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लोकपाल का जिन्न फिर निकला बोतल से बाहर, अब श्रेय लेने के लिए मची होड़

हिंदी पट्टी के चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ आये नतीजों और समाजसेवी अन्ना हजारे के फिर से अनशन शुरू करने के कारण बने दबाव में सरकार ने आखिरकार संशोधित लोकपाल बिल शुक्रवार को राज्यसभा में पेश कर दिया. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल के बीच अपनी छवि चमकाने […]

हिंदी पट्टी के चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ आये नतीजों और समाजसेवी अन्ना हजारे के फिर से अनशन शुरू करने के कारण बने दबाव में सरकार ने आखिरकार संशोधित लोकपाल बिल शुक्रवार को राज्यसभा में पेश कर दिया. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल के बीच अपनी छवि चमकाने के लिए अब राजनीतिक दलों में इस बिल को पारित करा कर श्रेय लेने होड़ सी मच गयी है. यहां तक कि खुद अन्ना हजारे ने भी इस संशोधित बिल पर अपनी सहमति दे दी है. कैसा है यह संशोधित बिल, इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में कितनी मदद मिलेगी और क्या है इस पर विभिन्न दलों का नजरिया, ऐसे ही पहलुओं के बीच ले जा रहा है आज का समय.

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लोकपाल का जिन्न फिर निकला बोतल से बाहर, अब श्रेय लेने के लिए मची होड़ 2

लोकपाल पास हो जाये, तो बड़ी बात
अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल और सरकार द्वारा राज्यसभा में पेश किये संशोधित लोकपाल बिल में बहुत फर्क है. राज्यसभा की सेलेक्ट कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए सरकार ने नये सिरे से इसका मसौदा तैयार किया है. कुछ कमियों के बावजूद इसके पारित होने से आम जनता को फायदा होना तय है.

जिस तरह से राज्यसभा में लोकपाल बिल पेश किया गया, उससे ऐसा लगता है कि सरकार लोकपाल लाने के लिए सक्रिय है. अगर वास्तव में यह बिल पास हो जाता है, तो बहुत बड़ी बात होगी. कितने महीने हो चुके हैं इस कशमकश में गुजरते हुए कि अब लोकपाल बिल पास हो जायेगा, तब पास हो जायेगा. मुङो तो लगता है कि सिर्फ लोकपाल ही क्यों, बल्कि शिकायत निवारण कानून और ह्विसिल ब्लोवर प्रोटेक्शन कानून के मसौदे भी पूरी तरह से तैयार पड़े हैं, इनका भी पास होना बहुत जरूरी है. लोकपाल के साथ ही अगर ये सभी कानून बन जाते हैं, तो बहुत ही अच्छा होगा, हमारे इस बड़े लोकतंत्र के लिए, क्योंकि तब लोगों को अपनी शिकायतें दर्ज कराने व उनके निपटारे का मौका मिलेगा और भ्रष्टाचार उजागर करनेवाले व्यक्तियों को सुरक्षा मिल पायेगी.

इस बार संसद सत्र के एजेंडे में लोकपाल बिल लाना नहीं था, ऐसा नहीं है. मैंने खुद देखा था कि संसद शुरू होने से पहले यह इस संसद सत्र के एजेंडे में था. लेकिन हां, बीते शुक्रवार को यह राज्यसभा में पेश किया जायेगा, यह बिल्कुल भी संसद के एजेंडे में नहीं था. दरअसल, हुआ यह कि अन्ना हजारे जी जब 10 दिसंबर को अनशन पर बैठ गये, तब सरकार को डर हो गया कि कहीं फिर न जनता जनलोकपाल की मांग को लेकर सड़क पर आ जाये और संसद एवं सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो जायें. इस तरह लोकपाल को संसद के एजेंडे के तहत जल्दी से शुक्रवार को ही राज्यसभा में पेश कर दिया गया. इससे यह साफ नजर आता है कि सरकार दबाव की राजनीति के तहत काम कर रही है. अगर ऐसा नहीं होता, तो सबसे पहले इस संसद सत्र के एजेंडे में शामिल विधेयकों के मसौदों को पेश किया जाता. सरकार की इस जल्दीबाजी का दूसरा कारण यह भी है कि विपक्ष भी अब प्रभावी तौर पर सामने आ रहा है. इसलिए होना तो यह चाहिए था कि बिना किसी दबाव के सरकार खुद ही आगे आती और लोकपाल को पेश करने और फिर पास करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती.

