।। ब्रजेश कुमार सिंह ।।
(संपादक – गुजरात एबीपी न्यूज)
– सोनपुर हरिहर क्षेत्र मेला
– 19 वीं से 20 वीं सदी में यहां आते थे एंग्लो-इंडियन व यूरोपीय कारोबारी भी
ऐतिहासिक सोनपुर मेला सदियों से आयोजित होता आ रहा है. अंगरेजों के समय में यहां दरबार लगते थे. मुलाकातों के दौर चलते थे और मनोरंजन की भरपूर व्यवस्था होती थी. तमाम ठहरावों के बावजूद सोनपुर मेला आज भी पहचान बनाये हुए है.
सोनपुर के मेले में सैलानियों को आकर्षित करने के लिए बिहार पर्यटन विभाग की तरफ से जोरदार मार्केटिंग की जा रही है. कभी एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के तौर पर अपनी पहचान रखने वाले सोनपुर मेले की मौजूदा समय में प्रासंगिकता बनाये रखने की कोशिशें भी खूब हो रही हैं.
इसके तहत सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों की प्रदर्शनी का नुस्खा भी आजमाया जा रहा है. बिहार पर्यटन विभाग इस मेले को पैकेज के तौर पर भी सैलानियों को बेच रहा है. सैलानी आएं, तो उनके रहने के लिए अत्याधुनिक टेंट्स भी मुहैया हैं. टूरिज्म कॉम्पलेक्स की शक्ल टेंट सिटी जैसी बन जाती है.
हालांकि, नयी पीढ़ी में कम ही लोगों को ध्यान में होगा कि इस मेले में ब्रिटिश काल के दौरान भी टेंट सिटी आकार लेती थी.
19 वीं सदी की शुरुआत से लेकर 20वीं सदी के शुरुआती दो दशकों तक ये मेला न सिर्फ ब्रिटिश अधिकारियों, बल्कि एंग्लो-इंडियन और यूरोपीय कारोबारियों के लिए भी सालाना जलसे की तरह होता था. उत्तर भारत के अलग-अलग शहरों या जिलों में रहने वाले ब्रिटिश अधिकारी और कारोबारी यहां पूरे एक पखवाड़े के लिए जमा होते थे. उनके रहने के लिए यहां सैकड़ों की तादाद में टेंट लगाये जाते थे.
ये मेला ब्रिटिश अधिकारियों के लिए कितना मायने रखता था, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि ब्रिटिश कालीन वृहद बंगाल प्रांत के कई लेफ्टिनेंट गवर्नर इस मेले में पहुंचते थे, जिला स्तर के अधिकारियों की कौन बात करे. यहां तक कि कई ब्रिटिश वॉयसराय भी इस मेले में अलग-अलग दौर में पहुंचे थे. कभी इस मेले के दौरान लॉर्ड मेयो आये, तो कभी लॉर्ड नॉर्थब्रुक.
फिरंगियों के इस मेले में आने की शुरुआत 18 वीं सदी के आखिरी दशकों से ही हो गयी थी. आसपास के जिलों में रहने वाले ब्रिटिश अधिकारी या फिर निलहे फैक्ट्री मालिक यहां जुटते थे.
दरअसल ये जमघट एक तरह से क्रि समस की छुट्टियां मनाने जैसा ही हो जाता था. उस दौर में यह सुख ब्रिटिश अधिकारियों को हासिल नहीं था कि वो क्रिसमस का लुत्फ उठाने के लिए वापस इंगलैंड चले जाएं. ऐसे में उत्तर भारत के ब्रिटिश अधिकारी और कारोबारी सोनपुर के मेले में ही क्रि समस का त्योहार मना लेते थे.
सवाल ये उठता है कि आखिर जब फिरंगियों का यहां जमघट होता था, तो होता क्या-क्या था. इसकी शुरुआत हॉर्स रेस यानी घुड़दौड़ से हुई थी. इस मेले को 1801 से औपचारिक तौर पर घोड़ों के बाजार के तौर पर मान्यता दे दी थी ब्रिटिश अधिकारियों ने. यहीं से ब्रिटिश अधिकारी प्रशासनिक जरूरतों और अपनी फौजों के लिए घोड़ों की खरीद करने लगे. इसी के तहत यहां हॉर्स रेस यानी घुड़दौड़ की परंपरा भी शुरू हुई.
1839 में पहली बार यहां हॉर्स रेस हुई. उससे पहले तक ये रेस हाजीपुर में हुआ करती थी या फिर मुजफ्फरपुर में.
हॉर्स रेसिंग या घुड़दौड़ कोई अकेला खेल नहीं था, जिसे ब्रिटिश अधिकारी और कारोबारी यहां खेलते थे. आज ये जानकर लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि सोनपुर के मेले में जब फिरंगी जमा होते थे, तो वो हॉर्स रेसिंग के अलावा क्रि केट, टेनिस, पोलो और गोल्फ तक का लुत्फ उठाते थे. यहां न सिर्फव्यविस्थत तौर पर रेस कोर्स मौजूद था, बल्किपोलो ग्राउंड भी.
ब्रिटिश कालीन दस्तावेजों में इस बात का जिक्र है कि सोनपुर के मेले में शामिल होने के लिए अधिकारियों को बाकायदा निर्देश दिये जाते थे. मेले के दौरान होनेवाले पखवाड़े भर के इस फिरंगी जमघट में कब कौन से कार्यक्र म होंगे, ये भी तय रहता था. हर मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को हॉर्स रेस का आयोजन होता था.
