उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात
।। श्रीश चौधरी।।
अंत में दो शब्द ‘शिक्षा के माध्यम’ के विषय में भी कहा जाना चाहिए. पिछले दो दशकों से एक धारणा समाज में बैठ गयी है कि अंगरेजी ही किसी प्रकार की शिक्षा का उत्तम माध्यम है, एवं अंगरेजी की पढ़ाई बाल्यकाल से ही शुरू होनी चाहिए .यदि तथ्य को देखें तो ऐसी धारणा निराधार है. कोई भी वह भाषा जो बच्चे को आसान से समझ में आती है वह शिक्षा का उत्तम माध्यम होगी. अक्सर ‘मातृभाषा’ को ही आरंभिक शिक्षा का श्रेष्ठ माध्यम माना गया है. धारणा यह है कि जो भाषा बच्चे के इर्द-गिर्द बोली-सुनी जाती है, जिसे बोलने सुनते हुए बच्चे बड़े हुए हैं, वह भाषा उनके लिए सरल होगी.
उसमें कही गयी, पढ़ाई गयी कोई भी बात अपेक्षाकृत अधिक आसानी से समझ में आयेगा. पाठ याद रहेगा, विषय एवं वस्तु में रुचि आयेगी. इसी धारणा के आधार पर पिछले डेढ़ सौ वर्षों में भारत में जितने भी शिक्षा आयोग आये हैं, उन्होंने मातृभाषा में हो शिक्षा देने की बात कही है. वर्ष 1854 के चाल्र्सऊड के डिस्पैच से लेकर आज तक इसमें कोई अपवाद नहीं हुआ है. सबने मातृभाषा को ही शिक्षा का श्रेष्ठ माध्यम माना है. ‘प्राथमिक शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृभाषा ही हो सकती है.’ उपलब्ध तथ्य इस धारणा का समर्थन करते हैं. प्राय: सभी विकसित देशों में स्थानीय भाषा ही आरंभिक शिक्षा का माध्यम है. अन्य भाषा से आवश्यकतानुसार बाद में सीखी जा सकती है एवं उनका उपयोग निर्धारित उद्देश्य के लिए किया जा सकता है, किया जाता है.
स्वयं भारत में ही यदि भाषा शिक्षा का इतिहास देखें तो इस निष्कर्ष को समर्थन मिलता है. सदियों से भारत में संस्कृत भाषा एवं बाद में फारसी अरबी, पुर्तगाली, अंगरेजी आदि सीखी-पढ़ाई गयी है, इन भाषाओं के यहां मूर्धन्य विद्वान हुए हैं, कवि एवं विशेषज्ञ हुए हैं, परंतु उन्हें संस्कृत के माध्यम से संस्कृत या फारसी के माध्यम से फारसी नहीं सिखायी गयी थी. इन भाषाओं ने शिक्षा उन्हें मातृभाषा या दूसरी अन्य स्थानीय भाषाओं के ही माध्यम से दी गयी थी.
स्वयं अंगरेजी भाषा का प्रचार-प्रसार भारत में अन्य भाषाओं के माध्यम से ही हुआ है. मातृभाषा से अंगरेजी में अनुवाद व अंगरेजी व्याकरण के अध्ययन के रास्ते जब इतनी अंगरेजी आ जाती थी कि सीखने वाला छात्र लेख लिख सके, तथा पुस्तक पढ़ सके, तो उसे ऐसा करने को कहा जाता था. राजा राम मोहन राय रहे हों या महादेव गोविंद राणाडे रहे हों, हाल तक भारत में अंगरेजी सीखने का एक मात्र एवं सफल तथा लोकप्रिय तरीका यही था. इस तरीके का परिणाम अत्यधिक सुखद हुआ. जहां अठारहवीं शताब्दी के अंत तक कुछ हजार की संख्या में भी लोग अंगरेजी नहीं जानते थे, वहां उन्नीसवीं शताब्दी के शेष होने के पहले लाख के लगभग लोग इस भाषा को सीख गये थे. एक बार जब समझ गये कि सत्ता व सामथ्र्य की भाषा अब फारसी नहीं रही तो लोगों ने ‘सरस्वती की नयी वाणी’ को सीख लिया, और इतने लोगों ने देश के इतने प्रांतों में इसे सफलतापूर्वक सीखा कि वे मात्र अंगरेजों से ही नहीं बात कर सकते थे बल्कि वे एक मंच पर आकर अब अंगरेजों से स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे.
आप स्कूलों में-घरों में पुस्तक, पत्र-पत्रिका अंगरेजी के अच्छे टेलीविजन-रेडियो प्रोग्राम आदि को प्रोत्साहन दें, अंगरेजी स्वयं आ जायेगी. अन्यथा अंगरेजी तो नहीं ही सीख पायेंगे, बच्चों को हम मातृभाषा-राष्ट्रभाषा के अच्छे साहित्य, अच्छे ज्ञान से भी वंचित रखेंगे.