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कौन डरता है जंगल राज से

बिहार विधानसभा चुनाव के तारीखों का भले इंतजार किया जा रहा हो, पर चुनाव के मुद्दों को धारदार बनाने की बेसब्री राजनीतिक दलों में देखी जा सकती है. राज्य की राजनीति में एक खास काल की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जाती है. एक पक्ष कहता है कि उस खास समय में गरीबों ने तनकर […]

बिहार विधानसभा चुनाव के तारीखों का भले इंतजार किया जा रहा हो, पर चुनाव के मुद्दों को धारदार बनाने की बेसब्री राजनीतिक दलों में देखी जा सकती है. राज्य की राजनीति में एक खास काल की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जाती है. एक पक्ष कहता है कि उस खास समय में गरीबों ने तनकर चलना शुरू किया, तो प्रभु वर्ग को यह पसंद नहीं आया.
दूसरा पक्ष कहता है कि उस खास समय में समाज अधोगति का शिकार हुआ. कानून-व्यवस्था लचर थी और भ्रष्टाचार पग-पग पर कायम था.इस मसले सार्थक विमर्श के लिहाज से आज पढ़िए राष्ट्रीय जनता दल का नजरिया. कल पढ़ेंगे भाजपा की दृष्टि.
प्रोफेसर मनोज कुमार झा
चुनाव आयोग के एक सदस्य ने महीने भर पहले कहा था कि बिहार का आगामी और आसन्न चुनाव सभी चुनावों की जननी है़
उनकी इस बेबाक टिपण्णी से बिहार के चुनाव की महत्ता का पता चलता है और चुनावों की तारीख की घोषणा से पूर्व भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने अपने स्तर से रंग बिरंगी तैयारियां इस टिपण्णी को सत्य प्रमाणित करती हैं जिन दलों के पास अकूत साधन और धनबल है उन्होंने अपने सारे संसाधन के रथ अभी से झोंक दिए हैं
आधुनिक तकनीकी और ऐशो आराम के तमाम साधनों से लैस आधुनिक रथों ने इन संदेहों को फिर से जन्म दिया है कि क्या क्या जम्हूरियत पूंजी के लहर की गुलाम हो कर तो नहीं रह जायेगी?
क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि बिहार जैसे प्रगतिशील मानस वाले राज्य के समसामयिक केंद्रीय राजनीतिक विमर्श में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के समावेषी स्वरुप की चर्चा बिल्कुल नहीं हो रही है़.
कोई यह नहीं पूछ रहा है की इस मुल्क में गरीबी और सामाजिक सरोकारों की बात करने वाले लोग अचानक से ‘गरीबी का जश्न मनाने वाले कालविरुध विकास विरोधी’ की संज्ञा से क्यों नवाजे जाने लगे हैं? कोई यह नहीं बता रहा कि केंद्र सरकार द्वारा जारी आर्थिक सामाजिक और जातिगत जनगणना के निगरुण आंकड़ों को सगुण क्यों नहीं किया जा रहा है? खैर बिहार देर सबेर इन सवालों के जवाब चाहेगा और संभवत: ले भी लेगा़
बहरहाल इन दिनों बिहार के चुनाव पूर्व विमर्श में फिर सेतथाकथित ‘जंगल राज’ की चर्चा हो रही है़ प्रधानमंत्री से लेकर दर्जन भर से ज्यादा मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की जुबान से बिहार के लिए उनके कार्यक्रम, नीतियों और घोषणा पत्र के बदले जंगल राज का जुमला हजारों बार दोहराया जा रहा है़
इतने महत्वपूर्ण मालिक और मातबर लोगों द्वारा अगर यह बार बार कहा जा रहा है तो इसका एक निरपेक्ष समाजशास्त्रीय विश्लेषण आवश्यक है़ इस उद्यम में व्यक्तिगत और समष्टिगत अवयवों के अवलोकन के जरिये ‘जंगल राज’ की उपमा और अलंकार के अन्तर्निहित तत्वों को उकेरने की चेष्टा होगी़
वर्ष 1990 की बात है पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में समाज कार्य विभाग में स्नातकोत्तर पाठय़क्रम में नामांकन लिया था़ दिल्ली में रह कर तो थोड़ा कम परन्तु पहली छुट्टी पर बिहार आने पर पता चला कि बिहार की सामाजिक राजनीतिक संरचना और आबोहवा में एक ढांचागत बदलाव का आगाज हो चुका है़
मैंने अपने आसपास के परिवेश में यह स्पष्ट रूप से देखा कि सत्ता और संसाधन के सालों पुराने मठ और गढ़ के स्वामित्व के स्वरुप पर प्रश्न उठाये जा रहे है़ जिन समूहों की गिनती सिर्फ आंकड़ों में होती थी
