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डॉलर की कहानी

भारतीय रुपये का मूल्य आजादी मिलने के समय यानी 1947 में अमेरिकी डॉलर के लगभग बराबर ही था, जबकि आज एक डॉलर की कीमत 66 रुपये के करीब है. साफ है कि भारतीय रुपये में पिछले 66 वर्षो में डॉलर की तुलना में करीब 66 गुना गिरावट आयी है. रुपये में गिरावट की खबरों के […]

भारतीय रुपये का मूल्य आजादी मिलने के समय यानी 1947 में अमेरिकी डॉलर के लगभग बराबर ही था, जबकि आज एक डॉलर की कीमत 66 रुपये के करीब है. साफ है कि भारतीय रुपये में पिछले 66 वर्षो में डॉलर की तुलना में करीब 66 गुना गिरावट आयी है. रुपये में गिरावट की खबरों के बीच अमेरिकी डॉलर की उत्पत्ति, विकास और इसके वैश्विक मुद्रा बनने की कहानी बता रहा है आज का नॉलेज.

इन देशों की राष्ट्रीय मुद्रा है डॉलर

अमेरिका के अलावा भी कई देशों की मुद्रा का नाम डॉलर है. इनमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, हांगकांग, नामीबिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, ताइवान, जिंबाब्वे, ब्रुनेई जैसे देश शामिल हैं.

विनिमय दर का निर्धारण

किसी मुद्रा का मूल्य दूसरे देश में उसकी कीमत पर निर्भर करता है. यह मांग और आपूर्ति पर निर्भर है. किसी भी उत्पाद का बाजार में दाम उसकी आपूर्ति और मांग पर निर्भर करता है. मुद्रा के मामले में भी यही होता है. यदि देश में मांग से ज्यादा डॉलर की आपूर्ति हो तो रुपया मजबूत रहेगा. लेकिन फिलहाल स्थिति ठीक इसके उलट है.

अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर

विदेशी मुद्रा बाजार में ज्यादातर लेन-देन बैंकों के मार्फत होता है. बैंक अपना डॉलर स्टॉक विदेशी बैंकों में या अपने ही बैंक के बाहरी अकाउंट में रखते हैं. जब कोई बैंक के पास खरीदी या बिक्री के लिए संपर्क करता है, तो बैंक उसके लिए एक प्राइस कोट करते हैं. इसके आधार पर यह काम आगे बढ़ता है. बाजार की स्थिति से लेकर तमाम माहौल इसी आधार पर तय होता है.

रुपये में स्थिरता की राह

भले ही हमारे आयात में अमेरिका का हिस्सा बहुत ज्यादा नहीं है, फिर भी डॉलर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेन-देन में इस्तेमाल होनेवाली प्रमुख मुद्रा है. इसके साथ ही, भारत का अधिकतर व्यापारिक लेन-देन डॉलर में ही होता है. इस लिहाज से हमारे लिए डॉलर काफी महत्वपूर्ण है.

लेकिन हमारी अपनी मुद्रा रुपये में स्थिरता आये, इसके लिए जरूरी है कि डॉलर की आपूर्ति में वृद्धि हो. ऐसा तभी संभव है जब विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा बढ़े और हमारी निर्यात क्षमता में वृद्धि हो. इन सबके लिए जरूरी है राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण, समय पर योजनाओं का क्रियान्वयन, स्पष्ट नीति, समय पर योजनाओ को मंजूरी और ढांचागत सुविधाओं का विस्तार.

प्रवीण कुमार

अमेरिकी डॉलर संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय मुद्रा है. एक डॉलर में सौ सेंट होते हैं, जैसे अपने यहां एक रुपये में 100 पैसे. पचास सेंट के सिक्के को हाफ डॉलर और पच्चीस सेंट के सिक्के को क्वार्टर डॉलर कहा जाता है. दस सेंट का सिक्का डाइम कहलाता है और पांच सेंट के सिक्के को निकल कहते हैं. एक सेंट को ‘पेनी’ कहा जाता है. अमेरिकी डॉलर के नोट एक, पांच, दस, बीस, पचास और सौ डॉलर के रूप में मिलते हैं. डॉलर पर निगरानी का कार्य अमेरिका का केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व करता है. वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था की जरूरत के हिसाब से मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाता है और उसे नियंत्रित करता है.

