज धोने में ही बड़प्पन दिख रहा है. इस भेद को जिसने समझ लिया, वहीं मनुष्यता के शिखर पर खड़ा दिखता है. वहीं समाज की प्रेरणा बनता है. समाज की चेतना बड़ी प्रबल होती है, वह विचारों व आचरण के ढोंग या सच्चाई को बड़ी बारीकी से पकड़ लेती है.
भारतीय समाज की एक विडंबना यह भी है कि वह स्वयं कितनी ही एेश्वर्य भोगने की लालसा रखे, लेकिन पूजता उसे है ,जो त्याग, सद्गुण-सदाचार और सादगी-सच्चाई का जीवन जिये. इसलिए भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना में ऋषि परंपरा की प्रधानता है. इसीलिए भारत को ऋषि संस्कृति का देश कहा जाता है. श्रीकृष्ण ने पांडवों के राजसूय यज्ञ में उसी ऋषि संस्कार का संदेश दिया. इस कथा के आगे का भाग भी बड़ा रोचक और संस्कारप्रद है.
राजसूय यज्ञ बड़ी सफलता के साथ संपन्न हो गया. उसमें बड़ी संख्या में देश-देश के राजा शामिल हुए. पांडवों का यश, ऐश्वर्य व बल सबने खूब सराहा. खूब दान पुण्य हुआ. यज्ञ समापन के बाद सब बैठे हैं. युधिष्ठिर के चेहरे पर सफलता का दर्प झलक रहा है अपनी शक्ति का, अपने पुण्य का. युधिष्ठिर के मुख से सफलता का गुणगान सुनते हुए श्रीकृष्ण ने उस अहंकार को महसूस किया. इतने में अचानक एक नेवला जिसका आधा शरीर सोने का है और आधा सामान्य, इधर-उधर घूम रहा है. नेवला रसोई के आसपास कहीं-कहीं जमीन पर लोट-पोट होता भी दिखा. बार-बार यही दृश्य देख कर सबको कुतूहल हुआ कि आखिर माजरा क्या है.
युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा. कृष्ण तो अंतर्यामी है वह नेवले से पूछते हैं कि यह क्या कर रहे हो. नेवला कहता है कि मैं यहां ऐसे अन्न-कण ढूंढ़ रहा हूं जिनके स्पर्श से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाये. पर ऐसा हो ही नहीं रहा. सब आश्चर्य में है कि यह क्या कह रहा है? श्री कृष्ण ने पूछा तुम्हारा आधा शरीर सोने का कैसे है और अन्न कण छूने से बाकी हिस्सा सोने का कैसे हो जायेगा.
तब नेवले ने उन्हें कथा सुनायी. किसी क्षेत्र में अकाल के दौरान लोग भूखों मरने लगे. अन्न के लाले पड़ गये. एक ब्राह्मण-ब्राह्मणी और उनके दो छोटे पुत्र भूख से विह्वल थे, कई दिनाें से खाने को कुछ नहीं मिला. जैसे-तैसे ब्राह्मण को किसी संपन्न परिवार से भिक्षा अन्न मिला. ब्राह्मणी ने उसकी चार रोटियां बनायीं. चारों प्राणी खाने बैठे ही थे कि बाहर कराहने की कोई आवाज सुनी. ब्राह्मण ने बाहर आकर देखा, तो एक आदमी भूख से तड़प रहा था.
अंदर आकर उसने बताया तो ब्राह्मणी और बच्चे उसे अपनी-अपनी रोटी देने को तैयार हो गये. लेकिन ब्राह्मण ने कहा कि मैं घर का मुखिया हूं. तुम्हारा पालन-पोषण मेरी जिम्मेदारी है. इसलिए मैं अपनी रोटी अतिथि को देता हूं. एक रोटी खाकर भूखे की भूख और बढ़ गयी. ब्राह्मण परिवार ने आगंतुक की भूख मिटाने के लिए एक-एक कर चारों रोटियां खिला दीं. उसकी भूख शांत हो गयी और उसके प्राण बच गये.
वह प्रसन्न मन से इनको दुआएं देता हुआ चला गया. लेकिन भूख से व्याकुल ब्राह्मण परिवार का एक-एक कर प्राणांत हाे गया. नेवला कथा सुनाते हुए बताता है कि इसी समय इधर-उधर कुछ खाने की तलाश में भटकता हुआ वह भी उसी घर में पहुंच गया. जब वह घर में घूमते हुए चूल्हे के पास पहुंचा, तो वहां भूख से व्याकुल होकर धरती पर लोट-पोट होने लगा.
अचानक देखता है कि उसका आधा शरीर सोने का हो गया. अचंभे से उसने देखा तो पता चला कि सोना हो गये हिस्से पर जमीन से अन्न के कुछ कण छू गये थे. ब्राह्मणी से रोटी बनाते हुए जो अन्न कण जमीन पर गिर गये होंगे, उनके छूने से ही नेवले का आधा शरीर सोने का हो गया क्योंकि इन अन्न कणों में, दूसरे की भूख मिटाने के लिए अपने प्राण त्याग देने वाले ब्राह्मण परिवार का पुण्य जुड़ा था. उसका फल नेवले को मिल गया.
राजसूय यज्ञ इतना बड़ा आयोजन था, इसमें तो बहुत दान-पुण्य हुआ. इसीलिए मैं (नेवला) सुन कर यहां आया हूं कि इस पुण्य से मेरा बाकी बचा आधा शरीर भी सोने का हो जायेगा. लेकिन मैं तो यहां जगह-जगह लोट-पोट हो रहा हूं फिर भी सोने का नहीं हो पा रहा. युधिष्ठिर की मनोदशा भांप कर बोले भ्राताश्री अहंकार से दान-पुण्य का क्षय हो जाता है.
