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रोग की तरह है मजहबी कट्टरपंथ
पुष्पेश पंत विदेश मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार बांग्लादेश में ब्लॉगरों की निर्मम हत्या का दौर जारी है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम इन घटनाओं के निहितार्थ समझने को प्राथमिकता नहीं दे रहे हैं. यह भूल एक घातक नादानी सिद्ध हो सकती है. इन हत्याओं पर सतही नजर डालने पर ही यह लग सकता […]
पुष्पेश पंत
विदेश मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार
बांग्लादेश में ब्लॉगरों की निर्मम हत्या का दौर जारी है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम इन घटनाओं के निहितार्थ समझने को प्राथमिकता नहीं दे रहे हैं. यह भूल एक घातक नादानी सिद्ध हो सकती है. इन हत्याओं पर सतही नजर डालने पर ही यह लग सकता है कि हत्यारे कुछ सरफिरे जुनूनी कट्टरपंथी तत्व हैं, जिन पर शेख हसीना जल्दी ही काबू पा लेंगी.
यह सोचना और भी बड़ी गलतफहमी है कि यह संकट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार या जनतांत्रिक समाज में अल्पमत/ अल्पसंख्यकों के प्रति सहिष्णुता के सवाल तक सीमित है. कड़वा सच यह है कि पूरे दक्षिण एशिया में पारंपरिक समाज असहिष्णुता से उत्पीड़ित त्रस्त रहा है. आधुनिकता के साथ अभिन्न रूप से जुड़े धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे के साथ सहअस्तित्व की चुनौती बहुत विकट है. राजनीतिक व्यवस्था को जनतांत्रिक घोषित करने भर से सामाजिक विषमता या उत्पीड़न का अंत स्वयमेव नहीं हो जाता. शासक वर्ग, उनके साथ जुड़े निहित स्वार्थ कहीं भी स्वेच्छा से सहिष्णु नहीं बन जाते. भारत में हम अपने अनुभव से यह जानते हैं.
बांग्लादेश की त्रासदी पर किसी टिप्पणी को उस देश की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप नहीं समझा जाना चाहिए. वहां से हिंसात्मक सांप्रदायिकता का लावा बह कर यहां आ सकता है, आता रहा है. मजहबी कट्टरपंथी और राजनीतिक असहिष्णुता संक्रामक रोग की तरह होते हैं. इनके साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व असंभव है. कुछ वर्ष पहले जब तसलीमा नासरीन शरण लेने भारत पहुंची थीं, तब अनेक ‘समझदार’ लोगों की राय थी कि हमें उनसे दूर ही रहना चाहिए. उनका समर्थन करना ‘अश्लीलता’ को बढ़ावा देना ही होगा आदि-आदि. अभिव्यक्ति की आजादी का संकट और लिंगभेदी अन्याय के संक्रमण की चिंता करने की फुरसत कम लोगों को ही थी. प्रसिद्ध चित्रकार हुसैन का उत्पीड़न हो या पुस्तकों, फिल्मों पर गैरकानूनी प्रतिबंध, हमारे अपने देश में भी विरोध ही नहीं, बल्कि असहमति का स्वर मुखर करनेवाले दुस्साहसी के खात्म कर देने की मानसिकता बढ़ रही है. पुणे और धारवाड़ में अंधविश्वास विरोधियों की जघन्य हत्याएं हो चुकी हैं.
इसलिए यह गलतफहमी पालना खतरनाक है कि यह छिटपुट अपवाद है, या परदेस का मामला है. हसीना 1971 के गद्दारों को और अपने परिवार के हत्यारों को दंडित करने में काफी सफल रही हैं, लेकिन मानवाधिकार समर्थक ब्लॉगरों की रक्षा करने में असमर्थ लगती हैं. इसका एक कारण यह हो सकता है कि वह फिलहाल कट्टरपंथी इसलामी तत्वों को सीधी चुनौती देने से कतरा रही हैं. हमारी समझ में यही निहितार्थ सबसे चिंताजनक है. तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए ऐसी घटनाओं की अनदेखी बहुत जल्दी लाइलाज व जानलेवा मर्ज बन सकती है- वहां भी, यहां भी.
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