दक्षिण-पूर्व एशिया में बसा सिंगापुर पूरी दुनिया में अपनी सुव्यवस्था के लिए जाना जाता है. एक बड़े शहर जैसे इस देश में किसी भी तरह की बदअमनी या अव्यवस्था को लेकर वहां की सरकार बेहद सख्त है. सिंगापुर की जातीय विविधता को लेकर भी सरकार काफी संवेदनशील है. यही वजह है कि 40 सालों से वहां कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ था. पर, यह शांति बीते साल 8 दिसंबर को भंग हो गयी, जब ‘लिटिल इंडिया’ में हिंसा भड़क उठी. यह दो समुदायों के बीच टकराव नहीं था. बस एक उपद्रव था, जिसे रोकने आये पुलिसकर्मियों व बचाव दल को निशाना बनाया गया. ‘लिटिल इंडिया’ में हिंसा के खिलाफ सिंगापुर की सरकार ने कठोर कदम उठाये हैं. नये साल की पूर्व-संध्या पर सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सीन लूंग ने अपने संदेश में कहा, ‘‘हम विदेशी कर्मचारियों के साथ ईमानदार व्यवहार करते रहेंगे, लेकिन उनसे हमारी अपेक्षा है कि वह हमारे कानूनों और सामाजिक मानदंडों का पालन करें. ‘लिटिल इंडिया’ में हुए दंगे अक्षम्य हैं.’’ अब सवाल है कि ‘लिटिल इंडिया’ में हिंसा की वजह क्या थी? और, यह हिंसा भारतीयों से जुड़े इलाके में क्यों भड़की? हम यहां इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे.
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//सेंट्रल डेस्क//
8 दिसंबर 2012 को सिंगापुर के ‘लिटिल इंडिया’ जिले में एक भारतीय निर्माण मजूदर शक्तिवेल कुमारवेलु की बस दुर्घटना में मौत के बाद दंगे भड़क उठे. चार दशकों में इस समृद्ध द्वीप में हुआ यह पहला बड़ा दंगा है. सिंगापुर की बहुचर्चित कठोर व्यवस्था को इसने ध्वस्त कर दिया. भारत में इस दंगे को लेकर ज्यादा चर्चा इसलिए है, क्योंकि दंगा करनेवाले ज्यादातर दक्षिण भारतीय और कुछ बांग्लादेशी कामगार हैं. दंगाइयों ने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया, उनके वाहनों को तोड़ा-फोड़ा और आग लगा दी. इसमें 22 पुलिसकर्मी जख्मी हो गये. इस हिंसा में करीब 400 दक्षिण एशियाई प्रवासी कर्मचारी शामिल थे. सिंगापुरियों में इस बात को लेकर काफी मतभेद है कि यह घटना महज संयोग है या फिर किसी बड़े आसन्न संकट की झांकी है? यह चर्चा भी है कि कहीं यह किसी तबके में लंबे समय से पल रही शिकवा-शिकायतों का प्रगटीकरण तो नहीं? सरकार जहां इसे बस एक घटना मान रही है, तो वहीं कई जानकार इसमें असंतोष के बीज देख रहे हैं. सिंगापुर ने दंगों के बाद कठोर कदम उठाते हुए 52 भारतीयों और कुछ बांग्लादेशियों को देशनिकाला दे दिया. इसके अलावा 25 भारतीयों पर दंगों के आरोप में मुकदमा चलाने का फैसला लिया गया है. इसमें सात साल तक की कैद और बेंत लगाने की सजा हो सकती है.
कैसे शुरू हुई हिंसा
वह रविवार की शाम थी. शक्तिवेल सेरांगून मार्ग के पास था जो दक्षिण एशियाई खरीदारों का पसंदीदा स्थल है. उसने भी हफ्ते में छह दिन कमरतोड़ मेहनत की थी, जैसा कि दक्षिण एशिया से आये हजारों मजूदर कंस्ट्रक्शन या सेवा क्षेत्र के रोजगार में करते हैं. शहर से दूर की रिहाइशों में रहनेवाले इन मजदूरों को रोज खुले ट्रक में भर कर लाया जाता हुआ और वापस ले जाया जाता हुआ देखा जा सकता है. रविवार इनके आराम करने का दिन होता है. इस दिन ये मजदूर श्री श्रीनिवास पेरुमल मंदिर जाते हैं, टेक्का बजार से सब्जियां खरीदते हैं, सेरांगून रोड के किसी सस्ते रेस्तरां-बार में बीयर पीते हैं और दोस्तों से गपशप करते हैं. विदेशी पर्यटक ‘लिटिल इंडिया’ को काफी पसंद करते हैं, क्योंकि यह भीड़ भरे बाजारों और तंग गलियों की वजह से असली एशिया का एहसास कराता है, जबकि इन्हीं वजहों से अन्य सिंगापुरी इससे आम तौर पर दूर ही रहते हैं.
