विरासत
पंकज सुबीर
पिता ने जो कच्चा-पक्का घर बनवाया था, उसे भी समय ने कोंच-कोंच कर अब खंडहर-सा कर दिया था. उसी खंडहर में रामप्रसाद का परिवार रहता था. पत्नी कमला और तीन बच्चे, यह था उसका परिवार. दो एकड़ जमीन में परिवार का गुजारा कैसे होता था, यह रामप्रसाद को ही पता था.
उसमें भी छोटे भाई भागीरथ का हिस्सा निकालना. फसल जब पकती तो कई सारे सपने पूरे परिवार की आंखों में लहरा जाते, लेकिन, पता यह चलता कि फसल आती और पैसा उगाहनेवाले पहले से दरवाजे पर खड़े मिलते. फसल आती, पैसा नहीं आता. मुट्ठी में केवल पसीने की बूंदें रह जातीं. रामप्रसाद खुद भी दूसरों के खेतों में कुछ काम करके थोड़ा-बहुत जुटा लेता. दिन-रात खटता, अपने खेत में भी और अधबटिया से लिये गये खेत में भी.
कहने को किसान और काम से मजदूर. हर बरसात में घर की दीवारें डरातीं कि अभी लहराकर झुकेंगीं और पांचों प्राणियों की जीवित कब्रें बना देंगी. हर बरसात में निर्णय होता था कि इस बार सोयाबीन की फसल में कम-से-कम एक कमरा तो ऐसे ठीक कराना है, जिसमें बरसात का समय बिना किसी डर के बिताया जा सके. बरसात बीत जाती और बात भी बीत जाती. निंदाई के समय जब अपने खेत का काम हो जाता, तो पत्नी बड़े किसानों के खेतों में जाकर दिहाड़ी पर काम कर लेती थी. जब शादी होकर आयी थी, तब ससुर ने कभी खेती के लिए बाहर नहीं जाने दिया लेकिन, अब सुखों के छीजने का समय था.
तीनों बेटे, बड़ा विनोद, मंझला राहुल और छोटा रोहित, सरकारी स्कूल में जाते थे. पहले गांव में ऐसे शहरी नाम बच्चों के नहीं रखे जाते थे लेकिन, गांव से शहर गये लोगों के साथ गाहे-बगाहे ये नाम भी गांव आ गये. ये तीनों स्कूल जाते थे, मध्याह्न भोजन के लिए. गांवों के सरकारी स्कूलों में इसके अलावा वैसे भी कुछ नहीं होता है, वह तो गनीमत है कि सरकार ने मध्याह्न भोजन की योजना शुरू करा कर गांव के स्कूलों में कुछ हलचल करा दी.
नहीं तो पहले तो स्कूल सूने पड़े रहते थे. दरअसल मास्टरों को तनख्वाह मिलती थी और मिलनी ही थी, चाहे स्कूलों में पढ़ाओ, चाहे स्कूल जाओ चाहे न जाओ. लेकिन, मध्याह्न भोजन शुरू हुआ तो अतिरिक्त कमाई का साधन जुटा. इसी अतिरिक्त के लालच में अब मास्टर गांव के स्कूलों में आने लगे. और बच्चे भी. हिंदुस्तान की सरकारी व्यवस्था में अतिरिक्त का लालच बहुत महत्वपूर्ण है, यदि यह अतिरिक्त नहीं है, तो समझिए कुछ भी नहीं है. तो रामप्रसाद के बच्चे भी स्कूल जाते थे और वहां मध्याह्न भोजन में मिलने वाला भोजन करते और पचाते थे. पचाते इसलिए कि ये बच्चे मच्छर, मक्खी, कीड़े-मकौड़े जैसी चीजें भी उस भोजन के साथ पचा लेते थे. इन्हें तब तक कुछ नहीं होता था, जब तक कि कोई जहरीला कीड़ा या कुछ और जहरीली चीज खाने में न पड़ जाये.
रामप्रसाद के तीनों बच्चे स्कूल जाते थे और उसके बाद कहां रहते थे, दोनों पति-पत्नी को कुछ पता नहीं रहता था. वे जानने की कोशिश भी नहीं करते थे.
किसान के जीवन में बढ़ते दुख उसकी पत्नी के शरीर पर घटते जेवरों से आकलित किये जा सकते हैं. नयी बहू जब आती है, तो नये घाघरे, लुघड़े, पोलके के साथ तोड़ी, बजट्टी, ठुस्सी, झालर, लच्छे, बैंदा, करधनी में झमकती है. फिर धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ खेती-किसानी की सुरसा अपना मुंह फाड़ती है और महिलाओं के शरीर से एक-एक जेवर कम होता जाता है.
