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हथियार के बल पर चुनाव बहिष्कार
रजनीश उपाध्याय संसदीय राजनीति के प्रति अविश्वास ही वोट बहिष्कार करने वाले नक्सलवादी संगठनों का दर्शन है. इसलिए व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव हथियारबंद क्रांति से ही संभव है. क्रांति लाने का यह प्रयोग लगभग आधे दशक से ल रहा है. पर इस प्रयोग ने कोई मुकाम हासिल नहीं किया. हालांकि सरकार के आंकड़ों की बात […]
रजनीश उपाध्याय
संसदीय राजनीति के प्रति अविश्वास ही वोट बहिष्कार करने वाले नक्सलवादी संगठनों का दर्शन है. इसलिए व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव हथियारबंद क्रांति से ही संभव है. क्रांति लाने का यह प्रयोग लगभग आधे दशक से ल रहा है. पर इस प्रयोग ने कोई मुकाम हासिल नहीं किया. हालांकि सरकार के आंकड़ों की बात करें, तो देश भर में नक्सलग्रस्त जिलों की संख्या बढ़ी है. चुनाव बहिष्कार और इन संगठनों के अंतरविरोध पर रोशनी डालती यह रिपोर्ट.
नक्सलियों की चुनाव बहिष्कार की राजनीति तथा चुनाव में नक्सली हिंसा पर चर्चा के पहले एक नजर 2010 के विधानसभा चुनाव से जुड़े तथ्यों पर.
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में छठे व अंतिम चरण में 51 फीसदी वोट पड़े थे. औरंगाबाद जिले में 54 फीसदी, रोहतास और कैमूर में 51-51, बक्सर में 53 और सबसे कम गया जिले में 45.4 फीसदी. अंतिम चरण के 26 में से 18 विधानसभा क्षेत्र नक्सल प्रभावित थे और नक्सलियों ने चुनाव के बहिष्कार की घोषणा की थी. चुनाव में 33 जगहों पर चुनाव बहिष्कार की बात सामने आयी. लेकिन, ज्यादातर जगहों पर स्थानीय कारण थे.
बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा समेत कुछ अन्य राज्यों में जब भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव की आहट शुरू होती है, नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार का नारा सामने आता है.
नक्सली (हालांकि अब उनके लिए माओवादी शब्द ज्यादा चर्चित हुआ है) चुनाव बहिष्कार की अपील और इसके पीछे तर्क देने वाले पोस्टर, बैनर या परचा अपने-अपने आधार इलाकों में गुप्त रूप से चिपकाते हैं या बांटते रहे हैं. यह उनकी संसदीय राजनीति के प्रति अविश्वास और हथियारबंद संघर्ष पर भरोसा की उनकी ‘लाइन’ है, जिसे वे 1967 से आजमा रहे हैं. इन 48 वर्षो में नक्सलपंथ की धारा से निकले कई संगठन उभरे, टूटे, फिर एक हुए और कुछ हथियारबंद संघर्ष के प्रयोग की असफलता से सबक लेते हुए संसदीय राजनीति में भी उतर गये.
भोजपुर में नक्सली आंदोलन की जमीन तैयार करने में चुनाव के दौरान घटी एक घटना भी महत्वपूर्ण आधार बनी. कल्याण मुखर्जी व राजेंद्र सिंह यादव ने अपनी पुस्तक ‘भोजपुर’ में इस घटना की विस्तार से चर्चा की है – ‘विधानसभा के चौथे आम चुनाव में सहार सुरक्षित सीट से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के राजदेव राम और भाकपा के रामनरेश राम के बीच मुकाबला था. मतदान के दिन (17 फरवरी, 1967 को) एकबारी में एक घटना घटी. जगदीश महतो वोट देने बूथ पर पहुंचे, तो वहां पहले से गांव के ऊंची जाति के दबंगों ने कब्जा कर रखा था. जगदीश महतो ने हस्तक्षेप किया, तो उनकी भी पिटाई की गयी.
जुलाई, 1969 आते-आते आरा शहर की दीवारों पर नक्सलवादी नारे दिखाई देने लगे थे.’ जगदीश महतो बाद में मास्टर साहब के नाम से मशहूर हुए. महाश्वेता देवी ने उनकी जिंदगी पर आधारित मास्टर साहब नाम से एक उपन्यास भी लिखा है. वोट के अधिकार की लड़ाई भोजपुर में वर्ग संघर्ष के एक रूप में भी परिणत हुई.