रेस शुरू होने की सूचना देने के लिए सुबह-सुबह तोप से गोले दागे जाते थे. दानापुर कैंट से आयी सैनिक बैंड की टुकड़ी ब्रिटिश टेंट सिटी से लेकर रेस कोर्स तक संगीत के सुर बिखेरते रहती थी.
सुबह आठ बजे से शुरू होनेवाली घुड़दौड़ प्रतिस्पर्धा ग्यारह बजे जाकर खत्म होती थी. जिस दिन हॉर्स रेस होती थी, उसी दिन शाम में रेस कोर्स गाउंड पर रात्रिभोज का आयोजन होता था, जिसमें ब्रिटिश अधिकारी अपनी पत्नियों के साथ शरीक होते थे.
18 वीं सदी के आखिरी दशक से इस मेले में फिरंगियों के आने की जो परंपरा शुरू हुई, वो करीब सवा सौ वर्षो तक जोर-शोर से जारी रही. दरअसल ब्रिटिश अधिकारियों के लिए इस मेले में आना न सिर्फ आपस में मिलने-जुलने का मौका था, बल्किभारतीय समाज को नजदीक से देखने का मौका भी था.
लाखों की तादाद में यहां न सिर्फ बिहार, बल्किआसपास के प्रांतों से भी लोग जमा होते थे. मेले का न सिर्फ धार्मिक महत्व था, बल्कि आर्थिक और सामाजिक भी. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1908 में इसी मेले में कांग्रेस के नेता जुटे थे और बिहार प्रांत कांग्रेस समिति की नींव इसी जगह पड़ी.
यही नहीं, बिहार प्रांत किसान सभा की स्थापना के लिए जो बैठक हुई, वो भी इसी मेले में 1929 में हुई.
इससे पहले भी ये मेला भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की बैठकों का अड्डा रहा. इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि भारतीय स्वतंत्रता की पहली बड़ी लड़ाई यानी 1857 के विद्रोह की योजना का एक बड़ा हिस्सा यही तय हुआ था. वीर कुंवर सिंह ने यहां पर गुप्त बैठक की थी. इससे पहले भी 1845 में हिंदू और मुसलिम समुदाय के लोगों की एक बड़ी बैठक मेले की आड़ में यहां हुई थी, जिसमें सामाजिक और धार्मिक मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप का मुकाबला करने की रणनीति बनायी गयी थी.
इन वजहों से भी ब्रिटिश अधिकारियों की निगाहें इस मेले पर बनी रहती थीं. 1807 में छपरा के तत्कालीन जिलाधिकारी ने यहां पर एक दारोगा और कुछ सिपाहियों को भेज कर व्यवस्था बनाने का जो सिलसिला शुरू किया था, वो बाद के वर्षो में नियमित मेला बंदोबस्त के तौर पर तब्दील हो गया, जिसमें सैकड़ों की तादाद में पुलिस अधिकारी और कर्मचारी तैनात किये जाने लगे.
20 वीं सदी के दूसरे दशक के बाद इस मेले में ब्रिटिश अधिकारियों के आने का सिलसिला कमजोर पड़ने लगा. ब्रिटिश प्रशासन में कलकत्ता (अब कोलकाता) की जगह दिल्ली को राजधानी बनाये जाने और परिवहन के विकास के साथ ही सोनपुर ब्रिटिश अधिकारियों के सालाना कैलेंडर से बाहर निकलने लगा.
हालात ऐसे बने कि जिस जिमखाना में ब्रिटिश अधिकारी और समृद्ध यूरोपीय कारोबारी अपनी पत्नियों के साथ नृत्य करते थे, वो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का इंस्पेक्शन बंग्लो बन गया. जिस जगह रेसकोर्स या फिर पोलो ग्राउंड हुआ करते थे, वहां खेत बन गये.
भारत की आजादी के छह दशक बाद तो कोई ये सोच भी नहीं सकता कि कभी सोनपुर में ब्रिटिश अधिकारी दरबार का आयोजन करते थे. 1878 में जब ऐसा ही एक दरबार हुआ था, तो बिहार के सौ से भी अधिक जमींदार वहां जमा हुए थे.
इसमें दरभंगा, बेतिया और हथुआ जैसी बड़ी जमींदारियों के प्रमुखों के अलावा छोटे जमींदार भी शामिल थे. ब्रिटिश शासन के प्रति अपना समर्पण दिखाने के लिए ये सब वहां जमा हुए थे.
दरबार के अलावा भी ये बड़े जमींदार सोनपुर के मेले के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों की आवभगत में खूब लगे रहते थे. महाराजा दरभंगा का एक ऑलीशान टेंट तो खास तौर पर ब्रिटिश मेहमानों के स्वागत के लिए ही होता था.
सोनपुर का मेला अब अपनी नयी पहचान बनाने में लगा है. बदलते समय के साथ अपने को जोड़ने में लगा है. ऐसे में इसका समृद्ध इतिहास पुराने दस्तावेजों में ही कैद होकर रह गया है. ऐसे में भला इस मेले में आनेवाले युवाओं को कहां खबर लगे फिरंगियों की या फिर उस दौर के इंगलिश बाजार की.