1990 के दशक में, सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता चू वी कियांग के एक बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. उन्होंने कहा था कि वह जब सेरांगून मार्ग से गुजरते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है मानो वहां ‘ब्लैकआउट’ हो. इसे भारतीयों के काले रंग पर नस्लभेदी टिप्पणी माना गया था.
वजह साफ नहीं
कामगारों को पुलिस और बचाव कर्मियों पर हमले के लिए किस चीज ने उकसाया, यह स्पष्ट नहीं है. कुछ ने इसे नस्ली दंगा करार दिया, क्योंकि दंगाइयों में अधिकतर भारतीय थे. लेकिन यहां निशाना कोई अन्य जातीय समूह नहीं था. सिंगापुर नस्ली सौहार्द को बहुत गंभीरता से लेता है और यहां चार दशकों से ज्यादा समय से कोई नस्ली दंगा नहीं हुआ है. सिंगापुर की पीपुल्स एक्शन पार्टी (पीएपी) देश की आजादी के समय से ही सत्ता में है. किसी किस्म की बदअमनी के खिलाफ उसका रवैया काफी कठोर है. इसीलिए दंगों के मामले में काफी सख्त सजा का प्रावधान है. सिंगापुर में इससे पूर्व 1969 में चीनी और मलय लोगों के बीच नस्ली दंगे हुए थे. ये दंगे मलयेशिया में हुए दंगों की प्रतिक्रिया में भड़के थे. मलयेशिया में ‘13 मई की घटना’ के नाम से जाने जानेवाले दंगे में लगभग 200 लोग मारे गये थे.
स्थानीय लोगों में नाराजगी
सिंगापुर की सरकार विदेशियों का स्वागत करती है. यहां उनके लिए रोजगार पाना भी आसान है. लेकिन इसे लेकर स्थानीय लोगों में नाराजगी बढ़ी है, खास कर पिछले एक दशक में. सिंगापुरी लोग सार्वजनिक परिवहन में बढ़ती भीड़ और महंगाई से परेशान हैं और इसकी वजह वह विदेशी लोगों को मानते हैं. लोगों में बढ़ते इस असंतोष को विपक्षी ताकतें भुनाने की जुगत में रहती हैं. हालांकि सत्तारूढ़ पीएपी के पास संसद की कुल 87 सीटों में से 80 सीटें हैं, लेकिन 2011 के चुनावों में विपक्षी दलों को अप्रत्याशित सफलता मिली. प्रत्येक पांच में से दो सिंगापुरियों ने पीएपी के खिलाफ वोट दिया (यह तो सिंगापुर की चुनाव प्रणाली की जटिलता है कि विपक्ष के लिए रास्ता मुश्किल होता है). सिंगापुर में विपक्षी ताकतें विदेशी मानव-शक्ति पर जरूरत से ज्यादा भरोसे को बड़ी समस्या मानती हैं. उनका मानना है कि देश की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में वृद्धि से ज्यादा अहम है लोगों और देश की सुरक्षा.
नस्ली सौहार्द पर सतर्क सरकार
सिंगापुर अंतर-नस्ली सद्भाव को बहुत महत्व देता है. सरकार द्वारा तय देशभक्ति गीत एक जन, एक राष्ट्र, एक सिंगापुर में कहा गया है- ‘‘हर पंथ और हर नस्ल की अपनी भूमिका है, अपनी जगह है.’’ इसकी झलक हर कहीं देखी जा सकती है. सिंगापुर का प्रशासन नस्ली उथल-पुथल के किसी भी लक्षण को लेकर सतर्क रहता है. 1990 के दशक के मध्य में, एक विपक्षी नेता तांग लियांग हांग ने जब चीनी मूल के लोगों के गौरव को हवा देनी शुरू की, तो पीएपी ने उन्हें चीनी वर्चस्वादी करार दिया. और जब हांग ने पीएपी के नेताओं की आलोचना की, तो उन नेताओं ने मानहानि का मुकदमा कर दिया. इसके बाद हांग कभी सिंगापुर नहीं लौटे.
