आज संयुक्त राष्ट्र दिवस है. दुनिया में शांति की स्थापना और सभी राष्ट्रों के विकास में मदद के उद्देश्य से 1945 में आज के ही दिन संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी. बीते 68 वर्षो में दुनिया को युद्ध से बचाने में कई मौकों पर संयुक्त राष्ट्र की उल्लेखनीय भूमिका रही है, हालांकि कुछ मौकों पर यह नाकाम भी रहा है. अब वक्त के साथ बदली दुनिया में संयुक्त राष्ट्र और इसकी संस्थाओं की व्यवस्था में बदलाव की मांग भी जोर पकड़ रही है. आज कुछ ऐसे ही पहलुओं के बीच ले जा रहा है नॉलेज.
।। पुष्पेश पंत ।।
(विदेश मामलों के जानकार)
आज पूरी दुनिया में संयुक्त राष्ट्र दिवस मनाया जा रहा है. लेकिन भारत में इसे जिस उत्साह के साथ मनाया जाता है, अन्य देशों में वैसा शायद कम ही देखा जाता है. जहां तक 24 अक्तूबर के दिन ‘संयुक्त राष्ट्र दिवस’ आयोजित करने की बात है, तो तमाम देशों में यह आयोजन प्रतीकात्मक तौर पर ही रह गया है. हमारे देश को इस संगठन से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें हैं, शायद इसीलिए हमारे यहां इसे ज्यादा उत्साहजनक तरीके से मनाया जाता है.
1970 और 80 के दशक में दुनियाभर में पर्यावरण संबंधी चिंताओं को लेकर विकसित देशों में खलबली मची थी. उस दौरान इस संगठन की कई एजेंसियों ने दुनियाभर में पर्यावरण संबंधी चिंताओं से जुड़े मामलों को सुलझाने में सार्थक भूमिका निभायी थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें महाशक्तियों का वर्चस्व बढ़ता चला गया, जिससे इसकी भूमिका कम होती गयी. दो-तीन दशक पूर्व तक दुनिया में माओवादी हिंसा जैसी चुनौतियों से निपटने में भी इस संगठन की कई एजेंसियों ने अहम भूमिका निभायी थी. लेकिन धीरे-धीरे इस तरह की गतिविधियां कम होती चली गयीं.
हालत यह है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों समेत ज्यादातर विकसित देशों या महाशक्तियों के लिए आज इस संगठन का कोई खास मतलब नहीं रह गया है. उन्होंने अपने-अपने हितों को साधने के लिए अन्य कई क्षेत्रीय संगठन भी बना रखे हैं. आज दुनियाभर में सामाजिक उत्थान की चुनौतियों को हल करने और सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की संबंधित एजेंसियों की भूमिका कम होती जा रही है और गैर-सरकारी संगठनों का योगदान इन कार्यो में बढ़ गया है. उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी ‘रेड-क्रॉस’ काम तो कर रही है, लेकिन उसकी भूमिका सीमित दायरे में है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जब काम शुरू किया था, तब दुनियाभर के गरीब और पिछड़े मुल्कों में एक उम्मीद जगी थी कि उनके यहां अनेक बीमारियों को दूर करने में यह संस्था मददगार साबित होगी. लेकिन इसका नतीजा उम्मीद के मुताबिक नहीं निकल पाया. वास्तव में यह ‘ऊंची दुकान और फीका पकवान’ साबित हुई. दुनियाभर में आज वास्तव में जरूरतमंद देशों को संयुक्त राष्ट्र की ओर से कोई खास मदद हासिल नहीं हो पा रही है. हाल के वर्षो में दुनियाभर में जनकल्याणकारी कार्यो में खर्च कम होता जा रहा है. वियतनाम समेत मध्यपूर्व में शांति व्यवस्था और विकास समेत आम लोगों के जीवन में सुधार लाने के मामले में भी संयुक्त राष्ट्र तकरीबन नाकाम ही रहा है.
इसका एक और पहलू है. इस संगठन के खर्चो में बड़ी हिस्सेदारी निभानेवाले देश अपने हितों के मुताबिक इसकी नीतियां निर्धारित करते हैं. इसके कुल आय-व्यय के रखरखाव में अमेरिका की सर्वाधिक भूमिका है. खास कर अमेरिका ने कुछ इस तरह की नीतियां बना रखी हैं कि दुनिया में यदि उसके सैनिक कुछ भी गलत करते हैं, तो उसके सैनिकों पर अभियोग नहीं चलाया जा सकता है. लेबनान के मामले में तो यह स्पष्ट तौर पर देखा गया है. वैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलहाल इस संगठन का कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा, इसलिए भी बहुत से देश इससे जुड़े हैं.
