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हाइपरलूप तकनीक : आधे घंटे में पूरा होगा 615 किमी का सफर, टय़ूब में हाइ-स्पीड ट्रेन!

भारत में भले ही भूतल परिवहन की रफ्तार अमूमन सौ किमी प्रति घंटा से ज्यादा नहीं बढ़ पा रही हो, लेकिन अमेरिका इसे हजार किमी प्रति घंटा से भी ज्यादा पहुंचाने की कोशिश में है.हाइपरलूप तकनीक के माध्यम से यात्रियों को ट्यूब में एक स्थान से दूसरे स्थान तक ध्वनि की रफ्तार से भेजा जायेगा. […]

भारत में भले ही भूतल परिवहन की रफ्तार अमूमन सौ किमी प्रति घंटा से ज्यादा नहीं बढ़ पा रही हो, लेकिन अमेरिका इसे हजार किमी प्रति घंटा से भी ज्यादा पहुंचाने की कोशिश में है.हाइपरलूप तकनीक के माध्यम से यात्रियों को ट्यूब में एक स्थान से दूसरे स्थान तक ध्वनि की रफ्तार से भेजा जायेगा. क्या है यह पूरी योजना, कैसे साकार किया जायेगा और क्या होंगी चुनौतियां आदि सहित इससे जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में बता रहा है नॉलेज..
कन्हैया झा
दिल्ली : अपने देश के किसी अन्य शहर तक जाने के लिए आप ज्यादातर यातायात के किन साधनों का इस्तेमाल करते हैं? कार, बस या फिर ट्रेन. देश में कुछ ही लोग हैं, जो दूसरे शहर तक जाने के लिए हवाई जहाज का इस्तेमाल कर पाते हैं.
देश के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए भूतल परिवहन के मौजूदा साधनों की औसत स्पीड कितनी है? ज्यादा से ज्यादा 100 किमी प्रति घंटे, और वह भी तब जब आप राजधानी या शताब्दी जैसी ट्रेन से कहीं जायें. ‘गतिमान एक्सप्रेस’ के नाम से नयी दिल्ली से आगरा के बीच जिस ‘सेमी-हाइ स्पीड ट्रेन’ चलाने की योजना है, उसकी भी अधिकतम स्पीड 160 किमी प्रति घंटा तक ही है. ऐसे में क्या आप इस खबर पर भरोसा कर पायेंगे कि अमेरिका में करीब 1,200 किमी प्रति घंटे की स्पीड से ट्रेन चलाने की योजना पर काम चल रहा है.
अभी बुलेट ट्रेन को पटरी पर सबसे तेज दौड़नेवाली ट्रेन के तौर पर माना जाता है, लेकिन जल्द ही इसकी जगह ‘हाइपरलूप’ का नाम होगा. अमेरिका में हाइपरलूप ट्रांसपोर्टेशन टेक्नोलोजीज की इस नयी परिवहन प्रणाली पर व्यापक शोध किया जा रहा है. यदि सब कुछ ठीक रहा तो अगले कुछ सालों में इस तकनीक पर आधारित ट्रेन अमेरिका में लॉस एंजिल्स से करीब 615 किमी दूर सैन फ्रांसिस्को तक पहुंचने में महज 30 से 35 मिनट का समय लेगी.
हालांकि, स्पेस एक्स के संस्थापक और टेस्ला मोटर्स के मुख्य कार्यकारी एलन मस्क के इस ड्रीम प्रोजेक्ट ‘हाइपरलूप’ को तैयार होने में कम से कम 10 साल लग सकते हैं. मस्क की इस परियोजना पर दुनियाभर के 100 से अधिक इंजीनियर काम कर रहे हैं.
30 डॉलर, 30 मिनट, 600 किमी
हाल ही में दुबई में आयोजित ‘मिडल इस्ट रेल कॉन्फ्रेंस’ के दौरान हाइपरलूप ट्रांसपोर्टेशन टेक्नोलॉजीज के सीइओ डर्क एलबॉर्न ने कहा कि यदि हम कुछ देशों को छोड़ दें, तो ज्यादातर देशों में रेल क्षेत्र में वास्तविक इनोवेशन बहुत कम हुआ है, जबकि इस क्षेत्र में इनोवेशन के व्यापक अवसर हैं.
