मुंबई की 24 वर्षीय उपासना मकती ने अपनी नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़ दी, क्योंकि वह कुछ अलग करना चाहती थीं. उनकी यही चाहत दृष्टिहीनों के लिए प्रकाशित होनेवाली पहली अंगरेजी लाइफस्टाइल मैगजीन ‘व्हाइट प्रिंट’ के रूप में सामने आयी. बेहद कम समय में इस पत्रिका ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले दृष्टिहीनों को अपने पाठकों की सूची में शामिल किया. सफलता के इस सफर को बयां कर रही हैं उपासना मकती..
मैंने मुंबई के जय हिंद कॉलेज से बैचलर ऑफ मास मीडिया में स्नातक किया और इसके बाद मैं कॉरपोरेट कम्युनिकेशन की पढ़ाई करने के लिए कनाडा चली गयी. वहां मैंने एक साल का कोर्स पूरा किया और भारत वापस आ गयी. यहां आने के बाद मैंने मुंबई की एक पब्लिक रिलेशन एजेंसी में जॉब करनी शुरू कर दी. यूं तो मेरी जॉब काफी अच्छी चल रही थी, लेकिन मैं खुद को संतुष्ट नहीं महसूस कर पा रही थी. क्योंकि मैं हमेशा से कुछ नया, कुछ अलग करना चाहती थी. मैं एक ऐसे काम को अपना कैरियर बनाना चाहती थी, जिससे औरों को भी फायदा हो और मैं उस काम को अपने व्यवसाय का रूप दे सकूं. इसी दौरान मैंने नोटिस किया कि आज बाजार में हम जैसे साधारण लोगों के लिए लाइफस्टाइल से जुड़ी एक नहीं, बल्कि विभिन्न भाषाओं में सैकड़ों पत्रिकाएं उपलब्ध हैं, लेकिन आंखों की रोशनी के बिना जीनेवाले तमाम लोगों के लिए ऐसी एक भी पत्रिका नहीं है, जिसे पढ़ कर वे समाज में आये परिवर्तनों को जान सकें. तभी मेरे जेहन में ऐसी किसी मैगजीन को लांच करने का ख्याल आया.
इसके बाद मैंने कई दृष्टिहीनों से मिल कर यह जानने की कोशिश की यदि मैं उनके लिए लाइफस्टाइल मैगजीन तैयार करूंगी, तो क्या वे उसे पढ़ना पसंद करेंगे. मेरे इस विचार को सुनते ही अधिकतर लोग बेहद खुश हुए. उन्हें यह जान कर अच्छा लगा कि बाजार में उनके लिए भी एक ऐसी पत्रिका आ सकती है, जो उन्हें फैशन, सेहत और फिटनेट के क्षेत्र में होनेवाले परिवर्तनों की जानकारी देगी. लोगों से मिली इस सकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद मैंने ‘व्हाइट प्रिंट’ को लांच करने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया. अकसर लोग मुझसे यह प्रश्न भी पूछते हैं कि मैंने इस पत्रिका को अंगरेजी में ही क्यों प्रकाशित किया, जबकि हिंदी में पत्रिका लांच करने पर इसे ज्यादा पाठक मिलते. दरअसल, मैं यह जानती थी कि दृष्टिहीनों के लिए हिंदी में कुछ पत्रिकाएं उपलब्ध हैं, लेकिन अंगरेजी में एक भी पत्रिका नहीं प्रकाशित होती. इसीलिए मैंने व्हाइट प्रिंट को अंगरेजी में प्रकाशित करने का फैसला किया.
शुरू हुई चुनौतियां
जाहिर है कि हर व्यवसाय की अपनी चुनौतियां होती हैं. खासतौर से जब आप कुछ नया करने की दिशा में काम करते हैं, तो आपको आये दिन नयी चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है. मुङो तो ‘व्हाइट प्रिंट’ टाइटल को रजिस्टर कराने के लिए पूरे आठ महीने तक स्ट्रगल करना पड़ा. पहले दो बार इस नाम को रिजेक्ट कर दिया गया था. तीसरी बार में इसका रजिस्ट्रेशन पूरा हुआ. दूसरी चुनौती मेरे सामने थी पत्रिका के प्रकाशन के लिए पैसों का इंतजाम करने की. मैं चाहती थी कि इस पत्रिका का प्रकाशन किसी प्रकार की चैरिटी से न हो. शुरू से ही मैं इसे व्यवसाय का रूप देना चाहती थी, इसीलिए मैंने फंड के लिए पहले विभिन्न कंपनियों से विज्ञापन लेना ठीक समझा. ताकि विज्ञापन से जो पैसे आयें, मैं उनसे पत्रिका की शुरुआत कर सकूं. विज्ञापन के लिए मैं कई कंपनियों में गयी, उनसे बात की और विज्ञापन देने के लिए उन्हें तैयार करने की पूरी कोशिश की. जल्द ही मेरी मेहनत रंग लायी और रेमंड मेरी मैगजीन को विज्ञापन देने के लिए तैयार हो गयी. इसके बाद कोको-कोला ने भी पत्रिका को विज्ञापन दिया. ये विज्ञापन मैगजीन की मार्केटिंग के लिए भी काफी फायदेमंद साबित हुए. दरअसल, यह वॉयस ऐड था, जैसे कि हम अब तक ग्रीटिंग कार्डस में देखते आये हैं. उन्हें खोलते ही म्यूजिक बजने लगता है. कोको-कोला के विज्ञापन का यह तरीका पाठकों को काफी पसंद आया. इसके बाद मुङो विज्ञापन मिलने लगे और पत्रिका का काम आगे बढ़ने लगा. इसके बाद मैंने एक टीम तैयार करके पत्रिका के कंटेंट पर जोर देना शुरू कर दिया.