ब्राह्मण परिवार ने यह सोच कर कुछ नहीं किया था कि वह जो कर रहा है उससे पुण्य मिलेगा. उसने तो केवल यही सोचा की भूखे के प्राण हैं, दु:ख में पड़े व्यक्ति की मदद करनी है. भले ही इसमे उनके प्राण चले गये पर उन्होंने पुण्य मिलेगा, यह सोच कर कुछ नहीं किया था. उन्होंने तो कर्तव्य समझ कर यह किया. दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने का अहंकार सेवा के पुण्य को नष्ट कर देता है. युधिष्ठिर को सीख मिल गयी थी. इसी प्रेरणा से वह एक धर्मनिष्ठ आैर प्रजावत्सल राजा बने.
विवेक से दुर्गुणों पर लगाया अंकुश
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ चर्चा में मग्न थे. उसी समय एक ज्योतिष घूमता-घामता पहुंचा, जो कि चेहरा देख कर व्यक्ति के चरित्र के बारे में बताने का दावा करता था. सुकरात व उनके शिष्यों के समक्ष यही दावा करने लगा. चूंकि सुकरात जितने अच्छे दार्शनिक थे उतने सुदर्शन नहीं थे, बल्कि वे बदसूरत ही थे. पर लोग उन्हें उनके सुंदर विचारों की वजह से अधिक चाहते थे. ज्योतिषी सुकरात का चेहरा देख कर कहने लगा, इसके नथुनों की बनावट बता रही है कि इस व्यक्ति में क्रोध की भावना प्रबल है.
यह सुन कर सुकरात के शिष्य नाराज होने लगे परंतु सुकरात ने उन्हें रोक कर ज्योतिष को अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया. इसके बाद ज्योतिषी ने कहा, इसके माथे और सिर की आकृति के कारण यह निश्चित रूप से लालची होगा. इसकी ठोडी की रचना कहती है कि यह बिलकुल सनकी है, इसके होंठों और दांतों की बनावट के अनुसार यह व्यक्ति सदैव देशद्रोह करने के लिए प्रेरित रहता है.
यह सब सुन कर सुकरात ने ज्योतिषी को इनाम देकर भेज दिया़ इस पर सुकरात के शिष्य हौरान रह गये. सुकरात ने उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए कहा कि सत्य को दबाना ठीक नहीं है. ज्योतिषी ने जो कुछ बताया वे सब दुर्गुण मुझ में हैं, मैं उन्हें स्वीकारता हूं. पर उस ज्योतिषी से एक भूल अवश्य हुई है, वह यह कि उसने मेरे विवेक की शक्ति पर जरा भी गौर नहीं किया. मैं अपने विवेक से इन सब दुर्गुणों पर अंकुश लगाये रखता हूं. यह बात ज्योतिषी बताना भूल गया. शिष्य सुकरात की विलक्षणता से और प्रभावित हो गये.
॥ लघु कथा॥
… तो उत्साह जीवन यात्रा का सार तत्व
एक चौराहे पर तीन यात्री मिले. तीनों के कंधों पर दो-दो झोले थे. लंबी यात्रा से तीनों थके हुए थे, लेकिन एक यात्री के चेहरे पर प्रसन्नता और उत्साह का भाव था. दूसरा यात्री श्रम से थका हुआ तो था, लेकिन निराश या क्लांत नहीं था, परंतु तीसरा बेहद मुरझाया हुआ और दुखी दिख रहा था.
तीनों एक पेड़ की छाया में सुस्ताने लगे. बातचीत होने लगी, कौन कहां से आ रहा है, कहां जा रहा है, किसकी झोली में क्या रखा है! एक यात्री ने बताया कि उसने अपनी पीछे की झोली में कुटुम्बियों और उपकारी मित्रों की भलाइयां भर रखी थीं और सामने की झोली में उन लोगों की बुराइयां रखी थीं. दूसरे ने आगे के झोले में मित्रों व हितैषियों की अच्छाइयां लटका रखी थीं और उनकी बुराइयों की थैली पीछे लटका रखी थी, जिन्हें देख-देख कर अपनी सराहना करता और खुश होता. फिर तीसरे यात्री से उन दोनों ने पूछा, तुम्हारे झोलों में क्या भरा है? आगे का झोला तो काफी भारी लगता है, पीछे का झोला हल्का है. उसने बताया कि उसने भी अच्छाइयों की
थैली आगे और बुराइयों की थैली पीछे लटका रखी है, लेकिन पीछे की थैली में एक छेद है, इसलिए बुराइयां टिकती नहीं, एक-एक कर गिर जाती हैं और पीछे का वजन हल्का हो जाता है.
जिस यात्री ने आगे के झोले में अच्छाइयां और पीछे के झोले में बुराइयां भर रखी थीं, वह प्रसन्न था, क्योंकि चलते समय उसकी नजर हमेशा अच्छाइयों पर ही पड़ती थी और बुराइयों को वह भुला रहता था, जिसके थैले में छेद था वह उत्साह से भी भरा रहता था. वे रास्ते में जाती थीं, लेकिन जिसने बुराइयों की थैली आगे और अच्छाइयों की थैली पीछे लटका रखी थी, वह निराश रहता था. यही जीवन यात्रा का सार तत्व है.
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