आमंत्रित अर्थ संकट के हल
भारत के लिए यह आमंत्रित अर्थसंकट है. नेताओं द्वारा. खासतौर से कांग्रेस व यूपीए शासन-2 द्वारा. इस अर्थसंकट में आग लगायी है, कॉरपोरेट वर्ल्ड के लोभ–लालच ने. इस आग में घी का काम किया है, छठे वेतन आयोग ने. पूरी व्यवस्था की अकर्मण्यता (इन–इफीशिएंसी) और अक्षमता (इनकांपिटेंस) ने इस आग को हवा दी है.
काले अंगरेजों ने (शासक भारतीयों ने) जो सरकारी धन या कोष को लूटकर बाहर रखने का काम किया, वह भी इस संकट के मूल में है. शासक वर्ग का उपभोक्तावादी दर्शन, विलासितापूर्ण जीवनशैली, ब्रांडेड चीजों के मायालोक (इस वर्ग के लिए स्वर्गलोक) में रहने की नये मध्यवर्ग की ख्वाहिश, गवर्नेस का कोलैप्स (ध्वस्त) होना, 2जी से अब तक घोटालों की बाढ़ जैसी घटनाओं ने अर्थसंकट को न्योता है.
इंडिया टुडे (22.07.13) के अनुसार, घूसखोरों के गणराज्य में हर वर्ष 10 हजार बोफोर्स हो रहा है. दरअसल, भ्रष्टाचार की बाढ़ ने इस अर्थसंकट में सुनामी की भूमिका निभायी है. कमोबेश कांग्रेस और भाजपा दोनों के भ्रष्टाचार सहने के दर्शन ने देश को तबाह कर दिया है. दर्शन व आचार–विचार में दोनों दलों में मामूली फर्क रह गया है.
आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल का एक बयान (इकॉनोमिक टाइम्स, 26.08.2013) आया है, नेता, जो संसद और राज्यों के विधानसभाओं में बैठते हैं (कुछ अपवादों को छोड़ कर), आतंकवादी से कम नहीं हैं. उनके अनुसार बड़ी पूंजीवाली पार्टियां ‘रन बाई द माफिया’ (माफियाओं द्वारा संचालित) हैं. उन्होंने यह भी कहा कि राजनीतिज्ञों ने लौह अयस्क को लूटा. 2जी घोटाला किया.
कोयला घोटाला हुआ, जिनकी फाइलें अब गायब हो गयी हैं. आदर्श घोटला हुआ, जिससे जुड़ी फाइलें जला दी गयी हैं. ‘सत्ता से पैसा–पैसे से सत्ता’ के खेल में देश की राजनीति चंद परिवारों की गुलाम बन कर रह गयी है. बहुत संक्षेप और कम शब्दों में देश के अर्थसंकट के मूल में ये सभी तथ्य हैं. पर इन पर चर्चा बाद में. अभी रास्ता क्या है?
1991 में देश ने निर्णायक अर्थसंकट का दौर देखा. जयतीरथ राव जैसे कई जाने–माने अर्थ समीक्षक और उदारीकरण को सैद्धांतिक आधार पर सही माननेवाले कहते हैं कि उस वक्त चंद्रशेखर सरकार ने सोना गिरवी रखने का साहसिक कदम नहीं उठाया होता, तो 1991 में ही भारत कथा का अंत हो गया होता. बहुत संक्षेप में जानें कि यह मामला क्या था? 1991 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने.
शपथ लेते ही तत्कालीन वित्त सचिव, विमल जालान ने तुरंत मिलने की बात की. इमरजेंसी जैसी स्थिति थी. चंद्रशेखर से वह मिलने आये. प्रधानमंत्री ने पूछा कि क्या मामला है? क्या संकट है? वित्त सचिव ने कहा, गहरा अर्थसंकट है. विदेशी मुद्रा कोष लगभग खाली है. महज सात दिनों के आयात बिल भुगतान करने का ही विदेशी मुद्रा भंडार है.
तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पूछा, क्या आप हमारे शपथ लेने की प्रतीक्षा कर रहे थे? या देश का आर्थिक संकट या खजाना खाली होने का यह प्रसंग पहले से चल रहा था. जवाब मिला, सर राजीव गांधी के कार्यकाल से ही नाजुक स्थिति थी. फिर विश्वनाथ सिंह प्रधानमंत्री बने. उनके कार्यकाल में बदतर स्थिति हुई. यह प्रसंग दोनों प्रधानमंत्रियों को बताया गया था. दोनों ने ही कहा, बाद में देखेंगे. किसी ने कदम नहीं उठाया. दरअसल, भारत के इस अर्थसंकट की जड़ें तो गहरी हैं.
