-कन्हैया झा, नयी दिल्ली-
पर्यावरण के बारे में हमारी चिंता का दायरा गाहे-बेगाहे अखबारों में छपनेवाली खबरों और रपटों से आगे नहीं जाता. लेकिन, हमारी पृथ्वी को बचाने के लिए ऐसे कई योद्धा सक्रिय हैं, जो पृथ्वी पर जीवन को आम आदमी के लिए मुफीद और स्वास्थ्यकर बनाये रखने की कोशिश में किसी मिशन की तरह लगे हुए हैं. ऐसा ही एक नाम है वीरभद्रन रामनाथन का. पर्यावरण को संरक्षित रखने के क्षेत्र में अहम योगदान देने के लिए रामनाथन को इस साल का यूएनइपी का ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ’ पुरस्कार दिया गया है. कौन हैं वीरभद्रन रामनाथन, पर्यावरण के क्षेत्र में क्या है उनका योगदान और क्या है चैंपियन ऑफ द अर्थ अवॉर्ड, बता रहा है आज का नॉलेज..
वीरभद्रन रामनाथन अमेरिका के सेन डिएगो में स्क्रिप्स इंस्टीटय़ूशन ऑफ ओशनोग्राफी में जलवायु और वायुमंडलीय विज्ञान के एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं. ब्लैक कार्बन के उत्सजर्न को कम करने और पर्यावरण को अन्य हानिकारक व प्रदूषित तत्वों से होनेवाले नुकसान से बचाने में इनका अहम योगदान रहा है. इन प्रदूषित तत्वों की वजह से क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर जलवायु पर व्यापक दुष्प्रभाव की आशंका जतायी गयी थी. दुनियाभर में करोड़ों गरीब ग्रामीणों की स्वास्थ्य सुविधा के स्तर को सुधारने और फसलों को नुकसान से बचाने में योगदान देनेवाले रामनाथन को वर्ष 2013 का ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ’ पुरस्कार दिया गया है. इसे संयुक्त राष्ट्र की ओर से दिया जानेवाला सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार माना जाता है.
यूएनइपी का उत्कृष्ट पर्यावरण पुरस्कार
‘चैंपियन ऑफ द अर्थ’ पुरस्कार वार्षिक रूप से पर्यावरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देनेवाले किसी सरकारी राजनेता, सिविल सोसायटी और निजी क्षेत्र के ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है, जिसने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया हो. यूनाइटेड नेशंस एनवायरन्मेंट प्रोग्राम (यूएनइपी) की ओर से इसका आयोजन किया जाता है. साइंस और इनोवेशन की श्रेणी में नामित किये गये रामनाथन को न्यूयॉर्क की अमेरिकन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में आयोजित एक विशेष समारोह में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
पुरस्कार ग्रहण करते समय रामनाथन ने कहा, ‘यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलने से मैं खुद को बेहद गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं. मुङो इस बात की खुशी है कि मौजूदा समय की प्रमुख पर्यावरण चुनौतियों से संबंधित विज्ञान और शोध की दिशा में किये गये मेरे योगदान को समझा गया.’
एशिया में प्रदूषण पर व्यापक शोध
इतना ही नहीं, रामनाथन नयी दिल्ली में स्थित ‘द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्युट यूनिवर्सिटी में भी क्लाइमेट एंड पॉलिसी के यूनेस्को प्रोफेसर के तौर पर अपनी सेवाएं देते हैं. उनके नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय अनुसंधानकर्ताओं के एक दल ने पहली बार वर्ष 1997 में एशिया में व्यापक तौर पर बढ़ रहे वायु प्रदूषण- जिसे एटमोस्फेरिक ब्राउन क्लाउड (एबीसी) के नाम से जाना जाता है और उसके दुष्प्रभावों के बारे में का पता लगाया था. आगे चलकर रामनाथन और उनकी टीम ने ब्लैक कार्बन के अन्य प्रारूपों और कालिख समेत सल्फेट, ओजोन और शहरों, उद्योग-धंधों तथा कृषि कार्यो से पैदा होनेवाले प्रदूषित तत्वों के बढ़ते स्तर के दुष्प्रभावों के बारे में चिंता जतायी थी. खासकर खेती के कार्यो में पैदा होनेवाले धुएं से ‘ब्राउन क्लाउड’ के बारे में आगाह किया था, जो सूर्य की किरणों को सोख कर वायुमंडल को गरम करने में भूमिका निभाता है. बताया गया कि इस वजह से हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल सकते हैं. ब्राउन क्लाउड से दक्षिण एशियाई मानसून के क्षेत्रीय और व्यापक बारिश के प्रभावित होने और खेती की पैदावार में कमी आने की आशंका जाहिर की गयी थी.
