– एमजे अकबर –
वरिष्ठ पत्रकार
डॉ सिंह राजनीतिक जीवन के
सूर्यास्त के बाद क्या करेंगे
डॉ मनमोहन सिंह की नयी भूमिका अंतरराष्ट्रीय मंच पर हो सकती है. यह तथ्य कि उन्हें कांग्रेस में अपनी भूमिका से किनारा करना पड़ रहा है, दूसरे मंच पर उनकी नयी भूमिका की राह में शायद ही अवरोध खड़ा करे. उनके प्रस्थान के बाद, उनके खिलाफ गुस्सा शांत पड़ जायेगा. अगली जनवरी तक डॉ सिंह का दु:स्वप्न समाप्त हो जायेगा.
वह व्यक्ति, जिसे इस बात की चिंता नहीं साल रही है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने राजनीतिक जीवन के सूर्यास्त के बाद क्या करेंगे, खुद प्रधानमंत्री हैं. यह उनका स्वभाव है. एक नौकरशाह के तौर पर डॉ सिंह ने अपने कौशल का इस्तेमाल फिसलन भरी सरकारी सीढ़ी पर गिरे बिना ऊपर चढ़ने के लिए किया.
कैंब्रिज के वजीफा पानेवाले छात्र से लेकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर तक उनके कैरियर का सफर काफी प्रभावशाली है. लेकिन अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने जो कुछ हासिल किया, वह अतुलनीय है. उनकी यह उल्लेखनीय नियति निश्चित ही भगवान ने अच्छे मिजाज में लिखी होगी.
अगर भारत 1991 में उनको वित्त मंत्री बनता हुआ देख कर अचंभित रह गया था, तो 13 वर्ष बाद आश्चर्यचकित होने की बारी दुनिया की थी, जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. 13 सिर्फ पश्चिम के लिए अशुभ संख्या है, पूरब के लिए नहीं.
मनमोहन एक चीज पर अपना समय जाया नहीं करेंगे. यह है राहुल गांधी को मशविरा देना. उनसे जिस चीज की मांग नहीं की जाती, वे उस पर शायद ही कुछ बोलते हैं. और किस वक्त कौन-सी चीज सही है, इसका आकलन करने में वे निष्णात हैं, भले ही यह गुण अकसर प्रकट नहीं होता.
वे निश्चित ही किसी हाकिम की तरह यहां-वहां मंडराना पसंद नहीं करेंगे. इस भूमिका को राजशाही के दौर में भी नापसंद किया जाता था और लोकतंत्र में तो इसकी अनुशंसा करनेवाले और भी कम लोग हैं. न ही वे विस्मृत पीढ़ी यानी अपनी उम्र के छठे और सातवें दशक में पहुंच चुके कांग्रेसी नेताओं का पालनकर्ता बनने की कोशिश करेंगे.
वर्तमान कैबिनेट इन नेताओं से ही बनी है, अगर इसमें से राज्य मंत्रियों को छांट दिया जाये. कांग्रेस की डोर राहुल गांधी के हाथों में आने के बाद ये वैसे भी अप्रासंगिक हो जायेंगे. इनका नाम लेना पीड़ादायक हो सकता है. खासतौर पर उन महानुभावों के लिए, जो अगला चुनाव हारनेवाले हैं.
लेकिन हम वैसे कई नामों की राजनीतिक पारी की आखिरी कुछ शामों के साक्षी बन रहे हैं, जो पिछले दशक में सुर्खियों में छाये रहे. राहुल गांधी न सिर्फ डॉ मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेताओं से इतर भाषा बोलते हैं, बल्कि यह भाषा उनसे एक दशक पहले की पीढ़ी से भी जुदा है.
तो क्या मनमोहन सिंह अवकाश ग्रहण करके अपने पुस्तकालय की शरण लेंगे. एक ऐसे शख्स के लिए, जिसने अपनी शांतचित्त मुख-मुद्रा के बावजूद एक असाधारण और रोमांचकारी जीवन का स्वाद चखा है, यह काफी उबाऊ होगा. किताबों में मिलनेवाली शांति का ख्याल प्रलोभनकारी हो सकता है, खासतौर से इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी शरीर पर भी उतना ही असर डालती है, जितना कि दिमाग और चेतना पर.