पर यह गहरानी शुरू हुई इंदिरा गांधी के जमाने में. जाने–माने अर्थशास्त्री और बाद में योजना आयोग के सदस्य बने प्रोफेसर जयदेव शेट्टी ने एक बहुचर्चित किताब लिखी थी, इंडिया इन क्राइसिस. 1972 के आसपास. हालांकि भारत ने पहला अर्थसंकट लालबहादुर शास्त्री के कार्यकाल में झेला. खाद्यान्न भंडारों की कमी, सूखे का संकट. बाद में इंदिरा जी ने अपनी अर्थनीतियों से देश में अर्थसंकट आमंत्रित किया.
राजीव गांधी के कार्यकाल में देश, पश्चिमी बाजार और पश्चिमी अर्थदर्शन से जुड़ने के लिए कुलांचे भरने लगा. लगा, जैसे रातोंरात भारत बदल जायेगा. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में राजीव गांधी को विवेकानंद का नया अवतार घोषित कर दिया. पर यह अर्थसंकट उसी राजीव गांधी के कार्यकाल में और गहराया.
तब वित्त मंत्री थे माननीय विश्वनाथ प्रताप सिंह. उन दिनों शासकों के शाही रहन–सहन की एक बात बड़ी चर्चा में आयी कि प्रधानमंत्री के विमान में खाने के लिए इटली की कटलरी लायी गयी है. यह गलत था या सही, नहीं पता? पर शासक वर्ग के विलासितापूर्ण जीवन का संकेत था. उन्हीं दिनों गवर्नेस कोलैप्स होना शुरू हुआ. आज जिसे पॉलिसी पैरालाइसिस (निर्णय में अक्षमता) बताया जा रहा है, उसकी शुरुआत तो 1987 में हो गयी थी. उसके बाद नेतृत्व में साहस की कमी, विजन का अभाव, देश की मिट्टी की समझ का अभाव वगैरह शुरू हुआ.
प्रतीक के तौर पर याद करिए कि लालबहादुर शास्त्री ने इस अर्थसंकट को कैसे झेला? उन्होंने जय जवान, जय किसान का नारा दिया. उनके नारे से देश में एक शाम चूल्हे जलने बंद हो गये. एक बार वह गुजरात गये, अमूल देखने. प्रसंग 1964 का है. यह लिखा है डॉ वर्गीस कुरियन ने. पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तक ‘आइडियाज दैट हैव वक्र्ड’ (विचार जो कामयाब रहे) के अध्याय ‘बूंद से बाढ़ तक’ में. डॉ वर्गीस, श्वेत क्रांति के सूत्रधार–आणंद दुग्ध विकास कार्यक्रम के जनक. शास्त्री जी के सोचने, समझने और काम करने के तौर–तरीके से समझिए कि किस भारतीय अंदाज में उन्होंने चुनौतियों के हल ढूंढ़े.
प्रधानमंत्री, आणंद जा रहे थे. उनका संदेश गया. वे रात में एक छोटे किसान के घर अतिथि रहेंगे. अकेले. लोगों के पसीने छूटने लगे. यह कैसे संभव है? सुरक्षा में एक आदमी नहीं, यह असंभव है. पर इच्छा तो प्रधानमंत्री की थी. वह भी गांधीयुग के चरित्रवान राजनेता की.
रास्ता निकाला डॉ कुरियन ने. एक गांव, आणंद से सात किमी दूर, वह गये. गांव के लोगों से कहा, दो विदेशी मेहमान आ रहे हैं. किसी एक घर में रहेंगे. एक किसान तुरंत सहमत हो गया. कुरियन ने उस किसान से कहा, घर की थोड़ी साफ–सफाई कर दे. पूरी योजना गोपनीय रही. यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री को भी उस गांव की जानकारी नहीं दी गयी.
अचानक कार्यक्रम की रात प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को लेकर डॉ कुरियन उस छोटे किसान के घर पहुंचे. किसान देखते ही स्तब्ध. उसने डॉ कुरियन को अलग हटाया, बोला, ‘यह आपने मेरे साथ क्या किया? मैंने तो खाने में कुछ भी खास नहीं बनाया. प्रधानमंत्री क्या खायेंगे? अब मेरा क्या होगा?’ वह अवाक् और घबड़ाया था. कुरियन ने उस किसान से कहा, ‘चिंता मत करो, कुछ नहीं होगा.
वे लोग बहुत अच्छे हैं. बिलकुल मेरी और तुम्हारी तरह.’ डॉ कुरियन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को उस किसान के घर पहुंचा कर उस गांव से लौट गये. सिर्फ पीएम और सीएम गांव में रह गये. बिना सुरक्षा या किसी और सहयोगी के. शाम के साढ़े सात बजे थे. शास्त्रीजी और मुख्यमंत्री ने उस किसान परिवार के साथ रात का भोजन किया. पंगत में बैठ कर.
फिर शास्त्रीजी ने कहा कि वे गांव की हर झोपड़ी में जाना चाहते हैं. एक झोपड़ी में वे किसानों के परिवारों के साथ बैठे. बातचीत की कि जिंदगी कैसी चल रही है? क्या सब सहकारी समिति के सदस्य हैं? यह समिति कैसे काम कर रही है? ठीक–ठाक चल रही है? वे समिति के दामों से संतुष्ट हैं? वगैरह–वगैरह. चौपाल में लंबी बातचीत के बाद प्रधानमंत्री ने पूछा, इस गांव में मुसलमान रहते हैं? मैं उनके घरों में जाना चाहता हूं. इस तरह उनके घर गये. वहां भी बैठे, बातें की.
