माना गया है कि बच्चों को दिन में आधा घंटा फु र्तीला कसरत करवाया जाये, तो इस एडीएचडी की समस्या की तीव्रता घट सकती है. योग व प्राणायाम अत्यंत लाभदायक हो सकते हैं, लेकिन सबसे जरूरी बात यह है कि पैरेंट्स सबसे पहले इस बात को कबूल करें कि उनकी संतान को प्रॉब्लम है. स्वीकार लेंगे, तो समाधान की राह आसान होगी.
आनुवंशिक विकार है एडीएचडी
यह कोई बीमारी नहीं, बल्कि एक तरह का विकार है. वैसे विश्वभर के वैज्ञानिक इसके ठोस मूल कारणों का पता नहीं लगा पाये हैं, लेकिन अब तक हुए शोध के अनुसार ऐसा माना जाता है कि गर्भ में बच्चे के विकास के दौरान दिमाग के अमूक केमिकल्स में असंतुलन या जन्म के समय दिमाग के किसी भाग में चोट के कारण ‘एडीएचडी’ का विकार हो सकता है. मुख्य रूप से यह आनुवंशिक विकार है, जो ज्यादातर पुरु ष वंश प्रणाली में पाया जाता है. यानी कुटुंब में पिता-चाचा-दादा में शायद लक्षण थे और बेटे में भी आ सकते हैं. आश्चर्य की बात है कि आजकल लड़कियों में भी इसकी संख्या तेजी से बढ़ने लगी है. एक शोध के अनुसार गर्भावस्था के दौरान मां अगर किसी व्यसन का सेवन करे या मानिसक रूप से किसी तनाव-दबाव से गुजरती हो, तो पैदा होनेवाली संतान ‘एडीएचडी’ से ग्रसित हो सकती हैं.
इस विकार के अनेक लक्षण हैं, लेकिन अकसर पाया गया है कि इस विकार के साथ-साथ बच्चे को लर्निग डिफिकल्टी भी हो सकती है. ‘तारे जमीन पर’ फिल्म में डिस्लेक्सिया नामक समस्या पर रोशनी डाली गयी थी. उसी तर्ज पर ‘डिसग्रेफिया’ यानी लिखने में परेशानी, डिसकेल्केलिया यानी गणति के अंकों को लेकर भी परेशानी हो सकती है. कुछ बच्चे ऑटिज्म (माइ नेम इज खान फिल्म में शाहरु ख खान का किरदार) से भी ग्रसित हो सकते हैं. ऐसे केस में रेमिडियल थेरेपी और दवाइयों की भूमिका अहम हो जाती है.
अल्टरनेट थेरेपी है कारगर इलाज
अब तक हुई शोध में यह बात सामने आयी है कि ‘अल्टरनेट थेरेपी’ इसके इलाज में कारगर होती है. वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि सभी बच्चों पर एक ही तरह का इलाज नहीं लागू होता. समस्या के अनुरूप समाधान अपनाया जाता है. इसे ‘कस्टमाइज्ड ट्रीटमेंट’ कहा जाता है. एक और बात पर भी शोधकर्ताओं की सहमति बनी है. वह यह है एडीएचडी के इलाज में होमियोपैथी दवाइयों की भूमिका.
कई केस सामने आये हैं जिसमें अंगरेजी दवाइयों के लगातार सेवन से बच्चों की मानिसक स्फूर्ति पर विपरीत परिणाम देखा गया है. स्ट्रांग दवाइयों से बच्चे की हाइपरएक्टिविटी कम हो सकती है. साथ ही लंबे समय तक इसका प्रयोग उसे सुस्त बना सकता है. नींद व सुस्ती ज्यादा आ सकती है. इसलिए बिना किसी साइड इफेक्ट्सवाली होमियोपैथी प्रणाली को बच्चों के लिए उचित माना गया है. इसके साथ-साथ बच्चे की जरूरत के मुताबिक ‘रेमेडियल थेरेपी’ दी जा सकती है. ‘बिहेवियर थेरेपी’, ‘ओक्युपेश्नल थेरेपी’, ‘स्पीच थेरेपी’ व योग थेरेपी भी उपयोगी हो सकती है.
