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कब मिलेगा आधी आबादी को पूरा हक

आरके नीरद बिहार में 1952 से अब तक केवल 242 महिलाएं विधानसभा पहुंच पायीं हैं. अब तक 15 बार विधानसभा का चुनाव हो चुका है और हर दल ने महिला मतदाताओं एवं महिला कार्यकर्ताओं की मदद ली. सभी दलों ने महिलाओं के अधिकारी की वकायत की, लेकिन टिकट देने में सब ने उनकी अनदेखी की. […]

आरके नीरद

बिहार में 1952 से अब तक केवल 242 महिलाएं विधानसभा पहुंच पायीं हैं. अब तक 15 बार विधानसभा का चुनाव हो चुका है और हर दल ने महिला मतदाताओं एवं महिला कार्यकर्ताओं की मदद ली. सभी दलों ने महिलाओं के अधिकारी की वकायत की, लेकिन टिकट देने में सब ने उनकी अनदेखी की. सबसे अधिक 34 महिलाएं 1957 में विधनसभा पहुंचीं थीं. उस इतिहास को दोहराने में 53 साल लगे. दुबारा इतनी संख्या में महिलाओं का विधानसभा पहुंच पाना पिछले चुनाव, 2010 में संभव हो सका. हालांकि महिला विधायकों की यह संख्या भी वर्तमान विधानभा की कुल सदस्य संख्या का महज 14 फीसदी ही है, जबकि बात आधी आबादी की होती रही है. 1997 के बाद अक्तूबर 2005 का ही विधानसभा चुनाव ऐसा रहा, जिसमें चुनाव जीतने वाली महिलाओं की संख्या 25 हुई. बाकी ग्यारह चुनावों में महिला विधायकों की संख्या 20 से नीचे रही.
फरवरी 2005 का चुनाव परिणाम तो महिला सशक्तीकरण और महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने के तमाम सामाजिक-राजनीतिक दावों के गाल पर करारा तमाचा था. उस साल 234 महिलाएं चुनाव मैदान में थीं, लेकिन विधानसभा पहुंचने में केवल तीन को सफलता मिली. बिहार में महिला विधायकों की यह सबसे कम संख्या थी. यानी आजादी के 63 साल और लोकतांत्रिक सफर के 58 सालबाद भी महिलाओं को राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व का अवसर देने में यह साल सबसे निचले पायदानपर रहा.
दलों की दगावाजी
टिकट देने में महिलाओं की अनदेखी के आरोपों को खारिज करने का राजनीतिक दलों के पास तर्क रहा है. पार्टियां चुनाव जीत सकने वाले को ही उम्मीदवार बनाने की वकालत करती रही हैं. इसके विपरीत जिन सीटों पर दलों ने महिलाओं को पूरी मजबूती से लड़ाया है, वहां उन्होंने अच्छे नतीजे दिये हैं. चुनाव विेषक मानते हैं कि महिलाओं के वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी न होने की एक बड़ी वजह महिला उम्मीदवारों के कमी भी है. यह तथ्य 1937 के प्रांतीय सभाओं के चुनाव में भी देखा गया था. उस चुनाव तक महिलाओं को वोट का अधिकार तो मिल चुका था, लेकिन महिला मतदाताओं की संख्या महज 7.83 प्रतिशत (कुल183335) थी. फिर भी देख गया कि जो चार सीटें पटना, पटना सिटी, मुजफ्फरपुर और भागलपुर महिलाओं के लिए आरक्षित थीं, वहां अन्य क्षेत्रों के मुकाबले महिलाओं ने वोट डालने में ज्यादा उत्साह दिखाया. अब भी आधी से अधिक महिला वोटर अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर रही हैं. पिछले चुनाव में 47.74 प्रतिशत महिलाओं ने वोट किया था.
पहले उत्साह, फिर निराशा
1952 से अब तक राज्य विधानसभा में महिला सदस्यों की संख्या पर तौर करें, शुरु के तीन चुनावों तक स्थिति उत्साहजनक थी, लेकिन बाद के सालों की तसवीर निराश करने वाली है. 1952 में जब पहला चुनाव हुआ था, तब नयी-नयी आजादी को लेकर बड़ा उत्साह था. उस उत्साह में 13 महिलाएं विधायक चुनीं गयीं थीं. 1962 के चुनाव में यह संख्या 34 महिला पहुंची. 1967 के तीसरे चुनाव में 25 महिलाएं विधायक बनीं. 1969 में इस संख्या में बड़ी गिरावट आयी और केवल 10 महिलाएं विधानसभा पहुंच पायीं. यहीं से क्षरण शुरू हुआ और 20वीं सदी के अंतिम चुनाव तक यह संख्या 15 से आगे नहीं बढ़ पायी.
1969 में स्थिति इतनी खराब रही कि कि बिहार में केवल चार महिला विधायक हुईं. छठी विधानसभा में स्थिति थोड़ी सुधरी और यह संख्या 13 तक पहुंची. यही संख्या सातवीं, आठवीं एवं 10वीं विधानसभा में भी रही. नौवीं विधानसभा में यह संख्या 15 हुई थी. 11वीं में घट कर 12 और 12वीं में फिर से 15 हुई. फरवरी 2005 में हुए 13वें विधानसभा चुनाव के नतीजे ने महिला के खाते में केवल तीन अंक डाले, लेकिन आठ माह बाद, अक्तूबर में हुए चुनाव में इसने 25 के अंक पर छलांग लगायी. 2010 के चुनाव में यह बढ़त बरकार रही और 34 अंक पर जा पहुंचा.
पिछड़ों की गोलबंदी में वोट बढ़े, सीटें नहीं
1990 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं के मतदान में आठ फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. 1995 इसमें और इजाफा हुआ. इसे मंडल-राजनीति में पिछड़ों की गोलबंदी का प्रभाव माना गया, लेकिन इससे महिलाओं के विधानसभा में प्रतिनिधित्व की दर नहीं बढ़ी. इसका लाभ पिछड़े वर्ग के पुरुष नेताओं को भले हुआ, महिलाओं को नहीं. विधानसभा में महिलाओं की संख्या में 1985 के मुकाबले 1990 में दो और 1995 में तीन की कमी आयी. 10 सालों में एक भी मुसलिस महिला विधायक नहीं बनी और पिछड़ी जाति की महिला विधायकों की संख्या भी दो-तीन के बीच अटकी रही. 58 सालों के संसदीय इतिहास में केवल आठ मुसलिम महिलाएं विधायक बनीं हैं. अनुसूचित जाति से विधायक बनने वाली महिलाओं की अब तक की संख्या 35 है, जबकि अनुसूचित जनजाति से केवल ग्यारह.
मताधिकार देने में भी हुआ विलंब
महिलाओं को मताधिकार देने में भी बिहार पीछे रहा. बिहार लेजिस्लेटिव काउंसिल ने करीब आठ साल के संघर्ष के बाद 1929 में यह अधिकार दिया, जबकि बंगाल में 1925, बंबई व संयुक्त प्रांत में 1923, अमस में 1924 और बंगाल में 1925 ही महिलाओं को यह अधिकार मिल चुका था.
राबड़ी देवी : पहली महिला सीएम
हां, एक बात हुई कि बिहार में राबड़ी देवी के रूप में महिला को मुख्यमंत्री बनने का अवसर (1997 से 2005 तक तीन बार) मिला, लेकिन इसकी परिस्थिति सामान्य नहीं थी, जैसी कि देश में अन्य 13 महिलाओं के मुख्यमंत्री बनने की रही.

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