पहले दिल्ली की छवि महिलाओं के लिए सबसे ख़तरनाक़ शहर की बनी और अब इसे दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर कहा जा रहा है.
दिल्ली से नफ़रत करने वालों के लिए यह कभी अच्छा शहर नहीं था. इस शहर की हिमायत कभी इतनी मुश्किल नहीं रही.
बहुत कम लोग जानते हैं कि मुंबई नहीं बल्कि दिल्ली देश का सबसे बड़ा शहर है. मगर जनगणना विभाग इससे सहमत नहीं. वह मुंबई के उपनगरीय इलाक़ों को मुंबई शहर का हिस्सा मानता है.
दिल्ली राज्य की सीमाएं नोएडा और ग़ाज़ियाबाद जैसे शहरों को दिल्ली का हिस्सा बनने से रोकती हैं.
अगर इन्हें और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा मिला लें, तो ढाई करोड़ की आबादी वाला शहर दिल्ली, टोक्यो और जकार्ता के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ी शहरी आबादी वाला शहर हो जाएगा.
1951 से 2001 के बीच दिल्ली की आबादी हर साल दोगुनी बढ़ी. 2001 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर 20 फ़ीसद रही.
आबादी की दर इसलिए कम रही क्योंकि भारत ने सही कदम उठाए और कुछ उपनगर विकसित कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) बना दिया गया.
यूं तो प्रशासन के मामले में भारत सबसे अच्छा देश नहीं है, फिर भी यह चमत्कार ही है कि एनसीआर रहने लायक है.
सिर्फ़ दिल्ली के 1.7 करोड़ लोग अपनी गाड़ियों से नहीं बल्कि उपनगरों के लोग, उत्तर भारत का ट्रैफ़िक और पंजाब के खेतों में लगाई गई आग भी शहर को प्रदूषण के मुहाने पर पहुँचाते हैं.
एक गौरवान्वित दिल्लीवासी होने के नाते मैं कहूँगा कि यहां उतनी ही अव्यवस्था है जैसी भारत के दूसरे शहरों में.
पटना, ग्वालियर और रायपुर की हवा भी उतनी ही ख़राब है जितनी दिल्ली की, जबकि इन शहरों की आबादी दिल्ली से काफ़ी कम है.
मैं तो कहूँगा कि दूसरे शहरों के मुक़ाबले दिल्ली अपनी हवा साफ़ रखने में ज़्यादा कामयाब रहा है.
आप बीजिंग में हो या बैंकॉक, आपको सांस लेने के लिए अच्छी हवा नहीं मिलेगी. वायु प्रदूषण विकासशील देशों के बड़े शहरों की एक आम समस्या है.
प्रदूषण को लेकर दिल्ली में इतना ख़ौफ़ पहली बार नहीं. वायु प्रदूषण के ऐसे ही आर्मागेडॉन हालात 90 के दशक के अंत में भी पैदा हुए थे.
जब 2001 में सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली में पेट्रोल-डीज़ल वाले सार्वजनिक परिवहन पर रोक लगानी पड़ी थी और उन्हें सीएनजी में बदलने को कहना पड़ा था.
इससे दिल्ली में प्रदूषण तो घटा, पर कई बसें सड़क से हटीं और अभी तक वापस नहीं लौटीं.
दिल्ली मेट्रो सड़कों से क़रीब 20 लाख यात्रियों को हटाती है. सोचिए, अगर 2003 में शुरू हुई और लगातार फैल रही दिल्ली मेट्रो न होती, तो कितनी अव्यवस्था होती?
दिल्ली का मौजूदा सार्वजनिक परिवहन संकट ज़्यादातर 1998 से 2001 के बीच सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को लेकर दिल्ली सरकार की अनदेखी का नतीजा है.
सुप्रीम कोर्ट और सरकार का रुख कमर्शियल वाहनों के लिए कड़े क़ानून बनाने पर था, जो उन लोगों को ढोते हैं, जिनके पास अपनी कार नहीं है.
दूसरी तरफ़ कार मालिकों के लिए सरकारें हज़ारों करोड़ रुपए ख़र्च करके फ़्लाईओवर बनाती रही.
इस बार चेतावनी की घंटी ज़ोर से बजी है. उम्मीद करनी चाहिए कि सही नतीजा निकलेंगे.
दो-तीन साल में हमें दिल्ली में प्रदूषण स्तर कम मिलेगा. दिल्ली मेट्रो की इनर और आउटर रिंग रोड से निकलने वाली दो लाइनों के बाद स्टेशन 4 से बढ़कर 27 हो जाएंगे, जहां से लोग ट्रेनें बदल सकते हैं.
इससे यात्रा का समय घटेगा और दिल्ली के तक़रीबन हर हिस्से में पहुँचा जा सकेगा. ज़्यादा लोग अपनी गाड़ियां पार्क करके मेट्रो पकड़ सकेंगे.
दिल्ली मेट्रो भारत ही नहीं बाहर के शहरों के लिए भी आदर्श है. मेट्रो का प्रस्ताव तो दशकों से था पर इसे अमलीजामा 2003 में ही पहनाया जा सका.
इसी तरह उत्तर भारत से दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की आवाजाही रोकने के लिए बाहरी इलाक़ों में सड़कें बनाने की योजना भी कई साल पुरानी है.
उम्मीद है कि मौजूदा संकट से यह भी शायद जल्द साकार हो पाए.
इसमें वक़्त लगेगा पर तब तक दिल्ली सरकार को नए बस स्टॉप के लिए ज़मीनें लेनी होंगी और सड़कों पर और बसें उतारनी होंगी.
इन्हें ठीक से चलाने के लिए कॉरिडोर बनाना होगा, जिससे कार मालिक नफ़रत करते हैं. मगर यह ज़रूरी होगा.
दिल्ली की हवा इस क़दर प्रदूषित है कि डॉक्टर अपने मरीजों को सांस की बीमारी की वजह से दिल्ली छोड़ने के लिए कहने लगे हैं.
फिर भी मुझे लगता है कि स्थिति बदलेगी, जैसा 2000 के शुरू में हुआ था.
हमें प्रदूषण को लेकर इतना नहीं डरना चाहिए कि हम दिल्ली से ही नफ़रत करने लगें. यह अभी भी रहने के लिए देश के अच्छे शहरों में एक है.
यहां खुली जगह हैं, किराए कम हैं और मुंबई के मुक़ाबले चौड़ी सड़कें हैं. ये कोलकाता या चेन्नई के मुक़ाबले कम दमघोंटू है.
जीवंत बौद्धिक और सांस्कृतिक जीवन है, जिसकी बराबरी बैंगलुरु नहीं कर सकता और स्वागत करने वाले लोग हैं, जिससे बंबईवाले ईर्ष्या कर सकते हैं.
यह देशभर के प्रवासियों की पसंदीदा जगह है. आज जो दिल्ली है, वो 90 के दशक में कभी मुंबई होता था- सपनों का शहर.
2012 में महिलाओं पर हिंसा के ख़िलाफ़ लगातार महीने चले प्रदर्शन ने साबित किया कि दिल्लीवासी शहर की बेहतरी के लिए आगे आने को तैयार हैं.
वो प्रदर्शन बाद में दुनियाभर में आंदोलनों के लिए प्रेरणा बने.
आइए, वायु प्रदूषण से हमारी जंग भी उसी तरह एक मिसाल बन जाए.
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