माना गया है कि बच्चों को दिन में आधा घंटा फु र्तीला कसरत करवाया जाये, तो इस समस्या की तीव्रता घट सकती है. योग व प्राणायाम अत्यंत लाभदायक हो सकते हैं, लेकिन सबसे जरूरी बात यह है कि पैरेंट्स सबसे पहले इस बात को कबूल करें कि उनकी संतान को प्रॉब्लम है. स्वीकार लेंगे, तो समाधान की राह आसान होगी. समय पर बच्चे का इलाज अन्य कई समस्याओं को नासूर बनने से रोक सकता है.
टीचर से लगातार संवाद बनाये रखें
धीरज से काम लें. आप भी चीखने-चिल्लाने, डांटने-फटकारने लगेंगे, तो उन पर कोई असर नहीं होगा. उलटा आपकी तबीयत पर असर हो जायेगा. यदि वह शैतानी करे, तो धीमी आवाज, लेकिन स्थिरता व संयम के साथ उसे उसकी हरकत के बारे में समझाएं. यदि गलती करे, तो उसके दुष्परिणाम भी बताएं. दूसरों के सामने बच्चों को न डांटें. छोटी-छोटी अच्छी बातों को सार्वजनिक रूप से, सबकी मौजूदगी में सराहना चाहिए. बच्चे की टीचर से लगातार संवाद बनाये रखिए. समय-समय पर जा कर मिलिए. प्रोग्रेस रिपोर्ट पर ध्यान दीजिए. दिन में थोड़ा ही सही, लेकिन पूर्ण रूप से उसके साथ समय बिताइए. उसका आत्म-विश्वास बढ़ाइए. इलाज पर ध्यान दीजिए.
सजा नहीं, जरूरत है बातचीत की
एडीएचडी के केसेज बढ़ने लगे हैं, लेकिन कोई ठोस आंकड़े हमारे देश में सामने अभी तक नहीं दर्ज किये गये हैं. यूरोप व अमेरिका में अनेक सरकारी तथा गैर सरकारी संगठन बने हैं, जो ऐसे बच्चों, किशोरों व उनके अभिभावकों के मार्ग-दर्शन के लिए स्थापित हैं.
डब्ल्यूएचओ के अनुसार लड़िकयों की तुलना में ‘हाइपर एक्टिविटी’ की समस्या लड़कों में ज्यादा है, वहीं एकाग्रता में कमी की शिकायत लड़कियों में अधिक होती है. औसतन दस में से एक बच्चा इस विकार से ग्रस्त होता है. उम्र के साथ लक्षणों में परिवर्तन देखा जाता है. अकसर यह समस्या बच्चों के पैरेंट्स से पहले स्कूल में टीचर की नजर में पहले आ जाती है. कारण है कि एडीएचडी के बच्चे का व्यवहार अन्य बच्चों की तुलना में अलग दिखायी पड़ता है.
ऐसे बच्चों को सजा या फटकार देने की बजाय उनके पैरेंट्स से बातचीत जरूरी होती है. चिकित्सकीय सलाह व इलाज महत्वपूर्ण है. अब तक के अनुभव के आधार पर हमने देखा है कि अकसर ऐसे बच्चों को ‘लर्निग डिफिकल्टी’ यानी कि पढ़ने-लिखने की समस्या होती है. कुछ बच्चों को डिस्लेक्सिया (पढ़ने में परेशानी ), डिस्ग्राफिया(लिखने में दिक्कत), डिस्केलकेलिया (गणित समझने में परेशानी) अथवा स्लो लनर्स यानी पढ़ाई में धीमे हो सकते है. यह जरूरी नहीं कि सभी बच्चों में ऐसी समस्याएं हों, लेकिन आंशिक लक्षण हो सकते है. समय पर एसेस्मेंट और थेरेपी लाभदायक हो सकती है.