असंतोष के संकेत
सिंगापुर में बाहर से आये लोग अक्सर अक्सर अपने-अपने समूह में रहते हैं और तयशुदा जगहों पर ही तफरीह के लिए जाते हैं. जैसे, पश्चिमी दुनिया के लोग बोट क्वे में, फिलीपीनी घरेलू कामगार लकी प्लाजा में और भारतीय ‘लिटिल इंडिया’ में सप्ताहांत बिताते हैं. यह चयन उनका खुद का है, पर इसमें एक वर्गीय विभाजन भी नजर आता है. यह सही है कि सिंगापुर में एशिया के अन्य हिस्सों जैसी गरीबी नहीं है. फिर भी, सिंगापुरियों में बढ़ती गैर बराबरी की चर्चा है और बाहर से आनेवाले कामगारों में क्षोभ है. नवंबर 2012 में, चीन से आये 171 बस ड्राइवरों ने अप्रत्याशित रूप से हड़ताल कर दी. वे खराब कार्य स्थितियों से नाराज थे. यह 26 सालों में हुई पहली हड़ताल थी. सिंगापुर में आवश्यक सेवाओं, जिनमें सार्वजनकि परिवहन भी शामिल है, में हड़ताल गैरकानूनी है. बस ड्राइवरों की हड़ताल के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और 29 ड्राइवरों को वापस उनके घर भेज दिया गया. मानवाधिकार संगठन कई बार सिंगापुर में विदेशी घरेलू कामगारों के साथ नियोक्ताओं के खराब व्यवहार की आलोचना कर चुके हैं.
विदेशी श्रमिकों का शोषण
ब्लूमबर्ग के संवाददाता माइकल हान ‘लिटिल इंडिया’ की घटना के बाद कहते हैं कि इन दंगों से ‘शहर की जबरदस्त तरक्की का स्याह पक्ष’ सामने आ गया है. वह इसके लिए भरती करनेवाली बेईमान संस्थाओं के प्रति सरकारी लापरवाही को जिम्मेदार ठहराते हैं जो यहां काम दिलाने के बदले में उनसे कई महीनों तक कमीशन वसूलती हैं. अब यही बैक -फायर कर रहा है. ये बिचौलिये काम और वर्क परमिट दिलाने के लिए भारी फीस वसूलते हैं. चाहे फिर वे घरेलू नौकरानी हों या निर्माण मजदूर. मजदूरों में असंतोष का एक अन्य बड़ा कारण बेईमान नियोक्ता हैं. अमूमन ये छोड़ी और मझोली फर्मो के मालिकान होते हैं, जो जान-बूझ कर भुगतान करने में देरी करते हैं या भुगतान लटकाये रखते हैं. अगर इस बीच किसी मजदूर को देश से बाहर किया जाता है, तो उसका लटका हुआ पैसा मालिकान के पास ही रह जाता है. मजदूरों को अक्सर खराब हालात में रखा जाता है. एक छोटे अंधेरे कमरे में दर्जन भर लोग ठुंसे रहते हैं जिन्हें एक ही शौचालय साझा करना होता है.
सरकार के सामने चुनौती
सिंगापुर की सरकार के सामने दोहरी चुनौती है. एक तरफ लोगों विदेशियों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंता है, तो दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था को विदेशी कामगारों की जरूरत है. आखिर कम वेतन में ऊंची-ऊंची इमारतें बनाने, लॉन की छंटाई करने और सड़कों तथा फुटपाथ को चमचमाता रखने का काम कौन करेगा? एक सरकारी श्वेत-पत्र के मुताबिक, 2030 तक सिंगापुर की आबादी 69 लाख तक पहुंच जाने का अनुमान है. सिंगापुरी लोगों में जन्म दर गिर रही है. यानी, यह आबादी बढ़ाने में बड़ी भूमिका विदेशी कामगारों की होगी.
क्या आप्रवास नीति बदलेगी?
सवाल है कि क्या ‘लिटिल इंडिया’ की घटना के बाद सिंगापुर बाहर से आनेवाले लोगों के लिए अपनी नीति यानी आप्रवास नीति (इमिग्रेशन पॉलिसी) बदलेगा. फिलहाल ऐसे संकेत तो नहीं मिल रहे. सरकार केवल उन्हीं कामगारों को स्वदेश भेज रही है जो दंगे में सीधे आरोपी हैं. यह संख्या बहुत छोटी है. सरकार ‘लिटिल इंडिया’ की घटना को कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में ही देख रही है, न कि किसी बड़े राष्ट्रीय असमंजस के रूप में. हां, अगर विदेशी कामगारों का मुद्दा 2016 के चुनावों खास कर सत्तारूढ़ पीएपी की किस्मत पर असर डालता है, तो जरूर दीर्घकालिक नीति में बदलाव देखने को मिल सकता है. पीएपी के एक पूर्व जमीनी नेता का कहना है, ‘‘आज नहीं तो कल, सरकार को इस बढ़ती भीड़ को घटाने के लिए काम करना ही पड़ेगा.’’ इसका अर्थ यह हुआ कि न सिर्फ बाहर से आनेवाले और मजदूरों को रोकना होगा, बल्कि जो यहां पहले से हैं, उनकी संख्या में भी कटौती करनी पड़ेगी.