जेवर जो शरीर से उतर कर किसी साहूकार की तिजोरी में गिरवी हो जाते हैं और किसान के घर की चीज एक बार गिरवी रखा जाये, तो छूटती कब है? पहले सोने के जेवर जाते हैं, फिर उनके पीछे चांदी के जेवर. हर जेवर जब गिरवी के लिए जाता है, तो इस पक्के मन के साथ जाता है कि दो महीने बाद जब फसल आयेगी, तो सबसे पहला काम इस जेवर को छुड़ाना ही है. लेकिन, अगर यह पहला काम सच में पहला हो जाता, तो इस देश में साहूकारों की तिजोरियां और उनकी तोंदें इतनी कैसे फूल पातीं? कई बार तो ऐसा होता है कि बहू के चढ़ावे के जेवर खरीदने का सुनार का कर्जा ही अभी माथे पर चढ़ा होता और जेवर उसी सुनार के पास गिरवी के लिए पहुंच जाता है. सुनारों को भी पता होता है कि आज नहीं तो कल, इस जेवर को हमारे पास ही वापस आना है, पहले गिरवी के रूप में और फिर डूब कर पूरे रूप में. ब्याज, ब्याज पर ब्याज और फिर ब्याज के ब्याज पर भी ब्याज, रकम बढ़ती जाती, उम्मीद डूबती जाती है.
पिता ने न केवल कर्ज छोड़ा था, बल्कि अपने पीछे तीन बेटियां भी छोड़ी थीं, रामप्रसाद की बहनें. छोड़ी थीं मतलब यह कि गांव के रीति-रिवाजों के अनुसार उन बहनों की ससुराल में बच्चा होने पर, शादी-ब्याह होने पर, मौत-मय्यत पर, मतलब यह कि अच्छे में, बुरे में, हर समय भाई को दरवाजे पर जाकर खड़ा होना था, पिता के स्थान पर, पिता बन कर. पिता कहीं नहीं जाता, वह अपने सबसे बड़े बेटे में समा जाता है. उसे अपने स्थान पर पिता कर देता है.
जो बड़ा है, वही पिता है. जो पिता है, वही बड़ा है. तो रामप्रसाद भी जब अपनी बहनों के दरवाजे पर सुख में, दुख में जाकर खड़ा होता था, तो वह रामप्रसाद नहीं होता था, वह पिता होता था, उन बहनों का पिता. इन सबके बीच रामप्रसाद के बच्चे कैसे पल रहे थे, उसे खुद भी पता नहीं था. पत्नी की क्या हालत थी, वह कैसे घर चलाती थी, यह रामप्रसाद पूछते हुए भी डरता था. डर इस बात का कि जो कुछ वह समझता है, जानता है, वह सब शब्दों में सुनना न पड़े. छोटी जोत का किसान समय से पहले बूढ़ा हो जाता है, सो रामप्रसाद भी हो रहा था. जब जीवन में बहुत अधिक दुख हो जाते हैं, तो उनकी भी आदत हो जाती है. पता होता है कि कल सूरत बदल कर कोई न कोई परेशानी सामने आनी ही है. उसी के साथ बूढ़ी हो रही थी उसकी घरवाली कमला भी.
यह कहानी बरसों-बरस से लिखी जा रही है और बरसों-बरस से पढ़ी जा रही है. मगर आज भी वैसी की वैसी ही है. पात्र बदलते हैं, मगर घटनाएं नहीं बदलतीं. ऐसा लगता है, जैसे किसी स्थगित से समय में जाकर ये कथाएं फंस गयी हैं. जहां से इनकी मुक्ति नहीं हो पा रही है.
लोकतंत्र की मैली गंगा में कोई पवित्र नहीं
जयनंदन
कथाकार
यह सच है कि हम आजादी के 69 वर्षों के लंबे कालखंड की बहुत सारी विफलताओं के लिए जिम्मेदार राजनेताओं को ही ठहराते रहे हैं, जो सच भी है. लेकिन ईमानदारी से खुद के दामन में झांक कर देखें, तो एक नागरिक के तौर पर हम आम आदमी भी कम गुनहगार नहीं हैं. नेताओं को चुनने में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, निजी लाभ-हानि आदि हमारे मतदान के मापदंड रहे हैं. जाहिर है कि इस तरह से चुना हुआ प्रतिनिधि संकीर्ण, क्षुद्र और सीमित हितों के प्रति ही उत्तरदायी रह सकेगा.