प्रदूषण उत्सजर्न में कटौती के उपाय
रामनाथन के रिसर्च ने कुछ ऐसे उपाय सुझाये, जिनसे ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लूरोकार्बन्स (एचएफसीज) के उत्सजर्न में कटौती की जा सकती है. साथ ही, उन्होंने अन्य प्रदूषित पदार्थो, जिन्हें सामूहिक तौर पर शॉर्ट-लिव्ड क्लाइमेट पाल्युटेन्ट्स (एसएलसीपीज) के नाम से जाना जाता है, के उत्सजर्न को भी कम करने पर बल दिया. वे कार्बनडाइऑक्साइड के स्तर को अगले एक दशक में वर्तमान स्तर से आधे पर लाने के प्रबल पैरोकार हैं. रामनाथन की गिनती दुनिया के सर्वाधिक प्रख्यात वैज्ञानिकों में की जाती है. वैश्विक तापमान के प्रति जागरूकता फैलाने और इससे निबटने के लिए सामूहिक कार्रवाई करते हुए शॉर्ट-लिव्ड क्लाइमेट पाल्युटेन्ट्स (एसएलसीपीज) के उत्सजर्न को कम करने की दिशा में इन्होंने कई ठोस पहल किये हैं. इस मामले में उनके योगदान से दुनियाभर में नागरिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां हासिल हुई हैं. यह इन्हीं प्रयासों का नतीजा कहा जा सकता है कि पिछले महीने मॉस्को में आयोजित जी20 सम्मेलन में एसएलसीपीज को कम करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया गया है.
वैश्विक उपलब्धि
पिछले वर्ष तकरीबन 60 देशों और संगठनों ने क्लाइमेट एंड क्लीन एयर कोएलिशन (सीसीएसी) यानी जलवायु और स्वच्छ वायु गठबंधन के लिए हाथ मिलाया है, जिसका मकसद एसएलसीपीज को चरणबद्ध तरीके से कम करना है. रामनाथन इस गठबंधन के विज्ञान सलाहकार पैनल को अपनी सेवा देते हैं.
वर्ष 2011 में यूएनइपी के एक अध्ययन में ब्लैक कार्बन और मीथेन के उत्सजर्न को कम करने के 16 तरीके दर्शाये गये. यदि इन्हें लागू किया जाये, तो श्वसन संबंधी बीमारियों से होनेवाली सालाना 25 लाख लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है. साथ ही, वार्षिक तौर पर 32 मिलियन टन फसलों के नुकसान को बचाया जा सकता है.
इस रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया था कि इन उपायों के लागू किये जाने से औसत वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी की दर को अगले 30-40 वर्षो में कम किया जा सकता है. मालूम हो कि इस अध्ययन में रामनाथन ने वाइस-चेयर और सीनियर कंट्रीब्यूटर के तौर पर कार्य किया था. हालांकि, रामनाथन ने इस दिशा में वर्ष 1975 में ही एक बड़ी उपलब्धि हासिल की थी. उन्होंने सीएफसीज के रूप में जाने जानेवाले हेलोकार्बन्स वर्ग के प्रभावी सुपर ग्रीनहाउस की खोज की थी.
ग्रामीणों की चिंता
भारतीय घरों की रसोई में धुएं से निजात दिलाने के लिए ‘प्रोजेक्ट सूर्य’ पर इन्होंने काफी शोधकार्य किया है. दुनियाभर में ब्लैक कार्बन उत्सजर्न के तकरीबन 25 फीसदी हिस्से को विकासशील देशों में 500 मिलियन परिवारों द्वारा इस्तेमाल में लाये जा रहे खाना पकाने के पारंपरिक चूल्हों को जिम्मेदार माना गया है. तकरीबन 31 लाख समयपूर्व मौतें, खासकर महिलाओं और लड़कियों में- घरों में खाना पकानेवाले चूल्हों से निकलने वाले धुएं से होनेवाली बीमारियों से होती है. इस दृष्टिकोण से आनेवाले समय में ‘प्रोजेक्ट सूर्य’ मील का पत्थर साबित हो सकता है. भारत के ग्रामीण इलाकों में अब तक तकरीबन दो हजार घरों में स्वच्छ तकनीक आधारित खाना पकानेवाले चूल्हे स्थापित किये गये हैं. यह प्रोजेक्ट अब दूसरे चरण में है और शोधकर्ता इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं.