वो अपने आंकड़ों की ताकत को हथेली पर लेकर घरों से निकल पड़े 40 वषों तक जिन सामाजिक समूहों ने बैलट पेपर देखा-सुना नहीं था, अब वो कतारों में खड़े हो गये और इन लंबी कतारों को देखकर तब तक सत्तासीन कुलीन वर्गों के रोंगटे खड़े हो गय़े उनकी राजनीति के ‘दैवीय संतुलन’ को इस बदलाव की आंधी ने सिरे से असंतुलित कर दिया था़ ‘वोट का राज मतलब छोट का राज’ अब सिर्फ एक लोकलुभावन नारा नहीं रहा बल्कि इन वंचित वगोर्ं के सामाजिक राजनीतिक स्वाभिमान का मंत्र बन गया़
बिहार के सामंती जीवन शैली के आदी अभिजात्य वर्ग के लिए इस मौन क्रांति को आत्मसात करना सहज नहीं था क्योंकि अब इन अदृश्य शोषित समूहों ने अपना नया राजनीतिक विमर्श और व्याकरण पा लिया था़
दमन और उत्पीड़न की सदियों पुरानी रवायत के खिलाफ इन ‘छोटे लोगों’ ने अपना शिक्षाशास्त्र गढ़ लिया था़ सत्ताच्युत हो गये इस छोटे से अभिजात्य वर्ग की मायूसी, असहजता और खीझ ने सबसे पहले तो यह भविष्यवाणी कर दी कि शासन चलाना इन दलितों और पिछड़े वर्ग के वश का नहीं है़
खैर इस तर्क की अकाल मृत्यु हो गयी जब एक वर्ष के अन्दर ही क्रन्तिकारी और जनोन्मुख निर्णय लिए जाने लग़े लोकतंत्र का बीजगणित पुस्तकालयों में बंद किताबों के पन्नों से निकलकर खेत-खलिहानों तक जा पहुंचा और हिस्सेदारी व भागीदारी ने तमाम संरचनात्मक अवरोध समाप्त करने का कार्य शुरू कर दिया.
कमोबेश लगभग पंद्रह वर्ष के इस ऐतिहासिक कालखंड में बिहार की सरकार को केंद्र के प्रतिकूल रवैये से हर क्षण रूबरू भी होना पड़ा. योजना मद से लेकर केंद्रीय सहायताओं में अस्पष्टिकृत और अनुचित कटौतियों ने भी बिहार की सरकार के समक्ष अस्तित्व का संकट भी उत्पन्न कर दिया़
हां, पंद्रह वर्ष के इस शासन काल में कमियां नहीं रहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता. लेकिन इस तरह के सैंकड़ों उदहारण कई और प्रांतों में भी देखे जा सकते हैं
जहां कई बार और लगातार पूर्ण बहुमत से एक दल विशेष की ही सरकार चुनी गयी हो़ लेकिन बिहार की पंद्रह वषों की राजद सरकार की सबसे बड़ी गलती रही कि ‘अनुभूति और छवि प्रबंधन’ के लिए उसने किसी निजी कंपनी को किराये पर नहीं लिया़
यह अकारण नहीं है कि माननीय पटना उच्च न्यायालय की एक घटना विशेष के सन्दर्भ में की गयी ‘जंगल राज’ की एक अलहदा टिपण्णी वंचित और शोषित समूहों के स्वाभिमान की राजनीति के खिलाफ एक औजार के रूप में निरंतर प्रयोग की जा रही है़
राजनीतिक विमर्श तथ्यपरक और तर्कसंगत होना चाहिए ताकि विरोध भी संतुलित और शालीन हो और जनता प्रगतिशील विकल्प की पहचान कर सक़े
लेकिन राजनीतिक स्मृतिलोप की सच्चाई की बानगी देखिए कि वर्ष 2004 में भारत के सर्वोच्य न्यायालय के दो शीर्ष न्यायाधीशों ने गुजरात 2002 के संदर्भ में कहा था कि जब मासूम बच्चों और औरतों का कत्ल किया जा रहा था तो ‘आज के नीरो’ दूसरी तरफ नजर फेरे बैठे थ़े स्मृति और इतिहास से हिंसक छेड़छाड़ करने वाले लोग सर्वोच्च न्यायालय की इस संवेदनशील और ऐतिहासिक अवलोकन को बिसरा देना चाहते हैं
एक सभ्य समाज को यह तो तय करना ही होगा कि तात्कालिक राजनीति की समग्रता और उसकी बहुलता पूंजी नियंत्रित अफवाह और दुष्प्रचार के माध्यमों की शिकार ना हो जाये. ‘जंगल राज’ की उपमा के लगातार प्रयोग के पीछे आक्रामक बाजार और दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी राजनीति है जो सामाजिक न्याय और हिस्सेदारी के विकास को अवरुद्घ कर हाशिए पर धकेलना चाहते हैं
सच तो यह है कि नब्बे के बदलाव के दौर में ‘छोटका सबका दिमाग खराब हो गया है’ कहने वाले लोग जंगल राज की उपमा के माध्यम से पिछड़ों की भागीदारी, शिक्षा और रोजगार के अवसरों की समानता, अकलियतों के हकूक, उनकी सुरक्षा और असमान विकास के मुद्दों को सार्वजनिक चर्चा से बाहर रखने को कटिबद्घ हैं तारीख गवाह है कि जब-जब विमर्श की समग्रता को सामंतवादी कुलीन सोच के संकीर्ण दायरे में बांधा गया है ऐतिहासिक नाइंसाफी नासूर में तब्दील हो जाती है़
लेखक राजद के प्रवक्ता हैं व दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं
( नोट : कल पढें भाजपा प्रवक्ता और विधायक प्रेम रंजन पटेल का लेख)

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