अन्ना हजारे का जनलोकपाल और सरकार द्वारा राज्यसभा में पेश किये गये लोकपाल के बीच बहुत फर्क है. राज्यसभा की सेलेक्ट कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए सरकार ने एक नये सिरे से इसका मसौदा तैयार किया है. और ऐसा माना जा रहा है कि इसमें तकरीबन एक दर्जन संशोधन किये गये हैं. जाहिर है, इन संशोधनों के बाद यह विधेयक थोड़ा मजबूत ही हुआ है. इसलिए यह स्वाभाविक है कि जनलोकपाल और लोकपाल में प्रावधानों को लेकर बहुत ज्यादा अंतर न हो. लोकपाल के पहले प्रारूप से यह बिल्कुल ही अलग प्रारूप है, जैसे सीबीआइ स्वतंत्र होगी, चयन प्रक्रिया बेहतर होगी, वगैरह. इसके प्रावधान में सीबीआइ को स्वतंत्र किया जा रहा है. सीबीआइ स्वतंत्र हो जाये, तो यही बहुत बड़ी बात होगी हमारे देश के लिए.

अगर हमारी बात करें, तो अन्ना हजारे के जनलोकपाल के कई प्रावधानों पर भी हमें ऐतराज था. ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि जनलोकपाल पूरी तरह से एक बेहतरीन कानून होता, जो देश को भ्रष्टाचार मुक्त कर देता. क्योंकि जनलोकपाल किसी के प्रति जवाबदेह नहीं था. उसकी ताकत बहुत बड़ी थी, जिसके दायरे में बड़े से बड़े मंत्री भी आते थे, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी आते थे. किसी को इतनी ताकत देना लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि अगर ऐसा लोकपाल आ गया, जिसकी कोई जवाबदेही न हो, तो वह तो अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल भी कर सकता है. दुनिया का कोई भी आदमी चाहे जिस पद पर हो, चाहे जितना भी बड़ा हो, वह अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकता. लेकिन अगर यह कानून बन जाये कि लोकपाल किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होगा, तो यह भी मुमकिन है कि एक जगह आकर वह भी इस कानून का सदुपयोग की जगह दुरुपयोग करने लगे. ऐसे में इस कानून को बनाने या न बनाने से कोई नफा-नुकसान होता ही नहीं, क्योंकि देश तो ऐसे चल ही रहा है. इसलिए हमने कहा था कि इसे थोड़ा सा बांधना चाहिए और एक ही आदमी में इतनी ताकत नहीं रखनी चाहिए. ऐसी ताकत से लोकतंत्र को खतरा पहुंचे, ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए.

हम वर्षो से लड़ते आ रहे हैं और हमारा जो आरटीआइ से लड़ाई का अनुभव रहा है, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि एक बेहतर लोकपाल का होना जरूरी है, लेकिन उसकी जवाबदेही भी तय हो और शिकायत निवारण कानून, ह्विसिल ब्लोवर प्रोटेक्शन कानून भी आ जायें, तब कहीं जाकर भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम लगायी जा सकती है. जो लोग ऐसा मानते हैं कि लोकपाल आ जाने से ही देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा, वे मुगालते में हैं. क्योंकि भ्रष्टाचार किसी कानून से तो बिल्कुल भी नहीं खत्म हो सकता. हां, यह उसे एक हद तक रोकने में कामयाब जरूर हो सकता है. भ्रष्टाचार के लिए जरूरी है कि समाज में जनजागरूकता आये. लोग जान-बूझ कर अगर गलत करने से बचने लगें, तभी भ्रष्टाचार में कमी आयेगी.