फिर पूछा, क्या यहां हरिजन हैं? वहां से वे हरिजन के घर गये. भीड़ को पीछे छोड़ कर. उनसे पूछा कि क्या आपका दूध भी उसी बर्तन में डाला जाता है, जिसमें औरों का डाला जाता है? क्या आप उसी कतार में खड़े होते हैं, जिसमें ब्राह्मण खड़े होते हैं? इस तरह सुबह दो बजे तक प्रधानमंत्री गांव के लोगों के साथ बातें करते रहे. घर–घर घूम कर. इसके बाद डॉक्टर ने उन्हें सोने के लिए जोर दिया. अगली सुबह डॉ कुरियन तड़के पहुंचे, तो देखा, प्रधानमंत्री लोगों के साथ भीड़ में बैठ कर बतिया रहे हैं.
प्रधानमंत्री और गांववालों की बातचीत बड़ी दिलचस्प और रोचक है. पर वह अलग विषय है. यहां यह बताना भर मकसद है कि तब के कांग्रेसी नेता कैसे आदर्श जीते थे. उनके लिए ‘सादगी’, ‘मितव्ययिता’ महज शब्द नहीं कर्म थे. आज पूरी व्यवस्था में फिजूलखर्ची अकल्पनीय है. पर कोई इस पर बात करने को तैयार नहीं?
इसी तरह कामराज अपढ़ थे. पर कामराज ने किस तरह तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था को सशक्त और मजबूत बना दिया. वह मुख्यमंत्री थे, तब का प्रसंग. वह नाडार जाति के थे. अत्यंत पिछड़े व गरीब समूह से. नाडार लोग कामराज से मिले, तब तमिलनाडु में ब्राह्मण अत्यंत पढ़े–लिखे व आगे थे.
कामराज ने उन्हें सलाह दी–पढ़ो, शिक्षित हो, पर किसी जाति विशेष से शिक्षा में मुकाबला कर उसे पछाड़ने का स्पर्धात्मक मानस छोड़ दो. उद्यमी बनो. उसके बाद कामराज ने एक जापानी कंसलटेंसी कंपनी बुलायी. शिवकाशी में बारिश कम होती थी. वह रेन शैडो का इलाका था. नमी कम थी. उस समूह ने पूरा अध्ययन कर तीन सुझाव दिये और कहा कि तीन चीजें यहां पर संभव हैं –
1. प्रिंटिंग (छपाई काम),
2. पटाखे का उद्योग और
3. दियासलाई उद्योग.
यह सब आज से 50-60 पहले एक अपढ़ व्यक्ति के विजन से हुआ. इस जापानी कंसलटेंसी के सुझाव पर अमल हुआ. आज शिवकाशी, एशिया के बेस्ट प्रिटिंग सेंटर, पटाखे और माचिस उद्योग के रूप में स्थापित हो गया है. यहां के उद्यमी भी नाडार जाति के हैं. कामगार भी.
सरकार ने शिवकाशी को इंडस्ट्रियल इस्टेट बना दिया. बिजली दी, जमीन दी, सड़क बनवाया और राज्य का भरपूर संरक्षण दिया. इंस्पेक्टर राज के कुप्रभाव को बंद किया. कल–कारखानों में अफसरों के तंग करने की प्रवृत्ति या लालफीताशाही पर रोक लगायी. इस तरह शिवकाशी दुनिया में विख्यात हुआ. तमिलनाडु के गांवों में शिक्षा के जनक वही माने जाते हैं. मुख्यमंत्री के रूप में मिड–डे मील योजना के वही जनक थे.
सी राजगोपालाचारी को हराकर वे मुख्यमंत्री बने. अंगरेजों के जमाने में वहां शिक्षा सात प्रतिशत थी. कामराज के काल में 37 प्रतिशत तक पहुंच गयी. राजाजी के काल में 12 हजार स्कूल थे. कामराज के समय में 27 हजार स्कूल हुए. स्कूलों में पढ़ाई के दिन बढ़ाये गये, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर हो.
अनावश्यक छुट्टियों में कटौती की गयी. पाठ्यक्रम बदले गये, ताकि छात्रों के संपूर्ण व्यक्तित्व में वृद्धि हो सके. कामराज के प्रयास से आइआइटी मद्रास की स्थापना 1959 में हुई. उनके कार्यकाल में कोई गांव बिना प्राइमरी स्कूल के नहीं रहा. हर पंचायत में हाई स्कूल खुला. अशिक्षा खत्म करने के लिए उन्होंने कक्षा 11 तक मुफ्त अनिवार्य पाठ्यक्रम शुरू किया. खेती पर भी उनकी निगाह रही. पांच बड़े नहरों का निर्माण कराया. 150 लाख एकड़ खेतों में सिंचाई होने लगी.