हम जन साधारण अपने व्यक्तिगत जीवन में स्वच्छ, उदार और कर्तव्यनिष्ठ प्राय: नहीं होते. हम रिश्वत से, पैरवी-पहुंच से अथवा किसी प्रतिद्वंद्वी को लंघी मार कर अपना काम निकाल लेना चाहते हैं. अनुशासन और नियम-कानून को रौंदने में हम अक्सर बहादुरी का परिचय देते पाये जाते हैं. ट्रेन में बर्थ लेने के लिए टीटीई को सौ-दो सौ दे देने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती. अपने बच्चे के अंगरेजी स्कूल में नामांकन के लिए अगर सांसद-विधायक की पैरवी लग गयी तो ठीक, अन्यथा हम दलालों की मार्फत बड़ी रकम न्योछावर करने में कोई संकोच नहीं करते. कोई बड़ा ठेका लेना हो तो किसी भी कुकर्म को अंजाम देने में हमें झेंप नहीं आती.
चरित्र से पतित होने में भी हम देर नहीं करते. हम ईमानदार तभी तक बने रहते हैं, जब तक हमें बेईमान और भ्रष्ट होने के मौके नहीं मिलते. सब्जीवाला, फलवाला, किराना दुकानदार डंडी मार लेने में, जमाखोरी करने में या बाजार से ऊंचा दाम वसूल लेने में कोई झिझक महसूस नहीं करता. गाड़ी, फ्रीज, एयरकंडीशनर, घड़ी, मोबाइल, टेलीविजन, कंप्यूटर, ओवन आदि बनाने वाला हमेशा गैरवाजिब दाम वसूलने की फिराक में लगा होता है और वसूल लेता है.
यह सब कहते हुए मेरे मन में यह जिज्ञासा उभरती है कि आखिर ऐसा माहौल क्यों बना हुआ है. इसका उत्तर हमें सिंहासन पर बैठे अपने हुक्मरानों के रवैये और उनके कारनामों में साफ साफ दिखाई पड़ जाता है. भ्रष्टाचार और तमाम अनियमितताओं का हिमालय वहीं टिका हुआ है, जहां से चोरी, बेईमानी और बुराइयों की गंगा निकल रही है.
हमें अगर गलत और अनुचित का सहारा लेना पड़ रहा है तो इसलिए कि इसके बिना काम नहीं चल रहा. हम पुलिस और अदालत के चक्कर में पड़ना नहीं चाहते, चूंकि जानते हैं कि वहां किस तरह के रक्त चूसक लोग बैठे हैं. हर अपवित्र और बुरे की शिनाख्त साहित्य का मूल धर्म है. वाल्मीकि की कविता और पंकज सुबीर की कहानी हमें मनुष्यता की अनुपस्थिति का चित्र दिखाती है. चंद्रेश्वर बताते हैं कि कविता की धार भोथरी-सी होने लगी है.
आज की हिंदी कविता और तथाकथित मुख्यधारा का सवाल
चंद्रेश्वर
आज की हिंदी कविता पर बात करते समय हम अक्सर भूल जाते हैं कि कविता सिर्फ चंद साहित्यिक पत्रिकाओं या अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्टों तक ही सीमित नहीं है. वह कुछ बड़े हिंदी प्रकाशकों की ठेकेदारी तक भी सीमित नहीं है. वह अब भी मंचों पर गायी और पढ़ी जाती है, जिसके कद्रदानों की भी कमी नहीं है. इनमें भी कई कवि ऐसे हैं, जो लोक स्वीकृति पर रहे हैं.
इसी तरह खुद कविता की किताबें छपाकर एक पाठक समुदाय के बीच जगह बनानेवाले कवियों की भी अनगिनत संख्या है. इनके अलावा भी अब सोशल मीडिया है. फेसबुक, ब्लॉग्स, इंटरनेट मैगजीन आदि पर तमाम नये-पुराने हिंदी कवि सक्रिय हैं. आज कविताओं को लोगों के बीच ले जाने के हर साधन और माध्यम सामने हैं.
आज कवि-कर्म कुछ जातियों या वर्गों तक भी कैद नहीं रह गया है. तथाकथित मुख्यधारा के बाहर भी हिंदी कविता का समंदर लहरा रहा है. हिंदी कविता का संसार भी कई तरह के हाशिये के विमर्शों से भर गया है. कई स्त्रियां रसोईघर का तापमान सहते हुए भी कविता रच-रच कर अपने संघर्षों, दुखों और स्वप्नों को सामने लाती रहती है. कई कवि उपेक्षित समाज और समुदाय के बीच से भी अपने अभावों, स्वप्नों और संघर्षों को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं.