डॉलर की उत्पत्ति

डॉलर शब्द की उत्पत्ति फ्लेमिश अथवा लो जर्मन शब्द ‘डैलर’ अथवा ‘टैलर’ से हुई है. मौजूदा चेक गणराज्य के जाचिमोव को पहले जोएचीमस्टल कहा जाता था और वहां के चांदी खदानों से बनाये गये सिक्के को जर्मन भाषा में जोएचीमस्टैलर तथा संक्षेप में ‘टैलर’ कहा जाता था. इसके बाद इस शब्द का इस्तेमाल अमेरिका स्थित स्पेन के उपनिवेशों अथवा क्षेत्रों में इस्तेमाल होनेवाले सिक्कों के लिए किया जाने लगा. बाद में, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश उपनिवेशों में भी इसका प्रचलन हो गया और अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अमेरिका ने डॉलर को अपनी मुद्रा के तौर पर अपना लिया.

अमेरिकी क्रांति से पूर्व ब्रिटिश मुद्रा की पर्याप्त मात्र में आपूर्ति नहीं होने की वजह से उत्तरी अमेरिका स्थित ब्रिटिश उपनिवेशों में व्यापारिक लेन-देन में कई तरह की चीजों का इस्तेमाल किया जाता था. उपनिवेशों में भी कई तरह की विदेशी मुद्राओं का उपयोग लेन-देन में किया जाता था. फिर विभिन्न उपनिवेशों ने समय-समय पर अलग-अलग मुद्राओं को जारी किया.

अठारहवीं शताब्दी में डॉलर को उस सिक्के के तौर पर समझा जाता था, जिसे स्पेन द्वारा ढाला गया है और इसे स्पेनी मिल्ड डॉलर के नाम से पुकारा जाता था. ये सिक्के उस समय अमेरिका में मानक मुद्रा के रूप में व्यापक उपयोग में थे. 1792 में अमेरिका के वित्त मंत्री अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने उस समय प्रचलित स्पेनी मिल्ड डॉलर के सिक्कों में चांदी की मात्र वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित कर राष्ट्रीय कांग्रेस के सामने एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया. इसके परिणामस्वरूप, डॉलर परिभाषित किया गया.

डॉलर चिहृन

डॉलर को से दर्शाया जाता है. लेकिन डॉलर चिह्न् की शुरुआत को लेकर कई तरह के मत प्रचलित हैं, जिनमें से एक है कि इसकी उत्पत्ति स्पेन साम्राज्य की चांदी की मुद्रा ‘पीस ऑफ एट’ से हुई है. वहीं एक अन्य मत के अनुसार अमेरिकी डॉलर को दर्शाने के लिए अंगरेजी के ‘यूएस’ यानी यूनाइटेड स्टेट्स को जोड़ दिया गया, जिससे अमेरिकी मुद्रा को चिह्न्ति किया जा सके. रूसी मूल की अमेरिकी साहित्यकार और पूंजीवादी व्यवस्था की पुरजोर समर्थक अयन रैंड ने उपन्यास एटलस सर्जड में दावा किया है कि डॉलर चिह्न् केवल मुद्रा का प्रतीकभर नहीं है, बल्कि यह देश, मुक्त अर्थव्यवस्था और स्वतंत्र मस्तिष्क का भी प्रतिनिधित्व करता है.

ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के मुताबिक, पहले स्पेनिश-अमेरिकी किताबों में मुद्रा को दर्शाने के लिए पेसो (ढ21) लिखा जाता था और इसी से डॉलर के आधुनिक चिह्न् का आगमन हुआ. इसके चिह्न् () के इस्तेमाल की शुरुआत 1770 के दशक में स्पेनिश-अमेरिकियों से कारोबार करनेवाले ब्रिटिश-अमेरिकियों ने किया और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से यह छपाई में भी इस्तेमाल किया जाने लगा.

वैश्विक मुद्रा के तौर पर डॉलर

वर्ष 1944 से पहले दुनियाभर के देश अपनी मुद्रा की विनिमय दर ब्रिटेन की मुद्रा पाउंड स्टर्लिग के संदर्भ में तय करते थे. लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान व्यापक आर्थिक-सामाजिक नुकसान और दुनियाभर में फैले औपनिवेशिक साम्राज्य के लिए खतरे की घंटी बजने के बाद ब्रिटेन की हैसियत पहले जैसी नहीं रही. अब वैश्विक पटल पर अमेरिका का बोलबाला स्पष्ट तौर पर दिखाई और सुनाई पड़ने लगा था. इसलिए ‘बेट्रनवुड्स कॉन्फ्रेंस’ के बाद दुनियाभर में मुद्रा विनिमय दर का निर्धारण अमेरिकी मुद्रा डॉलर के संदर्भ में किया जाने लगा.