उन्हीं के कार्यकाल में भेल (त्रिची में) की स्थापना हुई. नेवेली लिग्नाइट कॉरपोरेशन शुरू हुआ. मनाली रिफाइनरी की स्थापना हुई. बिजली की कई योजनाएं शुरूहुईं. वह साथी मंत्रियों को कहते थे : सीधे समस्या से जूङों, उनसे भागें नहीं. उसका हल निकालें, चाहे समस्याएं कितनी भी छोटी या बड़ी हों. अगर काम करेंगे, तो जनता में संतोष रहेगा कि हमारे मंत्री परिश्रम कर रहे हैं.
आज उसी देश में ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज, हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड से पढ़े–लिखे सांसद हैं, प्रधानमंत्री हैं. मंत्री हैं. प्लानिंग कमीशन के चेयरमैन हैं. बड़े नौकरशाह हैं, जो हमारी नियति लिख रहे हैं. इनमें से कोई कामराज जैसे गरीब परिवार से नहीं आता. न फूहड़ खद्दर पहनता है. न उनके जैसा अपढ़ है, न शास्त्री जी जैसा गरीब घर की संतान है.
जो इंसान पढ़ने के लिए पैसे के अभाव से नाव पर न चढ़कर तैर कर गंगा पार करता था. आज उनसे बहुत पढ़े–लिखे और समृद्ध पृष्ठभूमि के शासक हैं, फिर भी देश में यह अर्थसंकट? यह स्टेट्समैनशिप का अभाव है? 66 वर्षो में मुल्क आगे गया है या पीछे? पढ़े–लिखे लोगों ने देश को आगे बढ़ाया है, या पीछे धकेला है?
देश के जानेमाने अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार का एक ताजा लंबा लेख है. भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था पर. उनके लेख का शीर्षक है, इंडियन इकॉनोमी एंड द क्राइसिस ऑफ ए बौरोड डेवलपमेंट स्ट्रेटजी (भारतीय अर्थव्यवस्था और उधार लिये गये विकास मॉडल के संकट). यह विकास रणनीति ही ‘टॉपडाउन एप्रोच’ (विकास का ऊपर से नीचे तक फैलने की अवधारणा) या ‘ट्रिक्लडाउन इफैक्ट’ (ऊपर से रिस कर नीचे पहुंचने का मॉडल) पर आधारित है.
दरअसल, यह बड़ी भूल थी, नेहरू युग की. अपने अंतिम दिनों में पंडित जी को इसका एहसास भी हुआ. गांधी की बुनियादी आर्थिक मान्यता को भूल जाना इस देश के लिए सबसे घातक हुआ. हाल में दुनिया के जो बड़े–बड़े अर्थशास्त्री कह और मान रहे थे कि भारत सुपरपावर बनेगा, उसके विकास दर में कभी कमी नहीं आयेगी, पश्चिमी देशों के दिन लद गये.
अब वही लोग और वही क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज भारत की दुर्दशा देख, छाती पीट रही हैं. हाल में मॉर्गन स्टेनले इनवेस्टमेंट मैनजमेंट के जाने–माने आर्थिक विशेषज्ञ और दुनिया में प्रख्यात रुचिर शर्मा का एक लेख (टाइम्स ऑफ इंडिया-28.08.13) छपा. इस लेख में उन्होंने लिखा कि द वर्ल्ड वाज लुकिंग एट चायना फॉर द नेक्सट इमजिर्ग मार्केट क्राइसिस. बट इंडिया गॉट देयर फस्र्ट (दुनिया, दूसरे बाजार अर्थसंकट के लिए चीन की ओर देख रहे थे, पर यह पहले भारत में ही हो गया.)
दरअसल, इस संकट के लिए नीति स्तर पर भारत का शासकवर्ग, खासतौर से कांग्रेस जिम्मेदार है. पर इससे पहले 1991 के प्रसंग पर थोड़ी चर्चा. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भारत के तत्कालीन वित्त सचिव से हालात जानने के बाद कहा कि अर्थसंकट का हल तो बाद में निकले, पहले तत्कालीन वित्त सचिव को पद से हटना चाहिए.
जब घर में आग लगी हो और उसका हल न निकले, तो बड़े पदों पर बैठे जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए. वित्त सचिव हटे. तब हल ढूंढ़ने की पहल शुरू हुई. ठेठ देशज अंदाज में चंद्रशेखर ने कहा कि देश को दुनिया के बाजार में अपमानित नहीं होने देंगे. दिवालिया नहीं होने देंगे. क्योंकि एक बार दिवालिया हो गये, तो फिर इस मुल्क के हजारों वर्षो के इतिहास में क्या बचेगा? कहा, मैं गांव से आता हूं. गांव में औरतों के गहने होते हैं, जो परिवार के सम्मान बचाने के काम आते रहे हैं. गिरवी रखकर. बंधक रख कर.