ऐसे में जब मुख्यधारा का सवाल बेमानी होता जा रहा है, सिर्फ उसी तक सिमट कर बात करना एक तरह की संकीर्णता है. आज इस समकालीन धारा की हिंदी कविता में वे ही नयी पीढ़ी के कवि अपना चेहरा लिये अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं, जो कविता को कारोबार या पुरस्कार हासिल करने का जरिया मानते हैं. इन्हें पुरस्कार मिल सकता है, जनता का प्यार नहीं. इस धारा की कविता पर आलोचना भी चुप है. अगर आलोचना का एक चेहरा सामने है भी तो वह हद से ज्यादा अविश्वसनीय है.
आज जो कई पीढ़ियां हिंदी में कविता लिख रही हैं, उनमें ऊपर की दो-तीन पीढ़ियां ही संजीदा होकर कविकर्म में संलग्न हैं. साफ कहूं तो उनमें भी कुछ गिने-चुने कवि ही दिखते हैं जो कविता के परिदृश्य पर मजबूती के साथ खड़े हैं, जिनकी उपस्थिति मायने रखती है. इधर 1980 के बाद के कुछ कवियों में एक तरह की छीना-झपटी और लूट-खसोट की प्रवृत्ति देखी जा सकती है. इनमें एक तरह की हड़बड़ी भी है. ये झटपट इतिहास में दर्ज हो लेना चाहते हैं. दरअसल, ये चूके-पिटे लोग हैं. हालांकि पुरस्कार पाने और छपास रोग में ये अग्रणी हैं.
इसी तरह अब इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में आये कुछ कवि अर्ध दशक में ही सिमटने लगे हैं. ये नयी पीढ़ी के नाम पर दशकों वाली कविता और आलोचना को कमजोर करते रहे हैं.
इधर, कुछ ऐसे नयी पीढ़ी के कवि समकालीन कविता के परिदृश्य पर कविता के नाम पर ऐयाशी करने में व्यस्त हैं, जो भाषा और उसके व्याकरण से जरा भी वाकिफ नहीं हैं. उनका आम आदमी और सामान्य पाठक से कोई सरोकार नहीं है. वे पुस्तकालयों की अलमारियों में कैद होने के लिए अथवा पुरस्कार पाने अथवा सिर्फ यश की कामना के साथ रची जाती है. मेरी बात में कुछ लोग निराशा ढूंढ़ सकते हैं, पर सच्चाई इसी के आसपास है.
हालांकि, अब भी नयी पीढ़ी में कुछ सितारे अपनी चमक बनाये हुए हैं. हरेप्रकाश की एक कविता खिलाड़ी दोस्त का जिक्र करना चाहूंगा. वे लिखते हैं, हमारे गहरे अभाव टूटन और बरबादी के दिनों में/जब दुश्मन उपेक्षा करते हैं हमारी, दोस्त आते हैं खैरियत पूछने और हास्य के शिल्प में पूछते हैं, हाल हमारे चेहरे की हवाइयां देखकर हताश नहीं होते, वे मूंछों में लिथड़ाते जटिल संदर्भों में चीन्हने का उपक्रम करते हैं.
समकालीन कविता में आज ऐसी खरी और सच्ची कविताएं कम दिखती हैं. अब हमारे बीच कविता रचते हुए कोई निराला नहीं है जो पसीने से लथपथ हो जाये. कोई महावीर प्रसाद द्विवेदी भी नहीं जो कविता वापस कर सके. आज हमारे बीच कवि फैशन के तौर पर कविताएं लिख रहे हैं.
दलित कवियों ने हिंदी कविता को जड़ता और ठहराव से बाहर निकाल कर उसे एक नयी पृथ्वी और नया आकाश प्रदान किया है. अब इन्होंने तथाकथित मुख्यधारा को बेमानी बना दिया है.
कविता इनसे आगे बढ़ती दिख रही है. दरअसल आज हिंदी कविता की मुख्यधारा में कवियों की बेवजह की भीड़ बढ़ी है, पर उस हिसाब से कविता संपन्न नहीं हुई है. आज कविता में सुखी और अघाया वर्ग भी दिख रहा है. यह वर्ग जीवन से शिद्दत से नहीं जुड़ा है. मैनेजर पांडेय सही लिखते हैं कि कविता अघाये आदमी की डकार नहीं है.