इस कॉन्फ्रेंस में अनेक देशों से आये रेलवे के विशेषज्ञ मौजूद थे, जिन्हें पिछले कई सालों से रेल संचालन का व्यापक अनुभव था और उनके बीच डर्क एलबॉर्न की बातों को बड़े गौर से सुना गया. भविष्य की हाइपरलूप तकनीक के बारे में उन्होंने कहा कि ट्यूब के भीतर कम-से-कम हवा होगी, ताकि फ्रिक्शन (अवरोध) बेहद कम हो और उसके भीतर मूव करनेवाली कैप्सूल करीब 1,200 किमी प्रति घंटे की स्पीड तक ट्रैवल करने में सक्षम होगी.
इसकी एक बड़ी खासियत यह होगी कि इस पूरे सिस्टम को सोलर पैनलों के माध्यम से ऊर्जा मुहैया करायी जायेगी. उन्होंने कहा, ‘यदि महज आधे घंटे में 600 किमी की दूरी नापी जाने लगी, तो इंसान का जीवन कितना प्रभावित होगा और वह भी मात्र 30 डॉलर की टिकट पर. यदि हम इस लक्ष्य को हासिल कर पाये, तो वाकई में लोगों रहन-सहन के तरीके समेत आवागमन के तरीके को पूरी तरह से बदला जा सकता है.’
एक सदी से हो रहा विचार
इस तकनीक को विकसित करने के क्रम में स्पेस एक्स के एक होनहार इंजीनियर बेमब्रोगम भी जुड़े हैं, जो पूर्व में ड्रैगन एयरक्राफ्ट और फॉल्कर 1 रॉकेट के अपर स्टेज इंजन के डिजाइन को विकसित कर चुके हैं. बेमब्रोगम इस ओर बेहद आशावान हैं और उनका कहना है कि इस तकनीक को विकसित करना एकदम नया विचार नहीं है. पिछली एक सदी से इंजीनियर इस बारे में विचार कर रहे हैं कि एक ऐसी ट्रेन होनी चाहिए, जिसे ट्यूब के भीतर ज्यादा से ज्यादा हवा को हटाते हुए चलाया जा सके.
उल्लेखनीय है कि रॉकेट क्षेत्र के महारथी रह चुके रॉबर्ट गोडार्ड ने ‘वैक्यूम-ट्यूब ट्रांसपोर्टेशन’ के तौर पर बेसिक प्लान का प्रस्ताव वर्ष 1904 में ही रखा था. अमेरिका के तत्कालीन ट्रांसपोर्ट सेक्रेटरी ने वर्ष 1969 में ‘पॉपुलर साइंस’ में लिखा था कि सरकार ‘ट्यूब-वेहिकल सिस्टम’ के कॉन्सेप्ट पर अध्ययन कर रही है.
मुश्किल नहीं कार्यान्वयन
इंजीनियर संदीप सोवानी हाल ही में इस प्रोजेक्ट से जुड़े हैं. सोवानी का कहना है कि इस आइडिया को कार्यान्वित करना बहुत मुश्किल नहीं है. चूंकि हाइपरलूप कैप्सूल में पहियों का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा, इसलिए इस सिस्टम को लैविटेट कराने के लिए चुंबकीय फिल्ड जेनरेट किया जा सकता है.
यह तकनीक प्रमाणित हो चुकी है और शंघाई ट्रांसरैपिड के तौर पर चलायी जा रही मैगलेव प्रोजेक्ट इसका सबसे अच्छा प्रमाण है. उल्लेखनीय है कि चीन में शंघाई मैगलेव ट्रेन 500 किमी प्रति घंटे की स्पीड से ट्रैवल करने में सक्षम है.
हजार गुना कम वायु दाव
कंपनी ने इस योजना को साकार करने की जो कल्पना की है, उसके तहत हाइपरलूप ट्यूब में वायु दाब को बेहद कम किया जायेगा. हालांकि, यह ट्यूब बिलकुल निर्वात नहीं होगी, बल्कि धरती की सतह पर मौजूद प्राकृतिक वायुमंडलीय दाब की तुलना में करीब हजार गुना कम वायु उसमें होगी.
इतनी कम मात्र में वायु होने की दशा में ट्यूब के भीतर यात्रियों से युक्त कैप्सूल को सुपरसोनिक स्पीड तक पहुंचने में ऊर्जा की भी बहुत कम जरूरत होगी. ट्यूब के ऊपर लगाये जाने वाले सोलर पैनलों के माध्यम से इस सिस्टम की बैटरी चार्ज की जायेगी, जिससे इस पूरे सिस्टम को पर्याप्त ऊर्जा मुहैया करायी जायेगी. इसकी बड़ी खासियत यह भी होगी कि भविष्य में जीवाश्म ईंधनों की कमी की आशंका के बीच इसे सौर ऊर्जा से चलाना ऊर्जा क्षेत्र के लिए भी क्रांतिकारी साबित हो सकता है.