(यह विेषण देश-विदेश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपी रिपोर्टो पर आधारित है.)
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‘लिटिल इंडिया’ यानी सिंगापुर में लघु भारत
‘लिटिल इंडिया’ भारत से 3500 किलोमीटर दूर सिंगापुर में स्थित है. यह एक मेट्रो स्टेशन का नाम भी है जो ‘लिटिल इंडिया’ को पूरे सिंगापुर से जोड़ता है. सिंगापुर की आबादी का 9.2 फीसदी हिस्सा भारतीय समुदाय का है. 19वीं सदी की शुरु आत से भारतीय यहां बसना शुरू हो गये थे. जो भारतीय ‘लिटिल इंडिया’ से दूर रहते हैं, वे अपनी घरेलू जरूरतों की खरीदारी करते हुए, यहां अक्सर दिख जाते हैं. भारत से आनेवाले प्रवासी मजदूरों के लिए भी यह खास ठिकाना है.
‘लिटिल इंडिया’ में भारतीय खान-पान की चीजों की कोई कमी नहीं है. डोसा, इडली, समोसा और कड़क चाय आपको हर रेस्टोरेंट पर मिल जायेगी. साथ ही आपको यहां भारत में स्थित कई मशहूर होटलों की चेन भी मिलेगी. भारत छोड़ कर बेशक यहां लोग सालों से रह रहे हैं, पर वे अपनी भारतीयता को बचाये हुए हैं. भारतीय महिलाओं का पारंपरिक पहनावा साड़ी यहां आज भी खूब पहना जाता है.
सिंगापुर के लिटिल इंडिया में गहनों की बड़ी-बड़ी दुकानें भी हैं. यहां भारतीय बड़े चाव से सोने के आभूषण खरीदते हैं. सिंगापुर में भारतीय आबादी में ज्यादातर दक्षिण भारतीय खास कर तमिल हैं, जिनके स्वर्ण आभूषण प्रेम से हम सभी वाकिफ हैं. भारतीय महिलाओ के oंगार का सारा सामान ‘लिटिल इंडिया’ में मिल जाता है. बिंदी से लेकर नये डिजाइन की साड़ियां तक.
भारत में मिलनेवाली हर चीज यहां उपलब्ध है. ताजा सब्जियों और फूलों के गजरे से लेकर अखबार तक. हां, इनके दाम जरूर ऊंचे हैं. पांच रुपये का अखबार यहां दो सिंगापुरी डॉलर यानी तकरीबन 100 रुपये का मिलता है. सिंगापुर में भारत की कई फिल्में शूट हुई हैं, जैसे अक्षय कुमार की कॉमेडी फिल्म ‘दे दनादन’ और रितिक रोशन की ‘क्रि श’. यहां के मल्टीप्लेक्स में आपको बिल्कुल ताजा रिलीज भारतीय फिल्म देखने को मिल जायेगी.
वैसे तो भारतीय सिंगापुर में गुलाम बना कर लाये गये थे, मगर अब यहां इनको बराबरी का हक है. सिंगापुर में बोली जानेवाली चार मुख्य भाषाओ में से एक है तमिल. सिंगापुर में तीन आधिकारिक लिपियों में रोमन, चीनी के अलावा तमिल भी शामिल है. ‘लिटिल इंडिया’ में आपको हर कोने में दक्षिण भारत के लोग नजर आयेंगे. दुकानदार, होटल वाला, टैक्सी ड्राइवर आदि.
सिंगापुर के इस इलाके का मुख्य आकर्षण है, इसका चौबीसों घंटे खुला रहनेवाला एक विशाल मॉल. जहां सब मिलता है. भारतीय कंपनियों से लेकर विदेशी कंपनियों का ब्रांडेड सामान भी और वह भी उचित दाम पर. सिंगापुर आनेवाले ज्यादातर सैलानी समय और पैसा बचाने के लिए इसी मॉल में शॉपिंग करते हैं.
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