नारे और जुमले चुनाव के ऐसे पहलू हैं, जिनमें राजनीतिक दलों की सोच और काल-परिस्थिति के अक्स पूरी शिद्दत से उतारे जाते हैं. इसे चूंकि हर बार चुनावी समीकरण और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं. इसलिए चुनावी नारे और जुमले भी बदल जाते हैं. इन नारों में समस और समाज का मिजाज भी छिपा होता है. 1977 में ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ के नारे ने जहां केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को उखाड़ फेंका, वहीं 1980 के चुनाव में ‘आधी रोटी खायेंगे, इंदिरा को जितायेंगे’ के नारे ने सत्ता में उसकी वापसी का रास्ता खोला. चुनावी नारों ने जनता को कुछ दिया हो या नहीं, दलों को अपने पक्ष में हवा बनाने में खूब मदद की है. इसलिए हर चुनाव में राजनीतिक पार्टियों का पहला जोर नारों पर होता है. इसमें अपनी उपलब्धियों की चर्चा, भावी कार्यक्रमों और नीतियों की घोषणा तथा विपक्ष पर हमले भी होते है.
Advertisement
नारों ने सत्ता दिलायी, छीनी भी
नारे और जुमले चुनाव के ऐसे पहलू हैं, जिनमें राजनीतिक दलों की सोच और काल-परिस्थिति के अक्स पूरी शिद्दत से उतारे जाते हैं. इसे चूंकि हर बार चुनावी समीकरण और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं. इसलिए चुनावी नारे और जुमले भी बदल जाते हैं. इन नारों में समस और समाज का मिजाज भी छिपा होता है. […]
1971 में इंदिरा गांधी के नारे ‘गरीबी हटाओ’ ने देश भर के गरीबों को पहली बार राजनीतिक सोच की मुख्य धारा से जोड़ा. तब ऐसा करना राजनीतिक परिस्थितियों की दृष्टि से इंदिरा गांधी की विवशता थी. तब रोटी, कपड़ा और मकान जैसे सवालों के साथ दूसरे राजनीतिक दलों तो चुनौती दे ही रहे थे, वर्चस्व के सवाल पर कांग्रेस की आंतरिक खींचतान भी कम नहीं थी.
राजनीतिक विेषकों ने इसे इंदिरा गांधी की लेफ्ट ओरिएंटेड पॉलिसी कहा. हालांकि जल्द ही इस नारे का आकर्षण खत्म हो गया और लोगों का इससे मोहभंग हुआ. परिणाम हुआ कि कांग्रेस पर ‘गरीबी नहीं, गरीब हटाओ’ की तोहमत भरी जुमलेबाजी हुई. यही हश्र 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नारे ‘काले धन वापस लायेंगे’ और ‘सब का साथ, सब का विकास’ का हुआ या होता दिख रहा है. चुनाव के दौरान इन नारों ने लोगों पर खूब असर डाला, मगर चुनाव के बाद काले धन की वापसी के सवाल पर जब केंद्र सरकार घिर गयी, तब भाजपा ने ही यह कह कर इसकी हवा निकाल दी कि यह चुनावी जुमला था. भूमि अधिग्रहण बिल को संसद में पारित न करा पाने की स्थिति में तीन-तीन बार अध्यादेश जारी कर इसे प्रभावी बनाने की भाजपा नीत सरकार की कार्रवाई ने ‘सब का साथ, सब का विकास’ के नारे पर संदेह पैदा किया. अब तो इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ की तर्ज पर इस नारे पर भी ‘सब का साथ, खास का विकास’ की तोहमत भरी जुमलेबाजी की जाने लगी है.
एक नारा और भी बेमौत मरता दिख रहा है. वह है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’. व्यापमं घोटाले और ललित मोदी प्रकरण में इस नारे की चमक धुलती नजर आ रही है. इन सबके बावजूद चुनाव और नारों का रिश्ता कमजोर नहीं हुआ. दरअसल चुनावी नारों का अपना समाजशास्त्रीय और यथार्थवादी पक्ष भी है. इनका सामाजिक मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव होता है. यह चुनाव अभियान और कार्यकर्ताओं में जोश पैदा करता है. इसलिए इसमें आक्र ामकता का समावेश करने के भरपूर प्रयास होते रहे हैं. इस प्रयास में कई बार इस आक्रमकता ने राजनीतिक मर्यादा और सामाजिक सौहार्द पर सीधा प्रहार किया है. इसके प्रभाव भी नकारात्मक हुए हैं, लेकिन चुनावी जुनून में इसकी परवाह तब तक नहीं की गयी, जब तक कि राजनीतिक दलों को इससे नुकसान नहीं पहुंचा. बहरहाल, जोशीले नारे गढ़ने में वाम दलों को महारत हासिल रही है.