क्या है हाइपरलूप तकनीक
एक खास ट्यूब के भीतर हाइपरलूप को उच्च दाब और ताप सहने की क्षमतावाले मिश्रधातु इंकोनेल से बने बेहद पतले स्की पर स्थिर किया जाता है. इस स्की में बेहद सूक्ष्म छिद्रों के जरिये दबाव डालकर हवा भरी जाती है, जिससे कि यह एक एयर कुशन की तरह काम करने लगता है. स्की में लगे चुंबक और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक झटके से हाइपरलूप के पॉड को गति दी जाती है.
इस कैप्सूल में एक बार में छह से आठ व्यक्ति यात्र कर सकते हैं और इसे प्रत्येक 30 सेकेंड के अंतराल पर चलाया जा सकता है. कैप्सूल के आगे स्थित वायु ही इस कैप्सूल की एकमात्र अवरोधक है, जिसे दबाव के जरिये पीछे हटाया जायेगा. मस्क का कहना है कि आनेवाले समय में एक हजार किमी या उससे कम दूरी वाले शहरों के बीच तीव्र गति से परिवहन के लिए हाइपरलूप पूरी तरह व्यावहारिक समाधान हो सकता है.
कैसे साकार होगी परिकल्पना
‘लाइव साइंस’ के मुताबिक, स्पेस एक्स कंपनी ने सेंट्रल कैलिफोर्निया इलाके में आठ किमी लंबा परीक्षण ट्रैक निर्माण करने के लिए जमीन भी अधिग्रहित कर लिया है.
फिलहाल इसका जो डिजाइन तैयार किया गया है, उसके मुताबिक विशाल ट्यूब के अंदर हाइपरलूप पॉड्स (ट्रेन के छोटे डिब्बेनुमा संरचनाएं) इंकोनेल की बनी स्की जैसी (बर्फ पर फिसलने वाली पट्टियां) संरचनाओं पर लगे होंगे. इंकोनेल उच्च ताप और दाब पर भी स्की को सुरक्षित रखने में सक्षम होगा.
स्की में मौजूद छिद्रों के जरिये इनमें हवा भरी जायेगी, साथ ही इनमें शक्तिशाली चुंबक लगे होंगे. इलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रभाव के जरिये इन स्की को शुरु आती थ्रस्ट (इंजन जैसी आगे ले जाने वाली ताकत) दी जायेगी. कुछ अग्रणी इंजीनियर लैविटेशन तकनीक से आगे बढ़ते हुए इसे साकार करने में जुटे हैं.
यह सिस्टम अभी शुरुआती दौर में है और स्पेस एक्स इसके लिए इंजीनियरों की टीम गठित कर रही है. स्पेस एक्स की ओर से कहा गया है कि अगले कुछ महीनों में इसके डिजाइन के बारे में टेक्सास ए एंड एम यूनिवर्सिटी में विस्तार से चर्चा की जायेगी. कंपनी के इंजीनियरों की टीम द्वारा इस मकसद से बनाये गये डिजाइन को इवेलुएशन पैनल के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा, जिसमें संबंधित विशेषज्ञ शामिल होंगे.
इसके लिए कंपीटिशन भी आयोजित किया जायेगा, जिसमें दुनियाभर की संबंधित विशेषज्ञता वाली टीमों की ओर से इसके लिए डिजाइन मंगाये जा रहे हैं. मस्क का मानना है कि इस प्रोजेक्ट की लागत छह अरब डॉलर के करीब हो सकती है, जबकि अन्य कई विशेषज्ञों ने यह आशंका जतायी है कि इससे कहीं और अधिक लागत आ सकती है.
आंतरिक परिवहन में भी उपयोगी
स्पेस एक्स की ओर से हाल ही में जब इस संदर्भ में कई कंपनियों से इसके डिजाइन मंगाये गये, तो ‘सुप्रास्टूडियो’ की ओर से हाइपरलूप सिस्टम के विजन पर विस्तार से फोकस किया गया और यहां तक कहा गया कि बड़े महानगरों में मेट्रो ट्रेनों के स्थान पर भविष्य में इस इस तकनीक पर आधारित परिवहन सेवाएं मुहैया करायी जा सकती हैं.