बढ़ने लगी पाठकों की संख्या
‘व्हाइट प्रिंट’ का पहला प्रकाशन मई, 2013 में बाजार में आया और हमारे पाठकों ने इसे हाथों-हाथ लिया. जैसा कि मैंने सोचा था कि मैं इस लाइफस्टाइल मैगजीन में फैशन, फूड और ट्रैवल से जुड़े लेखों को शामिल करूंगी. पत्रिका में छपे ये लेख पाठकों को इतने पसंद आये कि वे हमें पत्रों के माध्यम से अपनी प्यार भरी प्रतिक्रिया भेजने लगे. उनसे मिलनेवाली प्रतिक्रियाओं ने हमें और बेहतर करने के लिए प्रेरित किया. धीरे-धीरे हम ‘व्हाइट प्रिंट’ में लघु कथाएं, प्रेरणादायक लोगों की सफलता की कहानी, संगीत और फिल्मों से जुड़े मनोरंजक लेखों को भी प्रकाशित करने लगे. हमने बरखा दत्त को भी अपनी मैगजीन से जोड़ा. उन्होंने कई मुद्दों पर लिखा. इस तरह मैगजीन का कंटेंट दिन-ब-दिन और मजबूत व रोचक बनता चला गया. पाठकों को हमारे लेख पसंद आते गये और उनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती गयी. आज ‘व्हाइट प्रिंट’ को मुंबई ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले दृष्टिहीन पाठक पसंद कर रहे हैं.
अनमोल है कुछ अलग करने का एहसास
अकसर मेरे परिचित मुझसे पूछते हैं कि तुमने अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर इस अलग तरह के काम को अपना कैरियर क्यों बनाया? यहां तक कि मेरे पाठक भी कई बार यह जानने के लिए फोन करते हैं कि आखिर मैं क्यों इस तरह की मैगजीन का प्रकाशन कर रही हूं? क्या मैं खुद भी दृष्टिहीन हूं? ऐसे तमाम प्रश्नों के लिए मेरा जवाब यही है कि मुङो कुछ अलग करना था. एक अलग तरह के काम के साथ अपनी पहचान बनानी थी. इस मकसद को मैंने ‘व्हाइट पिंट्र’ के जरिये अंजाम तक पहुंचाया. यह सच है कि मैं किसी भी कंपनी में अच्छी नौकरी कर सकती थी, मगर पाठकों की प्यार भरी जो प्रतिक्रिया मुङो मिलती है, उसका एहसास अनमोल है. उनकी प्रतिक्रिया ही मुङो इस पत्रिका को और बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है.
मकसद है ज्यादा से ज्यादा पाठकों को जोड़ना
इस मैगजीन की शुरुआत करने के बाद से ही मेरा सिर्फ एक ही मकसद रहा है कि यह मैगजीन अधिक से अधिक दृष्टिहीनों तक पहुंच सके. इसीलिए मैंने ‘व्हाइट प्रिंट’ की कीमत मात्र 30 रुपये रखी है. इतना ही नहीं, मैं अपने पाठकों के लिए विभिन्न प्रकार के विषयों पर भी मैगजीन निकालना चाहती हूं. कोशिश जारी है, देखते हैं कब कामयाबी मिलती है.
युवा एंटरप्रेन्योर को मेरा सुझाव
अपने सपनों को हकीकत में बदलने का हर संभव प्रयास करें. कड़ी प्रतिस्पर्धा वाले आज के दौर में अपने लक्ष्यों को पाने के लिए औरों से अलग दिशा में सोचने और उनसे कुछ अलग करने का प्रयत्न करते रहें.
एक बात जेहन में हमेशा रखनी होगी कि स्थिति कैसी भी हो, अपने सपनों को साकार करने के लिए आपको हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार रहना होगा.
यदि कठिन डगर पर चलने के लिए तैयार हैं, तो उस राह को आसान बनाने के तरीके खुद-ब-खुद मिलते चले जायेंगे.