मुझे पता है कि देश के सोना को गिरवी रखने की राजनीतिक कीमत मुझे चुकानी पड़ेगी? पर आज मैं जिस पद पर बैठा हूं, उसका पहला बुनियादी फर्ज और धर्म है, दुनिया में, देश की प्रतिष्ठा व साख को बचाना. तब सिर्फ सात दिनों के निर्यात के बिल चुकाने के लिए विदेशी मुद्रा कोष देश के पास शेष था.
चंद्रशेखर के फैसले के बाद 47 टन सोना, बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रखा गया. 400 मिलियन डॉलर कर्ज लिये गये. इस तरह भारत की साख बची. बाद में इसकी राजनीतिक कीमत भी चंद्रशेखर ने चुकायी. हालांकि अर्थव्यवस्था को संकट के द्वार पर पहुंचाने के पाप के वह साझीदार या भागीदार नहीं थे.
यह भी याद रखिए कि अर्थसंक ट गहराना इंदिरा जी के कार्यकाल से शुरू हुआ. राजीव गांधी के कार्यकाल में परवान चढ़ा और विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री रहते आग लग चुकी थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्रियों ने इसे तोपा या दबाये रखा. स्पष्ट है कि चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनते ही दो दिन में यह संकट नहीं आया था.
पर आज के क्षुद्र राजनेताओं की तरह स्थिति होती, तो चंद्रखेशर पहले दिन से ही कहते घूमते कि यह अर्थसंकट तो राजीव गांधी या विश्वनाथ प्रताप सिंह की देन थी. पर उन्होंने कभी पद पर रहते हुए ऐसी बातें नहीं की. कहा, यह देश का अंदरूनी मामला है. यह तू–तू–मैं–मैं का अवसर नहीं है.
यह देश की प्रतिष्ठा का सवाल है. उन्होंने सोना गिरवी रखा और देश की साख बचायी. उनके न रहने पर जयतीरथ राव ने उनकी श्रद्धांजलि में जो लेख लिखा, उसकी आरंभिक पंक्तियां थीं कि भारत की आर्थिक साख जो बची और उदारीकरण के कार्यकाल में जो धन, संपदा या वैभव आया, उसके मूल में चंद्रशेखर का सोना गिरवी रखने का साहसपूर्ण निर्णय था. जब संकट हो, तो साहस के साथ कदम उठाना, नेतृत्व का पहला गुण होता है.
आज देश के नेताओं ने यह गुण खो दिया है. एक नेता का राजधर्म है कि देश संकट में हो, तो वह सब चीजों से ऊपर उठकर देश के हित में काम करे. प्रधानमंत्री को आम जनता ‘मौन मनमोहन सिंह’ कहने लगी है. चिदंबरम साहब, प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को दोषी बता रहे हैं. पर देश की जनता से कोई नेता या दल संवाद नहीं कर रहा कि इस अर्थसंकट की आग कैसे बुझेगी?
चंद्रशेखर के कार्यकाल का ही एक दूसरा प्रसंग भी है. सोना गिरवी रखा गया. भारत दिवालिया होने से बच गया. पर दीर्घकाल में देश के विकास का मॉडल क्या हो, इस पर बहस शुरू हुई? चंद्रशेखर सरकार अपना बजट अलग तरीके से तैयार कर रही थी. उस बजट में कुछ भिन्न और साहसी कदम थे.
लेकिन उनकी सरकार कांग्रेस ने गिरा दी. सरकार गिराने के पीछे अनेक कारणों में से एक कारण यह भी था. वर्ल्ड बैंक ने तब भारत के आर्थिक कायाकल्प के लिए ‘वाशिंगटन कांससनेस’ के आधार पर तैयार डेवलपमेंट स्ट्रेटजी (विकास मॉडल) भेजा, उदारीकरण के रास्ते पर जाने के लिए. पर तत्कालीन प्रधानमंत्री (जो इस्तीफा दे चुके थे) को यह पत्र नहीं दिखाया गया.
उन्हीं दिनों वर्ल्ड बैंक के एक बड़े अधिकारी आये. वह चंद्रशेखर से भी मिले. बातचीत में वर्ल्ड बैंक के अधिकारी ने कहा कि प्रधानमंत्री जी आपके बारे में धारणा है कि आप आर्थिक सुधारों के विरोधी हैं. प्रधानमंत्री ने अपना पक्ष बताया. वर्ल्ड बैंक के वह सज्जन कह बैठे कि योर एक्सलेंसी, अगर वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएस) आपको धन देना बंद कर दें, तो आप देश कैसे चलायेंगे? चंद्रशेखर ने तुरंत कहा, कोई दिक्कत नहीं.
