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रंगमंच ने आम आदमी से जोड़ा

ऐसा कौन सा आकर्षण है जो आपको रंगमंच की ओर ले आया ?मैंने कभी सोचा नहीं था कि रंगमंच से जुडं़ूगी और एक ऐसा वक्त आयेगा कि रंगमंच को ही जीने लंगूगी. मैं बचपन से डांसर थी और एक ऐसे परिवार से थी जहां थियेटर करने की शायद ही अनुमति मिलती. लेकिन, मैं थियेटर में […]

ऐसा कौन सा आकर्षण है जो आपको रंगमंच की ओर ले आया ?
मैंने कभी सोचा नहीं था कि रंगमंच से जुडं़ूगी और एक ऐसा वक्त आयेगा कि रंगमंच को ही जीने लंगूगी. मैं बचपन से डांसर थी और एक ऐसे परिवार से थी जहां थियेटर करने की शायद ही अनुमति मिलती. लेकिन, मैं थियेटर में आ गयी और चालीस साल से इस सफर में आगे बढ़ती जा रही हूं.

थियेटर की शक्ति ने मुङो नया व्यक्तित्व दिया. सोचने की शक्ति, सामाजिक बोध और प्रतिबद्धता दी. आम आदमी से जोड़ा. धीरे-धीरे मैं पूरी तरह से इसी के लिए समर्पित हो गयी और मैंने किसी अन्य माध्यम के बारे में कभी सोचा ही नहीं. ऐसा नहीं कि मैंने दूसरे माध्यमों, मसलन फिल्म या टेलीविजन को समझा नहीं लेकिन अर्जुन ने जैसे मत्स्यगंधा के नेत्र को देखा था, उसी तरह मेरा रुझान थियेटर के प्रति रहा है.

शुरुआत के बारे में बताएं ?
शुरुआत दिसंबर 1970 में अभिनय से हुई. यहां कोलकाता में सब वसंतसेना को ढूंढ़ रहे थे और मेरा पहला नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ था. शुरू में संवाद बोलने में भी मुश्किल होती थी, लेकिन फिर जैसे आदमी अपने आप को निचोड़ता चलता है भीतर से, वही मैंने अपने आप में किया. मैंने थियेटर बहुत देखा. कुछ कमर्शियल प्ले भी देखे, जो मुङो पसंद नहीं थे. बहुत तरह का थियेटर देखते हुए मैंने सीखा. इस तरह एक दृष्टि बनी कि अपने ढंग से काम करना है और ‘रंगकर्मी’ की स्थापना की. मैंने पहला नाटक ‘महाभोज’ 1984 में निर्देशित किया. मेरा अगला प्रोडक्शन ‘लोककथा’ एकदम दूसरे तरीके का था. इस तरह काम निखरता गया.

रंगकर्मी का अब तक का सफर कैसा रहा?
10-12 लोगों को लेकर एक छोटे से कॉरपोरेशन के स्कूल में इसकी शुरुआत हुई थी. न अपनी जगह थी, न ऑफिस और न पैसा. हम इस तरह कलकत्ते में स्टेज दर स्टेज आगे बढ़ते रहे. आज हमारे ग्रुप में दो सौ से अधिक कलाकार हैं. यह दल बच्चों के लिए थियेटर करता है. महिलाओं का समन्वय सम्मेलन कराता है. कोलकाता में विनोदिनी दासी और केया चक्रवर्ती की याद में एक स्टूडियो थिएटर भी बनाया है. आज यह दल एक इंस्टीट्यूशन की तरह हो गया है, जिसमें सपने बनते जाते हैं.

आज के समय में थियेटर करना कितना चुनौतीपूर्ण है?
मैं अकसर सोचती हूं कि थियेटर का सामाजिक स्पेस क्या है? क्या अभी भी हम बैकबेंचर्स हैं? थियेटर इतना चुनौतीपूर्ण काम है फिर भी इसको जानने की इच्छा कहीं नहीं होती. अखबारों, पत्र -पत्रिकाओं में इसके लिए जगह कम हो गयी है. कहीं-कहीं दर्शक भी कम हुए हैं. लोकप्रियता की बाढ़ में जहां हल्के-फुल्के मनोरंजन से गुदगुदाने वाली चीजों का मायाजाल है, थियेटर के लिए सामाजिक सरोकारवाली प्रस्तुतियां लगातार देते रहना जैसे सचमुच अपने आप को झोंकना हो. आखिर कब तक हम लड़ते रहेंगे, अकसर मन खुद से पूछता है लेकिन हम फिर सुबह जागते हैं और थियेटर पर काम शुरू कर देते हैं. सभी जानते हैं कि थियेटर एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसने बाजार के साथ कोई समझौता नहीं किया. इसलिए बाजार इसके साथ नहीं है और बड़े-बड़े स्टार भी नहीं हैं. रंगमंच की लड़ाई सिर्फ और सिर्फ दर्शक के बल पर चल रही है. ऐसे में जब दर्शक का भी रुझान लोकप्रियता की ओर होने लगता है, तो हम वहां भी मारे जाते हैं. लेकिन हमारा सरोकार आम आदमी से है और समाज का एक बड़ा तबका है, जो नाटक देखता है.

