* हिंदुस्तान को पाकिस्तान बनाने की कोशिश-2
।। कुरबान अली ।।
आरएसएस के मुखपत्र- ऑर्गेनाइजर 30 जनवरी, 1966 के अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में गुरु जी लिखते हैं कि अब ये साफ होता जा रहा है कि महिलाओं को मत देने का आधिकार देने का फैसला गलत और फिजूल था.
एक हिंदू होने के नाते मैं यह मानने को मजबूर हूं कि हमारे लिये अभी और बुरे दिन आनेवाले हैं. इतिहास गवाह है कि जब कहीं महिलाओं ने हुकूमत की है वहां अपराध, गैर बराबरी और अराजकता इस तरह फैली है जिसका जिक्र नहीं किया जा सकता. साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि महिला अगर विधवा हो और शासक हो जाये तो मुल्क की बदनसीबी शुरू हो जाती है.
उल्लेखनीय है कि गुरु जी का यह लेख स्वर्गीय इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के एक सप्ताह बाद प्रकाशित हुआ था. श्रीमती गांधी उस समय देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं थी. इससे साबित होता है कि संघ और उसके गुरु जी महिलाओं के प्रति कितना आदर और सम्मान का भाव रखते थे.
संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा डॉ भीमराव आंबेडकर का कहना था कि अगर इस देश में हिंदू राज समुचित हकीकत बन जाता है, तो यह देश के लिए एक खौफनाक मुसीबत होगी क्योंकि हिंदू राष्ट्र का सपना आजादी, बराबरी और भाईचारे के खिलाफ है, और यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतो से मेल नहीं खाता और इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए.
चौथा मुद्दा है भाषा का. सारी लोक भाषाएं भारतीय है और हिंदी राष्ट्र भाषा. लेकिन गुरु जी का मानना है कि संस्कृत राष्ट्र भाषा होनी चाहिए. बंच ऑफ थाट्स में वह लिखते है कि संपर्कभाषा की समस्या के समाधान के रूप मे जब तक संस्कृत स्थापित नहीं हो जाती, तभी तक हिंदी को प्राथमिकता देनी चाहिए और अंतत: संस्कृत को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए. राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान संघ-राज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था यानी केंद्र के जिम्मे कुछ निश्चित विषय होगें. बाकी राज्यों के अंर्तगत होगें.
यह लोग ए यूनियन ऑफ स्टेट्स यानी संविधान में संघ-राज्य की जो कल्पना है उसका मजाक उड़ाते हैं और उसको खत्म कर देना चाहते हैं. गुरु जी बंच ऑफ थाट्स में लिखते है कि संविधान का पुन:परीक्षण होना चाहिए और इसका पुनर्लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए. यानी गुरु जी चाहते है कि केंद्र अनुगामी शासन. वे चाहते है कि ये जो राज्य वगैरह हैं ये खत्म होने चाहिए.
उनकी कल्पना है, एक देश, एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यप्रणाली और राज्यों के विधान मंडल, मंत्रिमंडल सब खत्म. मतलब साफ है कि केंद्रनुगामी शासन जिसका डंडा और राजदंड उनके हाथ में हो. जिस तरह आरएसएस और गुरु जी संघ राज्य की कल्पना को अस्वीकार करते हैं उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं है. उनका मानना है कि लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात हुई कल्पना है और यह हमारी संस्कृति के अनुकूल नहीं है.
समाजवाद और कम्युनिज्म को तो गुरु जी पूरी तरह परायी चीज मानते हैं वह लिखते हैं कि यह जितने इज्म हैं, यानी सेक्युलिरज्म, डेमोक्रेसी, सोशलिज्म, कम्युनिज्म यह सब विदेशी धारणाएं हैं और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज की रचना करनी चाहिए. यानी- एकचालनानुवर्तित्व सिद्धांत. वह इस बात पर भी दुखी होतें हैं कि देश आजाद हो जाने के बाद जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया. सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता के तो वह घोर विरोधी थे ही.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा, तिरेंगे की इज्जत और आन-बान-शान के लिए सैकड़ों लोगों ने अपनी जान क़ुरबान की, लाखों लोगों ने तिरंगे को लेकर लाठियां खायीं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कभी भी तिरंगे को राष्ट्र ध्वज नहीं मानता वह तो भगवा ध्वज को ही मानता है और कहता है कि भगवा ध्वज ही हिंदू राष्ट्र का प्राचीन झंडा है. वही उनका आदर्श और प्रतीक है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं) जारी
हिंदुस्तान को पाकिस्तान बनाने की कोशिश – 1
।। कुरबान अली ।।
संघ ने आडवाणी, जोशी व जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ की अनदेखी कर मोदी को ही पीएम प्रत्याशी घोषित कराने की जिद क्यों की? ये विचारणीय है. इस पर चर्चा होनी चाहिए कि आरएसएस इस देश में कैसी विचारधारा थोपना चाहता है.