अगली सुबह दूरदर्शन पर जाऊंगा. देश को संबोधित करूंगा कि हम गहरी मुसीबत में हैं. विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया है. विदेशों से विकास के लिए पूंजी नहीं मिल रही. हम विदेशों से चीजें मंगाना कम या बंद कर रहे हैं. बहुत जरूरी चीजें ही आयेंगी. हम देश बचायेंगे. उन्होंने कहा कि यह फकीरों का देश रहा है. देश के लोग ऐसे संकट में साथ होंगे. वर्ल्ड बैंक के उस अफसर से चंद्रशेखर जी से कहा कि आप इस देश की परंपरा नहीं जानते? 1962 में जब चीन ने हमला किया या लालबहादुर शास्त्री के कार्यकाल में जब अर्थसंकट आया, तो अपढ़ महिलाओं ने अपने जेवरात से देश के कोष भर दिये.
शास्त्री जी के आह्वान पर लोगों ने एक शाम भूखा रहना चुना, पर देश के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचने दी. यही मेरा पहला कदम होगा. फिर वर्ल्ड बैंक के उस सज्जन को अपना दूसरा कदम बताया कि मैं लोगों से यह भी अपील करूंगा कि विदेशी चीजों का आयात भी हम बिल्कुल घटा देंगे.
आज दुनिया के बड़े देशों के लिए भारत सबसे बड़ा बाजार है. यह भी याद रखिए कि दुनिया के बाजार को आज भारत की अधिक जरूरत है. अगर मैं दुनिया के बाजार के लिए भारत को बंद कर दूंगा, तो आपका वर्ल्ड बैंक (आइएमएस) हमारा क्या बिगाड़ेगा? विश्व बैंक का वह अफसर यह जवाब सुनकर हतप्रभ और लगभग सदमे में थे. यह जवाब दिया एक ऐसे प्रधानमंत्री ने, जिसके बारे में बाद में एक विदेशी अखबार ने लिखा कि अगर बहुमत होता, तो धोती, कुरता और चप्पल पहने यह व्यक्ति भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में जाना जाता.
दरअसल, इस प्रसंग के उल्लेख का अर्थ है कि आज ‘आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग’ (नये, साहसिक और मौलिक सोच) की जरूरत है. यह राजनेताओं का धर्म है कि ऐसा करें. मौलिक ढंग से सोचनेवाले हमारे अन्ना भाई कहते हैं कि अगर देशवासी महज सात दिनों के लिए अपने–अपने गाड़ी, कार और निजी वाहन का इस्तेमाल बंद कर दें.
सिर्फ इमरजेंसी में ही इनका इस्तेमल हो, तो क्या संदेश जायेगा, दुनिया में? आज बाहर से तेल या ईंधन की खपत पर सबसे अधिक विदेशी मुद्रा खर्च होती है. 120 करोड़ की आबादी का देश राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकारों को बाध्य करें कि हमें श्रेष्ठ सरकारी यातायात साधन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) चाहिए.
हम बसों, सरकारी वाहनों, रेलों वगैरह से ही यात्रा करेंगे. फिर देखिए डॉलर के मुकाबले रुपया कैसे सुधरता है? यह तो महज छोटा उपाय है. पेट्रोल–डीजल के कारण डॉलर की वैल्यू है. अमेरिका ने 70 वर्ष पहले सोने के बदले डॉलर का मूल्यांकन बंद कर दिया. बाद में उन्होंने खाड़ी देशों के साथ एक समझौता किया कि पेट्रोल सिर्फ डॉलर में ही बिकेंगे.
इसी कारण आज अमेरिकी डॉलर एक लीगल (वैधानिक) टेंडर के रूप में छापता है. इस डॉलर पर हम अपनी निर्भरता घटायें. ऐसे ही कुछ और ठोस व मौलिक कदम उठायें. हम आज पेट्रोल–डीजल की खपत घटा दें, अपनी मिट्टी के लिए निजी कुरबानी दें, अपने रुपये का भाव बढ़ाने के लिए एक नागरिक के रूप में इस धर्म का निर्वाह करें, तो देखिए क्या फर्क पड़ता है? बारह महीने पहले एक डॉलर, 39 रुपये के बराबर था. आज एक डॉलर, 68 रुपये से भी ऊपर है.
क्या आपको लगता है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में संपन्नता, विकास और वैभव की आंधी आ गयी है? नहीं ऐसा नहीं है. अमेरिकी खर्च व्यवस्था भी संकट में है. दुर्भाग्य यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गटर में जा रही है. हमारी अर्थव्यवस्था हमारे हाथों में है. यह गंभीर अर्थसंकट के दौर से गुजर रही है.
अनेक भारतीय उद्योग बंद हो रहे हैं. किसी एक पर दोषारोपण का यह वक्त नहीं है कि इसके लिए कांग्रेस दोषी या भाजपा या और कोई? आज इस देश का 30 हजार करोड़ से अधिक विदेशी मुद्रा कोष कॉस्मेटिक, स्नैक्स, चाय, शीतल पेय वगैरह पर खर्च होता है. हालांकि इनका उत्पादन और उपभोग दोनों अपने देश में हो रहा है. एक कोल्ड्रिंक के उत्पादन में महज 70-80 पैसे लगते हैं.