मानवरहित हवाई वाहन
हिमालय के ग्लेशियरों का अध्ययन करने के लिए रामनाथन की टीम ने मानवरहित हवाई वाहन (अनमैन्ड एरियल व्हीकल्स) को बनाने में अहम भूमिका निभायी. भारत में मानसून की बारिश के कम होने और इससे देश के प्रमुख फसल धान की खेती के प्रभावित होने के बारे में भी इनके प्रयोगों ने योगदान दिया. दक्षिण एशिया में ब्लैक कार्बन के बढ़ते स्तर को जानने के लिए यह उपयोगी साबित हुआ है. बीजिंग ओलिंपिक खेलों के आयोजन के समय वहां के पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को जानने के लिए भी इस वाहन का इस्तेमाल किया गया था.
(स्नेत: यूसी सेन डिएगो न्यूज सेंटर)
रामनाथन की शख्सीयत
तमिलनाडु के मदुरई में पैदा हुए रामनाथन महज 11 वर्ष की उम्र में ही अपने परिवार के साथ बेंगलुरु आ गये थे. यहां उनका नामांकन एक पूर्णत: अंगरेजी माध्यम स्कूल में कराया गया. रामनाथन को उस समय अंगरेजी बिल्कुल नहीं आती थी. उन्हें उन्हें केवल तमिल भाषा का ज्ञान था. इसलिए उन्हें शुरू में काफी दिक्कत पेश आयी. उन्होंने पढ़ाई का अपना अलग तरीका ईजाद किया और उसी के आधार पर वे आगे बढ़ते रहे. अन्नामलाई यूनिवर्सिटी से उन्होंने इंजीनियरिंग में बैचलर्स डिग्री और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से मास्टर्स डिग्री हासिल की. आगे की शिक्षा के लिए वे 1970 में अमेरिका चले गये और न्यूयॉर्क की स्टेट यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. पीएचडी शोधकार्य की शुरुआत करने से पहले उन्होंने ग्रहों के वातावरण पर शोध करने का फैसला लिया.
1970 में सीएफसीज के ग्रीनहाउस प्रभाव के उनके पहले शोधकार्य के लिए उन्हें विश्वस्तर पर पहचान मिली. इसके बाद से ग्लोबल वार्मिग पर उन्होंने लगातार काम किया है. उसके बाद बाद उनका फोकस जलवायु पर बादलों के विकिरण प्रभाव की ओर हो गया. इसके लिए ‘अर्थ रेडिएशन बजट एक्सपेरिमेंट’ का इस्तेमाल किया गया. इसके माध्यम से जलवायु को ग्रीनहाउस प्रभाव से बचाने के लिए उन्होंने कई उपाय सुझाये. वर्ष 1990 में, भारतीय समुद्री क्षेत्र में वायुमंडलीय भूरे बादलों (एटमॉस्फेरिक ब्राउन क्लाउड्स) के बढ़ते स्तर के बारे में पहली बार इन्होंने ही बताया था. रामनाथन ने जलवायु परिवर्तन का भारतीय कृषि पर होनेवाले असर के बारे में भी दिलचस्पी दिखायी है.कार्बनडाइऑक्साइड की वजह से वायुमंडलीय भूरे बादलों को बढ़ने से कैसे रोका जाए, इस बारे में भी उन्होंने कई उपाय सुझाये हैं. इन उपायों पर अमल करके देश में खेती की पैदावार को बढ़ाया जा सकता है. खतरनाक मानवीय जलवायु परिवर्तन से बचने के बारे में भी उन्होंने किताब लिखी है. पश्चिमी अंटार्कटिका की बर्फ की चादरों के पतले होने के बारे में उन्होंने कई अहम बिंदुओं को रेखांकित किया है. पिछले एक-दो दशकों में वायुमंडलीय विज्ञान पर उनके उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए वर्ष 1995 में, उन्हें रॉयल नीदरलैंड्स एकेडमी ऑॅफ साइंस ने ‘बाइज बैलट मेडल’ से सम्मानित किया था.
जलवायु परिवर्तन और उसके कारण व उपायों के संबंध में इनके आधुनिक और उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए 2002 में इन्हें यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस का सदस्य नियुक्त किया गया. 2008 में इन्हें रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंस का सदस्य नियुक्त किया गया.