1967 में माकपा में विभाजन से निकले नेताओं ने 1970 तक भाकपा माले (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम से संगठन का गठन किया. लेकिन थोड़े दिनों बाद ही इसमें विभाजन हुआ और सत्यनारायण सिंह ने चारु मजूमदार की कार्य दिशा को वामपंथी दुस्साहसवाद बताते हुए अलग संगठन बना लिया.
इसी दौरान असीम चटर्जी के नेतृत्व में अलग संगठन बना, जो बाद में एमसीसी के नाम से मशहूर हुआ. चारु मजूमदार ने भोजपुर और पटना को अपना कार्य क्षेत्र बनाया. उनके नेतृत्व में बना संगठन बाद में क्रांतिकारी वामपंथ की मुख्य धारा बना और अब यह भाकपा माले (लिबरेशन) है. उधर, जहानाबाद व पटना के इलाकों में पार्टी यूनिटी सक्रिय थी.
पार्टी यूनिटी और आंध्रप्रदेश में सक्रिय पीपुल्स वार के विलय के बाद भाकपा (माले) पीपुल्स वार का गठन हुआ. नक्सली राजनीति में 2004 में एक नया मोड़ तब आया, जब पीपुल्सवार और एमसीसी का एकीकरण हुआ और एक नई पार्टी बनी- भाकपा (माओवादी). कानू सान्याल के नेतृत्व में भी अलग संगठन गठित हुआ था. कई अन्य छोटे-छोटे समूहों ने मिल कर भाकपा माले (न्यू डेमोक्रेसी) बनाया था. लेकिन, अब बिहार में मुख्य रूप से नक्सल आंदोलन से उभरे जो प्रमुख संगठन रह गये हैं, उऩमें भाकपा माले (लिबरेशन) और एक अन्य संगठन भाकपा माले संसदीय राजनीति में उतर चुकी है, जबकि भाकपा माले (माओवादी) चुनाव बहिष्कार के नारे पर अमल करती है.
1985 में भाकपा (माले) लिबरेशन पहली बार चुनाव में उतरी. लेकिन, चुनाव में उतरने के लिए पार्टी ने इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नामक खुले संगठन को आगे किया. 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में आइपीएफ को कोई सीट नहीं मिली. 1989 में आइपीएफ के टिकट पर रामेश्वर प्रसाद आरा संसदीय सीट से लोकसभा के लिए चुने गये. उनका सांसद बनना बिहार की क्रांतिकारी वामपंथी राजनीति में एक नया मोड़ था. उसके बाद से आरा लोकसभा सीट पर माले को फिर कभी सफलता नहीं मिली.
1990 के विधानसभा चुनाव में आइपीएफ को सात सीटें मिलीं. नक्सलवाद की राजनीति से उभरे नेता विधायक बन गये. बाद में भाकपा माले (लिबरेशन) भी संसदीय राजनीति में उतरी. वैसे, इसके पहले दरभंगा के हायाघाट से उमाधर सिंह भी विधायक चुने गये थे. वह भाकपा माले (न्यू डेमोक्रेसी) से जुड़े थे. 1990 में गुरुआ सीट से रामाधार सिह विधायक चुने गये थे, जो कभी एमसीसी से जुड़े थे.
ओडिशा, झारखंड और छतीसगढ़ के पहाड़ी व जंगली इलाकों में तो भूमिगत रह कर हथियारबंद संघर्ष का संचालन माओवादियों के लिए अनुकूल है, लेकिन बिहार के मैदानी और सघन आबादी वाले इलाकों के लिए यह मुश्किल है. वह भी तब जब पुलिस ने उनके खिलाफ एक तरह से अभियान छेड़ रखा है. यही वजह है कि चुनाव बहिष्कार के नारे पर उतना अमल नहीं होता है, जितना माओवादी इसका शोर मचाते हैं.
इसे मतदान के आंकड़े में भी देखा जा सकता है. उल्टा यथास्थिति पर यकीन करने वालों को यह तर्क मिल जाता है कि नक्सली जनतांत्रिक प्रकिया से डरे हुए हैं, इसलिए हिंसा का सहारा ले रहे हैं. कई जगहों पर तो संगीनों के साये में होने वाला मतदान किसी खास दल या प्रत्याशी को ही फायदा पहुंचाता है. इसके बावजूद इस सच को स्वीकार करना होगा कि चुनाव की गहमागहमी और राजनीतिक दलों की सक्रियता के बीच ‘चुनाव बहिष्कार’ की एक धारा भी मौजूद है.
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