लेकिन बाजार में यह नौ रुपये में बिकता है. इसके मुनाफे का बड़ा हिस्सा विदेश भेजा जाता है. ऐसी अनेक चीजें हो रही हैं. यहां से पैसे कमा कर विदेशों में भेजे जा रहे हैं. क्या यह ठीक स्थिति है? यहां से मुनाफा कमा कर विदेशों में भेजा जाये और हम अर्थसंकट झेले?
दादाभाई नैरोजी ने अंगरेजों के जमाने में ‘ड्रेन थ्योरी’ (भारत के लूट की कहानी) लिखी. फिर रमेशचंद्र दत्त ने भारत लूट के तथ्य बताये. सखाराम देउस्कर ने मराठी में ‘देशेरकथा’ लिखी. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अंगरेज राज में भारत के धन विदेश जाने की बात बतायी.
1908 में ‘संपत्तिशास्त्र’ लिखा. देवनारायण द्विवेदी ने तब अंगरेजकाल में ‘देश की बात’ लिखी. आज ऐसी बातों पर क्यों यह देश चुप है? हम विदेशी कंपनियों के खिलाफ नहीं है. पर हमें अपना हित, अपना स्वाभिमान, अपना गौरव तो बचाना ही चाहिए. हर भारतीय को आज चाहिए कि वह भारतीय कंपनी द्वारा उत्पादित चीजों का इस्तेमाल करे.
देश को जागरूक करने का एक अभियान चले, जिसका नेता हर आदमी खुद हो. हम अपना विदेशी लाइफस्टाइल बदलें, ऐसे कदम ही हमारे देश को गंभीर अर्थसंकट से बचा सकते हैं.
हर दिन इस्तेमाल होनेवाली चीजों पर गौर करें. क्लोड ड्रिंक्स हो, नहाने का साबुन हो, टूथपेस्ट हो, ब्रश हो, दाढ़ी बनानेवाली क्रीम हो, ब्लेड हो, टैल्कम पाउडर हो, दूध पाउडर हो, शैंपू हो या खाने–पीने की कोई अन्य चीज, हम उनके भारतीय उत्पाद को खरीदें. यह सुनिश्चित करें कि भारत का रुपया और इससे होनेवाली आय भारतीय सीमा के पार न जाये. यह भी साफ करें कि हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ नहीं हैं, पर आज हम अपने मुल्क को बचाना चाहते हैं.
हर दिन का हमारा संघर्ष आजादी की लड़ाई जैसा हो. लाखों लोगों ने कुरबानी दी है, तो आज हम–आप हैं. कम से कम विदेशी चीजों का भोग और इस्तेमाल रोकें. सिर्फ जहां जीवन रक्षा का सवाल हो, वहीं इनका इस्तेमाल करें. इन कदमों के बाद देखिए, कैसे देश की फिजां बदलती है? गांधी ने कहा था, एक सार्थक कदम उठायें, उसकी गूंज दूर तक होगी. इसी तरह हम ऊर्जा के बारे में सोचें.
आज पूरे देश में बिजली संकट है. पर क्या कभी हमने वैकल्पिक ऊर्जा के साधनों पर काम किया? सोचा? दरअसल, राजनीति में नये विचार–नीतियां पनपने बंद हो गये हैं. राजनीति सिर्फ भ्रष्टाचार का खेल बनकर रह गयी है. या सत्ता पाने का माध्यम भर है. आज चीन सौर ऊर्जा से तीन हजार मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादित कर रहा है. जर्मनी भी बहुत हद तक सौर ऊर्जा पर निर्भर है.
पवन ऊर्जा पर भी दुनिया के कोने–कोने में काम हो रहा है. पर भारत में क्या किसी ने वैकल्पिक ऊर्जा के बारे में सोचा है? देश में कोयला का बड़ा भंडार है, पर हम कोयला नहीं निकाल पा रहे. लेकिन कम–से–कम कोल गैस के आधार पर पेट्रोलियम पदार्थों के विकल्प तो ढूंढ़ सकते हैं. इससे विदेशी मुद्रा भंडार में कितनी बड़ी बचत होगी? मैनुफै क्चरिंग के क्षेत्र में मध्यम और छोटी इकाइयां बंद हो रही हैं.
ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में भी मौलिक और नये रास्ते खोज कर देश को बचाने का अभियान चलना चाहिए. ये तात्कालिक रास्ते या कदम हो सकते हैं. यह काम हर मुल्क की राजनीति करती है. राजनीतिक दर्शन, विचार और नीतियां करते हैं. पर इस देश का क्या हाल है? विचार, दर्शन और नीतियों के आधार पर राजनीतिक दल दरिद्र और शून्य हैं.
हद तो तब हो गयी, जब इस अर्थसंकट के लिए वित्त मंत्री ने 2009-11 में प्रणब मुखर्जी द्वारा लिये गये कदमों को जिम्मेदार ठहराया. हम मानते हैं कि वित्त मंत्री चिदंबरम अत्यंत सुलझे और समझदार लोगों में हैं. उनके विचार से सहमति–असहमति अपनी जगह है.