चूंकि डॉलर की कीमत सोने के संदर्भ में फिक्स होती थी, इसलिए डॉलर के एवज में निर्धारित मात्र में सोना हासिल किया जा सकता था. लेकिन स्मिथसोनियन समझौते के तहत वर्ष 1971 में ब्रेटनवुड्स समझौते में तय किये गये स्थापित फिक्स्ड विनिमय और सोने को मानक के तौर पर रखने से जुड़ी प्रणाली को खत्म कर दिया गया. इसके फलस्वरूप दुनियाभर के देशों के लिए अपनी मुद्रा को डॉलर के संदर्भ में निर्धारित करने की जरूरत नहीं रही. हालांकि, अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी और प्रमुख अर्थव्यवस्था है और अधिकांश अंतरराष्ट्रीय लेन-देन डॉलर में ही होता है. इसलिए आज भी अनाधिकारिक तौर ही सही अमेरिकी डॉलर वैश्विक मुद्रा के तौर पर स्थापित है.

येन के बाद यूरो की चुनौती

1980 के दशक में जापान की मुद्रा ‘येन’ के दमखम में बढ़ोतरी हुई और लगने लगा कि अमेरिकी डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती मिलनेवाली है, लेकिन 1990 के दशक की जापानी मंदी ने येन की हैसियत पर बट्टा लगा दिया. पिछले कुछ समय से यूरोपीय संघ की मुद्रा ‘यूरो’ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय लेन-देन में तेजी आयी है, जिसकी वजह से यूरो को डॉलर के विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा है.

लेकिन आज भी वैश्विक मुद्रा भंडार के तौर पर सबसे अधिक प्राथमिकता डॉलर को ही दी जाती है. वैश्विक मुद्रा भंडार में डॉलर की हिस्सेदारी करीब 70 प्रतिशत है और यूरो की लगभगत 27 प्रतिशत. कई देश तो इससे भी बढ़ चुके हैं. एक्वाडोर, अल सलवाडोर, पनामा जैसे देशों ने तो अपनी मुद्रा को खत्म करके अमेरिकी डॉलर को अपनी मुद्रा के तौर पर अपना लिया है.

क्यों आकर्षित करता है डॉलर

अमेरिकी मुद्रा को लेकर आकर्षण बेवजह नहीं है. इसके लिए कई कारक जिम्मेवार हैं, जिनमें पहला और सर्वप्रमुख कारण है डॉलर में स्थिरता का होना. दरअसल, अमेरिकी डॉलर का कभी भी अवमूल्यन नहीं किया गया है. साथ ही, इसके नोट को कभी अमान्य नहीं बताया गया है. फिर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भरोसा और डॉलर में कारोबार करने में सुविधा की वजह से भी लोग डॉलर रखना पसंद करते हैं.

डॉलर की चर्चा किताबों में

डॉलर शब्द का प्रचलन अमेरिकी क्रांति के बहुत पहले से था. सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के अंगरेजी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार विलियम शेक्सपियर के कई साहित्यों में डॉलर शब्द का उल्लेख मिलता है, जिनमें मैकबेथ, टेमपेस्ट प्रमुख हैं. डॉलर को कई दूसरे नामों से भी जाना जाता है जैसे बक, ग्रीनबैक. अमेरिकी गृहयुद्ध के दौरान जरूरी सामानों की खरीद-फरोख्त और वित्त मुहैया कराने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने डिमांड नोट डॉलर जारी किये थे.

मजबूत रुपये से कमजोर रुपये तक

रुपये की मौजूदा गिरावट को हाल के इतिहास के संदर्भ में देखने की जरूरत है. आज जो रुपया डॉलर के मुकाबले औंधे मुंह गिरा दिख रहा है, वही रुपया, कुछ समय पहले तक डॉलर के मुकाबले वास्तव से ज्यादा मूल्य वाला (ओवरवैल्यूड) माना जा रहा था. जैसा कि द हिंदू में लिखे लेख में सीपी चंद्रशेखर ने दिखाया है, अप्रैल-जून 2011 में रुपया डॉलर के मुकाबले ओवरवैल्यूड माना गया था. हालांकि 2008-09 के वित्तीय संकट के वक्त रुपया कमजोर हुआ था, और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों से फायदा कमाने के लिए बाजार से पांव खींच लिये थे, जिसके कारण अप्रैल 2008 में 40 से भी कम स्तर पर चल रहा रुपया मार्च 2009 में 52 के स्तर पर पहुंच गया.

लेकिन विकसित देशों द्वारा स्टिमुलस पैकेजों की घोषणा के बाद पूंजी का उभार ले रही अर्थव्यवस्थाओं की ओर प्रवाह शुरू हो गया, क्योंकि उन अर्थव्यवस्थाओं में सस्ती मुद्रा थी जिनका निवेश भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में किया जा सकता था और लाभ कमाया जा सकता था. एक हद तक रुपया डॉलर के इस कैरी ट्रेड का भी मारा हुआ कहा जा सकता है. यह अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के व्यापार से जुड़ी जटिलता की ओर इशारा करता है.

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