क्या एक नाटककार के नाटकों में उसकी निजी जिंदगी के अनुभवों की भी छाप होती है?
मेरे बचपन के 8-9 महीने एकदम गांव में बीते. वह जो वक्त गांव में बीता उसकी यादें सरसों के खेत, आम के पेड़ सब जिंदगी भर के लिए मन में समा गये. इसका असर कहीं न कहीं थियेटर में दिखता ही है. जिंदगी में बहुत से अच्छे या बुरे अनुभव होते हैं जिनका असर मन में रह जाता है. महिलाओं के साथ जो बिना रुके देश में हो रहा है, वो बताता है कि औरत की अपनी कोई सत्ता, स्वाधीनता और विचार नहीं है. ये सब चीजें भी मेरे नाटकों में आती हैं. ऐसे अनुभवों से भी संवाद और संगीत बनता है.

किसी कहानी को नाटक में रूपांतरित करने की रचना-प्रक्रिया क्या होती है?
इसके लिए मूल रचना के प्रति ईमानदारी पहली प्राथमिकता होती है. इसमें कहानी की आत्मा को जिलाये रखते हुए एक दूसरे रचनात्मक स्वरूप में ढालना होता है.

अपने निर्देशन के बारे में बताएं?
मेरे लिए सबसे कठिन है यह बताना कि मेरे निर्देशन की शैली क्या है. मैं बस एक बात जानती हूं कि मैं एनसंबल (सामूहिक प्रभाव) में काम करती हूं. हालांकि ‘अंतरयात्र’ और ‘मानुषी’ जैसे एकल परफार्मेस वाले नाटक भी मैंने किये हैं. मेरे नाटकों में संगीत और महिलाएं प्रमुखता से शामिल होती हैं. मैं स्पेस पर बहुत प्रयोग करती हूं. मुङो हर नयी स्पेस आकर्षित करती है. समालोचक चिदानंद दासगुप्ता ने मुङो कहा था कि मेरे थियेटर की एडिटिंग फिल्म की एडिटिंग की तरह होती है. कोई कहता है तब मैं समझती हूं कि अच्छा मेरे नाटक ऐसे होते हैं. आप समझ ही नहीं पाते कि थियेटर आपको कहां से कहां तक ले जाता है. मैं गद्य की व्यक्ति हूं. मैंने अब तक गद्य में काम किया है लेकिन ‘मुख्तारन’ ने मुङो कविता लिखने के लिए बाध्य किया. इस प्रक्रिया में कविता निकली, छंद और गति भी. यह जो जादू की तरह कल्पना का विस्तार होता है, अद्भुत है. मैंने अपनी तरह से इसकी खोज की. इसका एक कारण यह भी था कि मैं एनएसडी ने नहीं थी. मैंने अभिनय का प्रशिक्षण नहीं लिया. मेरा बैकग्रांउड डांस था. मैं पहले से किसी तरह की ट्रेनिंग लेकर नहीं आयी थी. मैंने रंगमंच पर काम करते-करते ही इसकी बारीकियों को सीखा.

ऐसा कोई गद्य जिसे आप नाटक में रूपांतरित करना चाहती हैं?
मैं प्रेमचंद की भक्त हूं. मुङो उनका गद्य बहुत प्रिय है. मैंने प्रेमचंद पढ़ाया है, उन पर लिखा है लेकिन मैं उन्हें थियेटर के एक्सपीरियंस में अभी तक छू नहीं पायी हूं. मेरी कोशिश है कि मैं एक नये फलक से प्रेमचंद के गद्य को मंचित कर पाऊं. ऐसा सोचते-सोचते ही हो पायेगा जैसे रवींद्रनाथ टैगोर को लंबे समय तक सोचते-सोचते ‘मानुषि’ और ‘चंडालिका’ हुआ, मंटो के तीन प्रोडक्शन एक साथ हुए. ऐसा ही कुछ प्रेमचंद के गद्य के साथ करना चाहती हूं.

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