आरएसएस का मुखौटा उतर चुका है. अपने आपको सांस्कृतिक संगठन कहने वाले संघ ने भाजपा के कान पर पिस्तौल रख कर यह घोषित करवा लिया कि वह अपने चहेते नरेंद्र मोदी को आगामी लोकसभा चुनावों में पीएम का उम्मीदवार बनाये. आखिर संघ ने आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी व जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी कर मोदी को ही भाजपा के पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कराने की जिद क्यों की? ये विचारणीय है और इस पर चर्चा होनी चाहिए कि आरएसएस इस देश में कैसी विचारधारा थोपना चाहता है और यदि उसके मन मुताबिक तरीके से मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी, जिस पर अब भी सवालिया निशान हैं, तो देश का संवैधानिक ढांचा क्या होगा? संविधान क्या होगा? क्या उसका मूल स्वरूप यही होगा या उसमें परिवर्तन कर देश को लोकतांत्रिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के बजाये हिंदू राष्ट्र बनाया जायेगा. जिसमें केवल हिंदू धर्म के माननेवालों की श्रेष्ठता होगी और दूसरे लोग दोयम दर्जे के नागरिक बन कर रहने को बाध्य होंगे.
जहां जाति आधारित समाज की रचना होगी और मनु स्मृति के तहत देश का शासन चलाया जायेगा. देश की राष्ट्रभाषा संस्कृत होगी. और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की जगह भगवा होगा. जहां महिलाओं को कोई अधिकार नहीं होंगे और उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं होगा?
यह सर्वविदित है कि संघ ने 1857 में शुरू हुई आजादी की पहली लड़ाई से लेकर 1947 तक 90 सालों तक चले राष्ट्रीय आंदोलन को, उसके नेतृत्व को, उसकी विचारधारा को और उस आधार पर बने देश के संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया. संघ और उसके अनुषांगिक संगठन राष्ट्रीय आंदोलन और उसके एक छत्र नेता महात्मा गांधी से कितना बैर रखते थे, इसका श्रेष्ठ उदाहरण गांधी की जघन्य हत्या थी. आजादी के बाद भी आरएसएस ने कभी भी देश की संविधान सभा और उसके द्वारा निर्मित संविधान को स्वीकार नहीं किया और लोकतांत्रिक व्यवस्था की हमेशा मुखालफत की.
अपने को सांस्कृतिक संगठन कहने वाले और मुखौटा लगा कर पहले हिंदू महासभा, फिर भारतीय जनसंघ और 1980 से भारतीय जनता पार्टी के रूप में राजनीति करने वाले संघ की क्या विचारधारा है, इसपर गौर किया जाना जरूरी है. संघ जिन्हें अपना पुरखा मानता है और स्वयंसेवक जिनके मानस पुत्र, वे हैं विनायक दामोदर सावरकर, और संघ के दूसरे सरसंघ चालक माधव सदाशिव- (एमएस) गोलवलकर. सावरकर और जिन्ना के विचारों में गजब की समानता है. दोनों दो-राष्ट्रवाद के सिद्धांत को मानते थे और दोनों का कहना था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं. इसके अलावा हिटलर और गोलवलकर के विचारों में गजब की समानता है और अगर ये कहा जाये कि गुरु जी (गोलवलकर) हिटलर की विचारधारा से प्रभावित थे और उसे भारत में लागू करना चाहते थे तो गलत ना होगा.
गुरु जी की एक किताब है- वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड.1947 में प्रकाशित इस किताब के चतुर्थ संस्करण में गुरु जी लिखते हैं, हिंदुस्तान के सभी गैर हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिंदू धर्म का आदर करना होगा और हिंदू जाति अथवा संस्कृति के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा.
इसी किताब के पृष्ठ 42 पर वे लिखते हैं कि जर्मनी ने जाति और संस्कृति की विशुद्धता बनाये रखने के लिए सेमोटिक यहूदी जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था. इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है. जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है उनका एक संयुक्त घर के रूप में विलय असंभव है. यह है आरएसएस की विचारधारा.
इस विचारधारा का एक दूसरा नमूना है गुरु जी की एक और किताब बंच ऑफ थॉ ट्स. इस किताब का एक संस्करण नवंबर 1966 में प्रकाशित हुआ है. इसमें गुरु जी ने देश में तीन आंतरिक खतरों की चर्चा की है. ये खतरे हैं, मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट. साथ ही गुरु जी वर्ण व्यवस्था यानी जाति व्यवस्था के भी प्रबल समर्थक हैं. वो लिखते हैं- हमारे समाज की विशिष्टता थी वर्ण व्यवस्था, जिसे आज जाति व्यवस्था बता कर उसका उपहास किया जाता है.
समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गयी थी, जिसकी पूजा सभी को अपनी योग्यता और अपने ढंग से करनी चाहिए. ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था क्योंकि वह ज्ञान दान करता था. क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था. वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं था क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी जो अपने कला कौशल से समाज की सेवा करता था. इसमे बड़ी चालाकी से गुरु जी ने जोड़ दिया कि शूद्र अपने हुनर और कारीगरी से समाज की सेवा करते हैं लेकिन इस किताब में गुरु जी ने चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की तारीफ की है उसमें लिखा गया है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शूद्रों का सहज धर्म है. सहज धर्म की जगह गुरु जी ने जोड़ दिया समाज की सेवा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं) जारी