कुल मिला कर पिछले दो-तीन दशकों में इसकी कुछ खास उपलब्धि देखने में नहीं आ रही है. भारत के अलावा अन्य देशों में ‘संयुक्त राष्ट्र दिवस’ पर ज्यादा कुछ आयोजित नहीं किया जाता है. आम आदमी की बेहतरी के लिए इसमें कुछ भी नहीं है.
यदि हम संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को बेहतर बनाने की बात करें तो सबसे पहले ‘वीटो’ को खत्म कर देना चाहिए. देखा गया है कि महाशक्तियों ने इस अधिकार का कई बार गलत इस्तेमाल किया है. इसे पूरी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है. इस संगठन की वैश्विक भूमिका का एक कड़वा सच यह भी है कि इसकी ज्यादातर नीतियां अमेरिका के हितों के मुताबिक तय होती है.
आज हम यह मान कर चल रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता मिल जाना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी. भारत अपनी ओर से भले ही सुरक्षा परिषद में विस्तार की जरूरतों पर जोर देता रहा है, लेकिन स्थायी सदस्यता हासिल होने पर जितने बदलाव होने की उम्मीद हम कर रहे हैं, दरअसल उसमें कई भ्रांतियां हैं. आज भारत के साथ सुरक्षा परिषद में शामिल होने के लिए ब्राजील, जापान और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी पूरी जोर -आजमाइश कर रहे हैं. दूसरी तरफ हमारे सामने में सऊदी अरब का भी ताजा मामला है. हमें यह भी देखना चाहिए कि आखिर क्या वजह रही कि सऊदी अरब ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सदस्यता मिलने के बावजूद दो दिनों के भीतर ही सदस्यता लौटा दी. सऊदी अरब शायद इस हकीकत से वाकिफ हो गया होगा कि स्थायी सदस्यता से कुछ भी सकारात्मक होने की उम्मीद नहीं है. वैसे, भारत के आंतरिक हालात भी कुछ इस तरह के नहीं हैं कि सुरक्षा परिषद में उसकी दावेदारी को मजबूती मिल सके. निकट भविष्य में कुछ इस तरह के लक्षण भी नहीं दिखाई दे रहे हैं कि भारत को इसमें शामिल किया जा सकता है.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
सुरक्षा परिषद
-नॉलेज डेस्क
दुनियाभर में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए भारत के अलावा ब्राजील, जर्मनी, जापान और दक्षिण अफ्रीका भी इसका स्थायी सदस्य बनना चाहते हैं. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं. अस्थायी सदस्य दो वर्षो के लिए चुने जाते हैं, लेकिन इन्हें ‘वीटो’ का अधिकार नहीं होता. मौजूदा समय में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन इसके स्थायी सदस्य हैं. अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप का फिलहाल सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.
सदस्यों के निजी हित हावी
पिछले तीन दशकों में कारोबार और तकनीक ने दुनिया को बेहद तेजी से बदल दिया है. सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की चाहत रखनेवाले देशों का कहना है कि सुरक्षा परिषद को भी बदलती दुनिया के अनुकूल बनाया जाना चाहिए. यह मांग बहुत पुरानी है और वर्ष 1979 से ही की जा रही है. लेकिन हर बार इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया जाता है. कुछ देशों के बीच आपसी विवादों को भी इसका कारण माना जा रहा है. कहा तो यह भी जा रहा है कि कुछ देश संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने के बजाए अपने निजी हितों के लिए स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं.
दक्षिण एशिया में भारत का पाकिस्तान और चीन से संबंध किस कदर लुकाछिपी वाला है, इसे सभी जानते हैं. चीन से जुड़ी भारत की अपनी चिंताएं तो हैं ही, अनेक मौकों पर आक्रामक तेवर दिखानेवाले चीन से जापान भी पूरी तरह निश्चिंत नहीं हैं. उधर, ब्राजील दक्षिण अमेरिकी देशों की एकता पर जोर दे रहा है, ताकि दावे की राह भी आसान हो सके.
