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चिंतन-3 : परिपक्व हुई है गंठबंधन की राजनीति जनादेश से संदेश

नीरजा चौधरी राजनीतिक विश्लेषक बीत रहे साल 2015 का सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश भाजपा के लिए ही है, आगामी वर्षों में राज्यों में होनेवाले चुनावों में उसे थोड़ी ज्यादा सजगता बरतनी होगी. आज की कड़ी में पढ़ें जनादेश से संदेश. साल 2014 में जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी थी, […]

नीरजा चौधरी
राजनीतिक विश्लेषक
बीत रहे साल 2015 का सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश भाजपा के लिए ही है, आगामी वर्षों में राज्यों में होनेवाले चुनावों में उसे थोड़ी ज्यादा सजगता बरतनी होगी. आज की कड़ी में पढ़ें जनादेश से संदेश.
साल 2014 में जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी थी, तब भाजपा ने कहा था कि गंठबंधन की सरकारों का दौर खत्म हो गया है, लेकिन वह इस बात को भूल गयी थी कि खुद उसके साथ कई पार्टियां हैं. हमारी राजनीति में ‘वन पार्टी रूल’ (एकदलीय सत्ता) से लड़ने के लिए तमाम विपक्षी पार्टियाें के एक होने की संभावना बनी रहती है. केंद्र में अब चुनाव तो 2019 में होने हैं, इसलिए इस एका की शुरुआत राज्यों के चुनाव से ही होनी थी, जो 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में हुई. ऐसा कांग्रेस के शासनकाल में भी होता था.
जब कांग्रेस केंद्र की सत्ता में होती थी, तब एंटी-कांग्रेस वोटों को एक जगह लाने की कोशिशें होती थीं. और यह कोशिश कुछ दफे कामयाब भी हुई थी. हमारे जैसे लोकतंत्र में गंठबंधन की सरकारों पर लोगों का भरोसा कम होता है, क्योंकि आम धारणा है कि गंठबंधन की सरकारों में पार्टियों के बीच खींचतान के चलते कामकाज में रुकावट आती है.
जब मनमोहन सिंह की सरकार केंद्र में थी, तब उन्होंने खुद कहा था कि उनके सामने गंठबंधन धर्म निभाने की मजबूरी है. इस सबके बावजूद 2015 में बिहार की जनता ने गंठबंधन को जनादेश दिया, तो इसका मतलब गंभीरता से समझने की जरूरत है.
बिहार के बीते 25 साल को देखें- 15 साल लालू के और 10 साल नीतीश के. इन ढाई दशकों के शासन के चलते जनता के बीच सत्ता-विरोधी लहर भी थी, लेकिन जनता ने इस लहर को भी नकार दिया.
इन वर्षों में लालू-नीतीश एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे, इसलिए जब उन्होंने महागंठबंधन का एलान किया, तो राजनीतिक पंडितों ने कहा कि यह गंठबंधन नहीं चलनेवाला. तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि इस गंठबंधन को बेहतरीन जनादेश मिला?
दरअसल, इस जनादेश का स्पष्ट संदेश यह है कि बिहार की जनता ने सत्ता-विरोधी लहर को नहीं, बल्कि भाजपा को नकारा. यानी भाजपा को सत्ता में नहीं लाने के लिए बिहार के एक बड़े तबके ने दो कट्टर विरोधियों की एका को भी स्वीकार कर लिया.
2014 का संदेश था कि अब गंठबंधन सरकार नहीं, बल्कि एकदलीय सत्ता काम करेगी. लेकिन 2015 का संदेश यह रहा कि जनता को एकदलीय या गंठबंधन सत्ता से नहीं, बल्कि स्थानीय मुद्दों और अपने क्षेत्रीय सरोकारों से मतलब है. जाहिर है, लालू-नीतीश के गंठबंधन ने इस चीज को समझा, जिसे भाजपा नहीं समझ पायी और अपनी केंद्र की सत्ता वाले रवैये पर ही कायम रही. इसलिए बीत रहे साल 2015 का सबसे बड़ा राजनीतिक संदेश भाजपा के लिए ही है. आगामी वर्षों में राज्यों में होनेवाले चुनावों में उसे थोड़ी ज्यादा सजगता बरतनी होगी.
हालांकि बिहार चुनाव से निकला 2015 का यह राजनीतिक संदेश उत्तर प्रदेश में 2017 में होनेवाले चुनावों तक उस असर के साथ नहीं पहुंचेगा, क्योंकि फिर दो साल बाद यानी 2019 में देश में आम चुनाव होने हैं. हमारे देश की मौजूदा गंठबंधन की राजनीति में अब थोड़ी परिपक्वता आयी है. पहले होता यह था कि गंठबंधन की एक पार्टी कहती थी कि अगर मेरी बात नहीं मानी गयी, तो मैं सरकार गिरा दूंगी.
लेकिन, अब ऐसा कम ही देखने को मिलेगा, क्योंकि अब पार्टियों को समझना होगा कि अगर वे राजनीतिक परिपक्वता से काम नहीं करेंगी, तो उनके लिए नुकसान हो सकता है. यह हमारे लोकतंत्र की मजबूती के लिए बहुत जरूरी है कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां बिना घमंड किये एक सामूहिक सोच के साथ काम करें.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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