इसके लिए फिलहाल अमेरिका के 50 शहरों को हाइपरलूप सिस्टम के माध्यम से परिवहन सेवा मुहैया कराने के संबंध में भी चर्चा की गयी. साथ ही यह भी उम्मीद जतायी गयी कि दुनियाभर के नये उभरते हुए महानगरों में इस तकनीक आधारित आंतरिक परिवहन के लिए ढांचा खड़ा करने में कम दिक्कत आयेगी.
चुनौतियां भी कम नहीं राह में
हालांकि, हाइपरलूप कॉन्सेप्ट को ज्यादा से ज्यादा व्यावहारिक बनाने के लिए दुनियाभर के विशेषज्ञों को इससे जोड़ा जा रहा है, लेकिन इसकी राह में अभी चुनौतियां भी कम नहीं हैं. सबसे बड़ा मामला सेफ्टी से ही जुड़ा हुआ है.
सुपरकंडक्टिंग मैगलेव ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम से जुड़े विशेषज्ञ और अमेरिकी भौतिक विज्ञानी जेम्स पॉवेल ने इसकी सुरक्षा के संबंध में हाल ही में चिंता जतायी है. पॉवेल ने ‘लाइव साइंस’ को दिये एक साक्षात्कार में कहा है कि जिस स्पीड से हाइपरलूप पॉड्स को चलाने की बात हो रही है, ऐसे में उसे (कर्व या स्लोप) मोड़ या ढलान पर नियंत्रित करना आसान नहीं होगा. इतना ही नहीं, किसी प्रकार के झटके या उछाल की स्थिति से बचाव के लिए इसके ट्रैक को सीधा और समतल बनाना होगा.
पॉवेल का कहना है कि जब आप करीब हजार किमी प्रति घंटे की स्पीड में होंगे, तो ऐसे में मुड़ना आसान नहीं होगा और आपको बेहद समतल दशा में रहना होगा. गुरुत्वाकर्षण बल से भी इसकी स्पीड को समायोजित करना होगा और एलीवेशंस में त्वरित बदलाव की स्थिति में यात्री खुद को पूरी तरह से समायोजित हो पायेंगे या नहीं, इसमें फिलहाल संदेह है.
इसके साथ ही ट्यूब में लॉ-प्रेशर वैक्यूम को निश्चित तौर पर बरकरार रखना होगा, अन्यथा पॉड के सभी यात्री आपस में टकरा सकते हैं. इतना हीं नहीं, किसी भी जगह यदि किसी कारण से हलकी क्षति हुई या आतंकियों की ओर से कहीं हलका सा भी नुकसान पहुंचाया गया, तो अंजाम बेहद भयावह हो सकते हैं.
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चीन की मैगलेव ट्रेन
मैगलेव यानी मैग्निक लेविटेशन वाली ट्रेन खास सिंगल चुंबकीय ट्रैक पर पटरी से कुछ इंच ऊपर हवा में उठ कर कुछ उड़ते हुए भागती है. इस ट्रेन को न तो पहिये की जरूरत होती है, न एक्सल और न ही बियरिंग की. मैगलेव ट्रांसपोर्ट सिस्टम दो प्रकार की होती है- इलैक्ट्रो मैग्नेटिक सस्पेंशन यानी इएमएस और इलेक्ट्रो डाइनेमिक सस्पेंशन यानी इडीएस.
इएमएस प्रणाली में रेलगाड़ी पटरी से ऊपर हवा में रहती है और उसके नीचे लगे विद्युत चुंबक यानी इलैक्ट्रो मैगनेट नीचे पटरी की ओर रहते हैं. इस प्रणाली में फीडबैक लूप का उपयोग करके विद्युत-चुंबकों से बने चुंबकीय क्षेत्र को घटाया या बढ़ाया जा सकता है. इसलिए इसमें स्थायी रूप से काफी चुंबक लगे रहते हैं. इस प्रणाली की ट्रेन 500 किमी प्रति घंटे की स्पीड से दौड़ सकती हैं.
इडीएस प्रणाली में रेल की पटरी और ट्रेन दोनों ही सुपर कंडक्टिंग चुंबकों से चुंबकीय क्षेत्र बनाते हैं. इन दोनों चुंबकीय क्षेत्रों के रिपल्सिव यानी प्रतिकर्षी बल के कारण ट्रेन हवा में उठ जाती है और चुंबकीय बल से ही ट्रेन भी चलती है. फिलहाल चीन के शंघाई शहर में यह ट्रेन चलायी जा रही है.

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