आम सहमति का अभाव
पिछले दो वर्षो के दौरान, अरब देशों में पैदा हुए संकट और खास तौर पर सीरिया की हिंसा ने सुरक्षा परिषद की भूमिका पर सवाल खड़े किये हैं. ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका का आरोप है कि चीन और रूस के अड़ियल रवैये के चलते सुरक्षा परिषद किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा. दूसरी ओर, चीन और रूस का यह आरोप है कि विद्रोही राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि आतंकवादी हैं.
इस वर्ष महज कुछ माह पूर्व सीरिया में रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल हुआ, लेकिन सुरक्षा परिषद के आपसी मतभेद इतने गहरे हैं कि अभी तक इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं मिल सकी है कि जहरीली गैसों का इस्तेमाल किसने किया. इस मामले में अब तक किसी तरह की मुकम्मल कार्रवाई नहीं हुई है.
मौजूदा दौर में संयुक्त राष्ट्र को इन तमाम चुनौतियों से निपटना होगा और दुनिया को यह संदेश देना होगा कि वह महज एक मूकदर्शक संगठन नहीं है. इस तरह के सार्थक प्रयासों से ही इस वैश्विक संगठन की प्रासंगिकता बरकरार रहेगी और लोगों का भरोसा जीतने में सक्षम हो पायेगी.
भारत और संयुक्त राष्ट्र
हमारा देश संयुक्त राष्ट्र के उन प्रारंभिक सदस्यों में शामिल था, जिन्होंने एक जनवरी, 1942 को वाशिंगटन में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पर हस्ताक्षर किये थे. भारत ने 25 अप्रैल से 26 जून, 1945 तक सेन फ्रांसिस्को में ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय संगठन सम्मेलन में भी भाग लिया था. बतौर संस्थापक सदस्य भारत संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों का पुरजोर समर्थन करता है. हमारे देश ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों को लागू करने तथा संयुक्त राष्ट्र के विशिष्ट कार्यक्रमों और एजेंसियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
स्वतंत्र भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी सदस्यता को अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को कायम रखने की एक महत्वपूर्ण गारंटी के रूप में देखा. भारत यूएन के उपनिवेशवाद और रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के अशांत दौर में सबसे आगे रहा. भारत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और नस्लीय भेदभाव के सर्वाधिक मुखर आलोचकों में शुमार रहा है. 1946 में इस मुद्दे को उठानेवाला पहला देश भारत ही था. जब 1965 में सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन से संबंधित कन्वेंशन पारित किया गया था, तो भारत उस पर सबसे पहले हस्ताक्षर करनेवालों में शामिल था.
समकालीन प्राथमिकताएं
भारत ने हमेशा ही संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था में सुधार, सतत विकास समेत आतंकवाद का विरोध और निरस्त्रीकरण को तवज्जो दी है. भारत यह तय करने के लिए समान विचारधारा वाले देशों के साथ सहयोग कर रहा है कि सतत विकास पर चरचा गरीबी उन्मूलन पर केंद्रित रहे. भारत सभी प्रकार के आतंकवाद के प्रति पूर्ण असहिष्णुता के दृष्टिकोण का समर्थन करता रहा है. आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए एक व्यापक कानूनी रूपरेखा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत ने 1996 में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के संबंध में व्यापक कन्वेंशन का मसौदा तैयार करने की पहल की थी और उसे शीघ्र पारित किये जाने के लिए कार्य कर रहा है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की उच्च स्तरीय बैठक के लिए पारंपरिक प्रारूप को बढ़ावा देते हुए भारत आज शांति स्थापना और निरस्त्रीकरण के संयुक्त राष्ट्र के अत्यधिक विशेष प्रयासों में शामिल है. इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए भारत संयुक्त राष्ट्र की सुधारवादी नीतियों को लागू करने में भारत हमेशा अग्रणी रहा है.
भारत परमाणु हथियारों से संपन्न एक मात्र ऐसा राष्ट्र है, जो परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने और उन्हें समाप्त करने के लिए परमाणु अस्त्र कन्वेंशन की स्पष्ट रूप से मांग करता रहा है. आज भारत स्थायी और अस्थायी दोनों वर्गों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र सुधारों के प्रयासों में सबसे आगे है, ताकि वह समकालीन वास्तविकताओं को प्रदर्शित कर सके.
(स्रोत : भारतीय विदेश मंत्रालय की वेबसाइट)