अब भी इस विधेयक में कुछ कमियां हैं, जैसे एक कमी है- राज्यों को लोकायुक्त गठन का अधिकार देना. राजनीतिक दलों में इस सवाल पर मतभेद दिखा कि अगर केंद्रीय प्रावधानों के तहत लोकपाल के गठन को मंजूरी दी जाती है, तो इससे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप होगा. सभी राज्यों को अपने तरीके से लोकायुक्त के गठन का अधिकार देने के बजाय सघीय स्तर पर इस तरह के फैसले लेना देश के संघात्मक ढांचे के लिए ठीक नहीं है. लेकिन ऐसे मसले को संघात्मक ढांचे में हस्तक्षेप के तौर पर देखा जाना ठीक नहीं है. अगर हम प्रत्येक राज्य को अलग-अलग लोकायुक्त कानून बनाने की अनुमति देते हैं, तो इसके खतरे अलग है. सबसे पहले तो कानून में एकरूपता का अभाव होगा. गंठबंधन की राजनीति के इस दौर में क्षेत्रीय दल अपने-अपने फायदे के मुताबिक लोकायुक्त का गठन करेंगे. उन्हें पर्याप्त अधिकार नहीं देंगे तो फिर सही मायनों में यह मजबूत कानून साबित नहीं होगा. इसके साथ ही लोकायुक्त का अपना अधिकार क्षेत्र होगा, उसके अपने कानून होंगे, यह व्यावहारिक नहीं है.

होना तो यह चाहिए था कि राज्यों के बजाय केंद्र के पास ही यह अधिकार रहता, और केंद्र लोकपाल के लिए जो कानून बनाती, उसी कानून से ही लोकायुक्त का गठन किया जाता. फिर भी यह कहा जा सकता है कि जो लोकपाल कानून सरकार पास कर रही है, उसमें कुछ कमियां हैं, बावजूद इसके अगर लोकपाल पास होता है, तो यह बहुत सकारात्मक कदम है.

निखिल डे
सामाजिक कार्यकर्ता

(बातचीत : वसीम अकरम)

लोकपाल को लेकर दबाव में हैं सभी राजनीतिक दल
अब युवा वर्ग की भावनाओं की अनदेखी कोई नहीं कर सकता है. यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा लोकपाल बिल पारित कर केजरीवाल के एक अहम मुद्दे का प्रभाव कम करने या उसे हथियाने की कोशिश में लगे हैं.

एजेंडे में नहीं होने के बावजूद लोकपाल विधेयक को राज्यसभा में पेश करने के पीछे निश्चित तौर पर राजनीतिक कारण हैं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली अप्रत्याशित सफलता और समाजसेवी अन्ना हजारे के एक बार फिर अनशन पर बैठने से बने माहौल के कारण कांग्रेस और भाजपा ने लोकपाल विधेयक पर आम सहमति बनाने की कोशिश की. विधानसभा चुनावों के नतीजों ने बताया कि अब भ्रष्टाचार एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन गया है. खास कर दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सफलता की बड़ी वजह भ्रष्टाचार का मुद्दा ही रहा. अरविंद केजरीवाल ने इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बना दिया और इसका उन्हें फायदा भी मिला.

इसलिए लोकपाल विधेयक को पारित कर प्रमुख राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी की बढ़त को रोकना चाहते हैं. खास कर भाजपा और कांग्रेस इस दिशा में पहल कर ‘आप’ के पक्ष में बने माहौल को कमजोर करने की कोशिश में हैं. अब भले ही लोकपाल विधेयक के कमजोर होने पर बहस होगी, लेकिन दोनों दल यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि वह भी भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून बनाने की पक्षधर है.

एक बात साफ है कि अब राजनीति में पारदर्शिता बेहद आवश्यक हो गयी है. कोई भी दल इसे दरकिनार कर चुनाव नहीं जीत सकता है. इसके बावजूद सरकार की मौजूदा पहल का कांग्रेस को शायद ही फायदा मिल पाये. विधानसभा चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है कि देश में माहौल कांग्रेस के विरोध में है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एंटी इन्कम्बेंसी के बावजूद वह भाजपा को जीत से नहीं रोक पायी, जबकि राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस को कारारी हार का सामना करना पड़ा. इससे लगता है कि कांग्रेस के लिए आगे की राह कठिन है.

संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी ने प्रतिरोध तेज कर दिये. ऐसे में कांग्रेस लोकपाल विधेयक के जरिये अपनी जमीन बचाने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस इस पहल के जरिये अपने कुछ नेताओं की छवि बचाने की भी कोशिश कर रही है. राहुल गांधी ने जिस प्रकार दागियों के संबंध में सरकारी अध्यादेश को बकवास करार दिया था और अध्यादेश वापस होने का श्रेय राहुल गांधी को देने के लिए पार्टी नेताओं में होड़ मच गयी थी, लगता है कि उसी तरह लोकपाल विधेयक का श्रेय भी पार्टी के नेता राहुल गांधी को देकर उनकी छवि चमकाने की कोशिश करेंगे. इससे कांग्रेस के कुछ ईमानदारनेताओं की छवि भी बनी रहेगी. वहीं दूसरी ओर भाजपा भी इसे समर्थन देकर राजनीति में पारदर्शिता की पक्षधर होने का दावा करेगी. भाजपा नहीं चाहती कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विरोध का फायदा दूसरे दल उठा लें. भाजपा और आप के बीच की राजनीतिक लड़ाई में भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कमजोर पड़ना नहीं चाहती है. लोकपाल को पारित कराने में सक्रिय भूमिका अदा कर भाजपा इसका फायदा चुनावों में उठाना चाहेगी.

अगले वर्ष होनेवाले लोकसभा चुनाव में भाजपा नहीं चाहेगी कि कांग्रेस विरोध से बनी जगह अरविंद केजरीवाल हथिया लें. यही वजह है कि कभी संसदीय प्रणाली का हवाला देकर सड़कों पर कानून नहीं बनने की बात कहनेवाले अब जल्दबाजी दिखा रहे हैं. इससे पहले तमाम राजनीतिक दल संसदीय व्यवस्था और नियमों का हवाला देकर लोकपाल को लटकाते रहे हैं, लेकिन अब संसद झुकती दिख रही है. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल को देखते हुए सिर्फ समाजवादी पार्टी को छोड़ कर बाकी सभी दल लोकपाल विधेयक पारित कराने के पक्ष में हैं.

पहले छोटे-छोटे दल अपनी सिफारिश भाजपा और कांग्रेस के जरिये पूरी करते थे, अब वह नहीं हो पायेगा. सीबीआइ मैनेजमेंट के नाम पर दलों को अपने साथ जोड़ने का खेल लोकपाल कानून बनने के बाद खत्म हो जायेगा, क्योंकि अब राजनीति में पारदर्शिता अहम मुद्दा है. जिस प्रकार रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन में लोगों, खास कर युवाओं, ने भागीदारी की थी, शुरुआत में राजनीतिक दलों ने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की थी. अन्ना के पक्ष में उमड़े जनसैलाब को देखते हुए संसद ने अन्ना की मांगों पर सर्वसम्मत प्रस्ताव तो पारित कर दिया, लेकिन अनशन टूटते ही इसे संसदीय प्रक्रिया में उलझा दिया.

हालिया विधानसभा चुनावों में युवाओं द्वारा बड़े पैमाने पर मतदान किये जाने के बाद अब इस वर्ग की भावनाओं की अनदेखी कोई नहीं कर सकता है. यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा लोकपाल विधेयक पारित कर अरविंद केजरीवाल के एक अहम मुद्दे का प्रभाव कम करने या उसे हथियाने की कोशिश में लगे हुए हैं. यह राजनीतिक दलों के लिए माकूल समय भी है, क्योंकि लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे और केजरीवाल के बीच दूरियां बढ़ गयी है. अब अन्ना ने भी मौजूदा स्वरूप में लोकपाल को स्वीकार करने की बात कही है. एक बात तय है कि लोकपाल कानून पारित होने के बाद भ्रष्टाचार पर काफी हद तक रोक लगाने में मदद मिलेगी. इसलिए लोकपाल विधेयक को पारित कराने के पीछे भले ही राजनीतिक कारण हों, लेकिन इसका फायदा आम लोगों को मिलेगा.

(बातचीत : विनय तिवारी)

मनीषा प्रियम सहाय
राजनीतिक विश्लेषक

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