इनके नारों की आक्र ामकता को दूसरे दलों ने भी स्वीकारा और उन्होंने भी इसी तर्ज को अपनाया. जब देश आजाद हुआ और केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी, तब के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को केंद्र में रख कर वाम पंथियों ने नारा गढ़ा कि ‘देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है’. इस नारे से समाज में गोलबंदी का राजनीतिक अभियान चला. केंद्र की सत्ता हासिल करने के लिए चुनावी नारा भी गढ़ा गया. वह था ‘लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’. 90 के दशक में भाजपा ने इसी तर्ज पर चुनावी नारा बुलंद किया था, ‘अटल- आडवाणी-कमल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’. 60 के दशक में कांग्रेस के खिलाफ जनसंघ पूरी मजबूती से चुनाव मैदान में उतरा था. उसका चुनाव चिह्न् दीपक था और कांग्रेस का जोड़ा बैल. तब जनसंघ ने नारा दिया था, ‘जली झोंपड़ी-भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल’. कांग्रेस ने इसके जवाब में नारा लगाया, ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं’. ये दोनों नारे बाद के सालों में भी लोगों के जेहन में गूंजते रहे. जनसंघ का एक और नारा नारा खूब लोकिप्रय हुआ था, ‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर में दीपक, जनसंघ की निशानी’. आपातकाल जनसंघ का नारा आया, ‘अटल बिहारी बोला, इंदिरा का शासन डोला’. कहते हैं कि इंदिरा जी की राय बरेली से हार में इस नारे का भी योगदान था.
भारतीय चुनावी राजनीति में समाजवादियों ने भी अपनी पॉलिटिकल आयडियोलॉजी को आम जन तक पहुंचाने के लिए नारों का सहारा लिया. इनमें सन सत्तर के दशक में डॉ राम मनोहर लोहिया का यह नारा ‘सोशिलस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ सबसे ज्यादा प्रभावी माना गया. इस ने समाज के पिछड़े तबके के लोगों को गोलबंद करने में बड़ी भूमिका निभायी. यह लोहिया जी के राजनीतिक दर्शन की बुनियाद थी.
आपातकाल के बाद जिन नेताओं ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ा, उनमें इंदिरा मंत्रिमंडल के कृषि एवं सिंचाई मंत्री जगजीवन राम भी थे. तब बिहार में उनके समर्थकों का यह नारा भी खूब गूंजा था,
‘जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जायेगी इंदिरा गांधी
आकाश से कहें नेहरू पुकार, मत कर बेटी अत्याचार.’
आपातकाल के बाद, 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ का नारा दिया. इस नारे को आपातकाल में जनता को हुई तकलीफों का समर्थन भी मिला. लिहाजा इस नारे को बड़ी आसानी से लोगों ने स्वीकार कर लिया. उन दिनों बिहार में एक और नारा गांव-शहर में गूंज रहा था. वह था ‘जमीन गयी चकबंदी में, मरद गया नसबंदी में’. यह संजय गांधी के जबरिया नसबंदी पर तीखी जन प्रतिक्रि या थी.
बहरहाल, जनता पार्टी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और 1980 में मध्याविध चुनाव हुआ. इस सरकार के ढ़ाई साल के कार्यकाल में जनता को हुई परेशानियों को कांग्रेस ने मुद्दा बनाया, मगर नकारात्मक की जगह सकारात्मक था, ‘आधी रोटर खायेंगे, इंदिरा को जितायेंगे’. इस नारे ने देश को विकल्प दिया गया. इस सकारात्मक नारे ने सत्ता में इंदिरा जी की वापसी करायी. कांग्रेस को 351 सीटें मिलीं. इसी चुनाव से स्थिर सरकार चुनावी मुद्दा बना. जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल पूरा न कर पाने को आधार बना कर कांग्रेस ने एक और सकारात्मक नारा दिया था, जो आज भी देश-राज्यों के चुनावों में बड़ा मुद्दा बन रहा है. यह नारा था, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’.
इससे पहले, इंदिरा गांधी जब रायबरेली का चुनाव हाने के बाद चिकमंगलूर से उपचुनाव लड़ीं, तब कांग्रेस ने यह नारा दिया था, ‘एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर, भाई चिकमंगलूर’. इस चुनाव में उन्हें जीत मिली थी.
1984 में देश की राजनीतिक परिस्थिति फिर बदली. इंदिरा जी की हत्या हो गयी. कांग्रेस ने उससे उपजी सहानुभूति को बटोरने के लिए पूरे जोश से नारा लगाया ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा जी का नाम रहेगा’. इस नारे ने कांग्रेस को भारी जीत दिलायी. 1984-85 में हुए आठवें लोकसभा चुनाव में इस नारे के साथ-साथ राजीव गांधी के समर्थन में गढ़े गये नारे ‘उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं’ ने कांग्रेस को भरपूर ताकत दी और 409 सीटों पर इसे कामयाबी मिली. यह कांग्रेस का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कहा गया. राष्ट्रीय विपक्षी पर्टियों का ऐसा सफाया हुआ कि लोकसभा में प्रतिपक्ष मुख्य विपक्षी पार्टी तेलुगुदेशम पार्टी बनी. उसे 30 सीटें मिलीं थीं, लेकिन बोफोर्स कांड और पंजाब में आतंकवाद जैसे घरेलू मुद्दों ने राजीव गांधी को अलोकिप्रय बना दिया. लिहाजा 1989 के चुनाव में विपक्ष के पास कई जोशी और धारदार नारे थे. इनमें विश्वनाथ प्रसाद प्रताप सिंह लिए लगाया गया नारा ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement