– दीप्ति नवल –
बॉलीवुड अभिनेत्री
धुन जयदेव की थी. शेर शहरयार का और फिल्म स्क्रीन पर नजर आते थे फारूक शेख, अब ये तीनों फनकार नहीं. फारूक शेख का अचानक जाना फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी क्षति है. वे निर्देशकों की पहली पसंद हुआ करते थे. खासतौर से तब जब ‘चश्मेबद्दूर’, ‘गर्म हवा’, ‘गमन’, ‘उमराव जान’ जैसी इंटेंस फिल्मों का दौर था. फारूक उन निर्देशकों की भी पहली पसंद बने, जिन्हें अपने किरदार से अभिनय की अपेक्षा होती थी.
फिल्मों में ही नहीं, जीना इसी का नाम है जैसे शो के माध्यम से उन्होंने कई फिल्मी जिंदगी के शख्सीयतों के करीब जाने की भी कोशिश की. उन्हें जिंदादिली से रहना आता था. जो उनके दोस्त बने. ताउम्र दोस्त बने रहे. फिल्मों के बाद भी. उनके इन्हीं दोस्तों में से मैं भी शुमार थी. और मैं साथ-साथ, कथा, चश्मेबद्दूर जैसी कई फिल्मों में उनकी को-स्टार रही. मेरी फारूक साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि. फारूक साहब की आकस्मिक मौत से मैं सदमें में हूं.
लेकिन फिर भी मुझे उनके साथ अपनी यादों को साझा करने में कोई गुरेज नहीं है. मुझे सुबह-सुबह शबाना आजमी जी ने बताया फारूक साहब के बारे में. मैंने और फारूक ने ‘लिसेन अमाया’ में आखिरी बार साथ काम किया था और हमने तय किया था कि हम दोनों फिर से साथ काम करेंगे.
उनके साथ काम करना किसी कंपैनियन के साथ काम करने जैसा था. मैंने अपना खास दोस्त खो दिया है. फारूक मेरे लिये दोस्त और दोस्त से बढ़ कर व्यक्ति थे. उनका जाना मेरी जिंदगी के लिए एक बड़ा नुकसान है. मुझे इस सदमे से निकलने में वक्त लगेगा. मेरी दोस्ती फारूक से सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं थी.
उन्होंने मेरे सुख-दुख में मेरा साथ दिया है. मैंने फिल्मों में आखिरी फिल्म उनके साथ ‘लिसेन अमाया’ में काम किया था. मैंने और फारूक ने ज्यादातर रोमांटिक फिल्मों में काम किया और मैंने और फारूक हमेशा जिन फिल्मों में हमने काम किया, उन्हें वे मिस किया करते थे. वे हमेशा कहते कि जैसे प्यार की भाषा हम पहले फिल्मों के माध्यम से पढ़ने की कोशिश किया करते थे.
अब वह भाषा नहीं है. मुझे फारूक आज भी ‘मिस चमको’ के नाम से ही पुकारते थे. ‘चश्मेबद्दूर’ उन फिल्मों में से एक थी, जिसे हम देख कर आज भी बेहद खुश होते थे. उस फिल्म से हमारी कई यादें जुड़ी हुई हैं.
यह फारूक की खूबी थी कि वे किरदारों में अपना सजग रूप देने की कोशिश करते थे. फारूक ने 70 के दशक में उस दौर के मध्यमवर्गीय परिवार के युवा लड़कों की जो भूमिकाएं निभायी हैं, वह आज भी प्रासंगिक है. यह उनकी खूबी थी कि वह केवल फिल्मों तक सीमित नहीं थे. उन्होंने बाद में जीना इसी का नाम है, जैसे शो से एक और नयी जिंदादिली भी प्रदान की थी.
मुझे याद है, जब मैं ‘चश्मेबद्दूर’ फिल्म की शूटिंग कर रही थी. उस फिल्म का सबसे कठिन सीन वही था. जब मैं चमको साबून में कपड़े को डाल रही होती हूं. उसमें मुझे हंसना था. साई आकर मुझे बार-बार कह रही थीं और मैं कर नहीं पा रही थी. लेकिन फारूक की वजह से मुझमें पूरा कांफिडेंस आया.
मुझे घूमना फिरना हमेशा से काफी पसंद था और फारूक मुझे घुमक्कड़ कह कर बुलाया करते थे. 70 के दशक में हम रोमांटिक कपल माने जाते थे. आम लोगों को लगता था कि फारूक मेरे पति हैं. चूंकि वह मेरे बेहद करीब थे. फारूक, राकेश, मैं, नसीर और रवि सभी सेट पर जितनी मस्तियां किया करते थे और जिस तरह एक दूसरे पर जान छिड़कते थे.
अब इस जमाने में स्टार्स के बीच इस तरह की दोस्ती देखना मुश्किल होता है. हम दोनों साथ ही बिल्डिंग में रहते थे. और फारूक खाने के बेहद शौकीन थे. उनकी बातचीत हमेशा खाने से ही शुरू होती थी. मैं हमेशा से डायट कांसस थी. तो मैं ज्यादा खान- पीना पसंद नहीं करती थी. और वे हमेशा कहते क्या दीप्ति तुम अब भी खुद को एकदम यंग ही दिखाना चाहती तो.
क्या घास-फूस खाती रहती हो. और मैं हमेशा उनको कहती उम्र के साथ जितना फिट रहो. उतना अच्छा. सेट पर भी हमारा खूब खाने पीनेवाला ही माहौल होता था. बस आखिर में मुझे यही लाइनें याद आ रही हैं..’सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशां क्यों है?’
(बातचीत : अनुप्रिया अनंत)