लेकिन, उनके शरीर में जल्द ही सुधार हो जायेगा और अपने खाली दिनों को वे अंगरेज अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स (जिन्होंने गैर कम्युनिस्ट वाम के एजेंडे को उनके कैरियर से ज्यादा समय तक परिभाषित किया है) के पन्नों पर नजर फेरने मात्र से नहीं भर पायेंगे. फिर वे क्या करेंगे?
डॉ सिंह की नयी भूमिका अंतरराष्ट्रीय मंच पर हो सकती है. यह तथ्य कि उन्हें कांग्रेस में अपनी भूमिका से किनारा करना पड़ रहा है, दूसरे मंच पर उनकी नयी भूमिका की राह में शायद ही अवरोध खड़ा करे. उनके प्रस्थान के बाद, उनके खिलाफ गुस्सा शांत पड़ जायेगा और एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय है, जो यह तथ्य भली-भांति जानता है कि राजनीति में जिसका उत्थान होता है, उसका पतन भी निश्चित है. अगली जनवरी तक डॉ सिंह का दु:स्वप्न समाप्त हो जायेगा.
अभी उभार ले रहा अंतरराष्ट्रीय संकट अगली जनवरी तक विनाशकारी शक्ल अख्तियार कर चुका होगा. एशिया में लेबनान से लेकर पाकिस्तान तक का युद्ध क्षेत्र मध्य एशिया में शामिल हो चुका होगा. चीन का पश्चिमी हिस्सा भी इसमें शरीक हो सकता है. और मध्य पूर्व अफ्रीका एक खूनी दलदल में जा फंस सकता है.
अभी दुनिया में सिर्फ दो लोग हैं, जिनकी पहुंच सीमाओं के आर-पार दिखाई देती है- टोनी ब्लेयर और बिल क्लिंटन. क्लिंटन जहां भी जाते हैं, उनकी बात को ध्यान से सुना जाता है. ब्लेयर को सुनने के लिए लोग पैसे देते हैं. क्लिंटन विश्व के एक प्रमुख नेता हो सकते थे, लेकिन उनका दिल वाशिंगटन में और राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पत्नी की संभावित दावेदारी में बसता है.
यह कुछ हद तक शर्मनाक है कि पश्चिम द्वारा मध्य पूर्व एशिया के घावों पर मरहम लगाने और वहां विचारों को बचाये रखने के लिए टोनी ब्लेयर जैसे डकैत को चुना गया है. इराक में ब्लेयर की विरासत आनेवाले समय में दुनिया में कट्टरपंथी आतंकवाद का सबसे बड़ा सेप्टिक टैंक साबित हो सकता है. ब्लेयर वहीं रहेंगे, जहां हैं. अफ्रीका-एशिया को एक अफ्रीकी-एशियाई नेतृत्व भी चाहिए.
एक ऐसे क्षेत्र में, जहां उग्र उन्माद कड़वे युद्धों की जमीन तैयार करता रहा है, डॉ सिंह की सबसे बड़ी पूंजी उनकी घृणा और उन्माद से मुक्त निष्पक्ष आवाज साबित हो सकती है. किसी समय यह बात सिर्फ फिलीस्तीन को लेकर अरब दुनिया और इस्नइल के बीच के युद्ध के लिए सही थी, लेकिन फिलीस्तीन को सीरिया ने बौना कर दिया है और इराक फिर अराजकता की ओर लौट रहा है.
अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से अपने कदम पीछे हटा लेने के बाद काबुल और तालिबान के बीच युद्ध और जोर पकड़ लेगा. इसका प्रभाव पाकिस्तान तक होगा. युद्धों ने कभी भी सीमाओं की परवाह नहीं की है.
वाशिंगटन, मॉस्को, पेरिस, बीजिंग से लेकर संकट में फंसे कई देशों की राजधानियों में डॉ सिंह के प्रति काफी सम्मान और विश्वास की भावना है. डॉ सिंह के पास खुलनेवाले विकल्प सिर्फ स्याह और सफेद नहीं हैं, यह एक थके हुए योद्धा के लिए राहत की बात होती है. लेकिन वे कॉमन सेंस और शांति के संग्राहक साबित हो सकते हैं. ये दोनों अतिशय महत्वपूर्ण हैं.