यह सही है कि प्रणब मुखर्जी (जो अगस्त, 2012 तक वित्त मंत्री थे) ने आर्थिक स्थिति को गहरे संकट में पहुंचाया. पर आज यह रोना रोने का विषय नहीं है. मिलकर इस देश को बचाने का वक्त है. देश में सरकारी धन का आज अर्थ है, दूसरों का धन. पराया धन. यानी उसे लूट लो. लूट कर जो ताकतवर हैं, जो इसे छिपाने की कला जानते हैं, वे इसे विदेश भेज रहे हैं.
देश का एक–एक पैसा हमारा है, यह सोच राजनीति ही पैदा कर सकती है? अब यह बोध पैदा करने का समय आ गया है. नीचे बीडीओ या तहसीलदार से लेकर डीएम, कमिश्नर, सचिव, मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, केंद्र सरकार के मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के कार्यालयों के रख–रखाव पर कितनी फिजूलखर्ची है? राज्यपाल का पद क्यों समाप्त नहीं किया जा सकता है? क्या जरूरत है, इस पद की? एक–एक आइएएस, आइपीएस की फिजूलखर्ची कैसी है? एक–एक आदमी कितनी गाड़ियां रखता है?
एक आइएएस से लेकर प्रधानमंत्री पर सरकार का क्या खर्च है? इस खर्च के बदले वे देश या जीडीपी में क्या योगदान दे रहे हैं? इन सबका मूल्यांकन क्यों नहीं शुरू हो? आज प्रशासनिक फिजूलखर्ची चरम सीमा पर है. उसे क्यों न रोका जाये? हम लूट और भ्रष्टाचार की तो बात ही नहीं कर रहे हैं. आज देश में गवर्नेस के स्तर पर जो चौतरफा संकट है, इस अर्थसंकट में उसकी बड़ी भूमिका है.
सरकारी नीतियों के स्तर पर भारी दरिद्रता है. पूरी व्यवस्था में कहीं कोई मौलिकता, नयापन या इनोवेशन है ही नहीं. महज परंपरागत तरीके से बीमारी के इलाज की विफल कोशिश हो रही है. इन सब चीजों पर बुनियादी बहस करने और रास्ता ढूंढ़ने के लिए लोकतंत्र में जो संस्थाएं गढ़ी गयीं, विधायिका के रूप में (संसद व विधान मंडल), वे क्यों मौन हैं?
देश में आग लगी है और इन संस्थाओं में, जिन पर दायित्व है, इस अर्थसंकट का हल निकालने के लिए, वे आज तू–तू मैं–मैं का केंद्र बन रही हैं? तो इससे बड़ा प्रसंग क्या हो सकता है? प्रशासन के स्तर पर कामकाज की संस्कृति से यह देश कैसे तबाह हो रहा है, उसकी एक–दो बानगी जान लीजिए.
एक किसान से 13 रुपये किलोग्राम गेहूं लिया जाता है. प्रति किलोग्राम के रख–रखाव या स्टोरेज पर 10 रुपया खर्च होता है. फिर उसी किसान को सरकार दो रुपये किलो गेहूं बेचती है. क्यों नहीं यह पैसा सीधे किसान के खाते में डाल दिया जाये? (देखें इकॉनोमिक टाइम्स-28.08.13) ऐसे मौलिक कदमों को सोचे बगैर यह मुल्क नहीं चलनेवाला.
आरटीआइ से मिली एक सूचना के अनुसार (टाइम्स ऑफ इंडिया-27.08.13) वर्ष 2009-10 से जुलाई, 2012 के बीच 17546 टन खाद्यान्न एफसीआइ के रख–रखाव में बरबाद हुए. संसद में फूड प्रोसेसिंग मंत्री शरद पवार ने बताया कि फलों, खाद्यान्नों और सब्जियों के ठीक रख–रखाव के अभाव के कारण हर वर्ष 44 हजार करोड़ कीमत की चीजें नष्ट हो जाती हैं.
दूसरी तरफ प्याज संकट हुआ. तीन दिनों में होर्डिग करनेवाले (जमाखोरों) ने डेढ़ सौ करोड़ रुपये कमाये. प्याज संकट के कारण, जिस व्यवस्था में तीन दिनों में डेढ़ सौ करोड़ रुपये कमा लिये जायें, वैसी व्यवस्था हम क्यों चला रहे हैं? ऐसे अनंत सवाल, जो व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक छाये हैं, उन पर इस देश की राजनीति, संसद या सरकार क्यों मौन या असहाय है? इस अर्थसंकट के मूल में यह सरकारी कार्यसंस्कृति है.
बिना राजनेताओं और अफसरों के सरंक्षण के लूट की यह व्यवस्था नहीं चल रही? क्यों नहीं इन जमाखोरों को सख्त सजा दी जाये? इसके बाद देश में बहस चले कि भारतीय अर्थव्यवस्था किस संकट में है? क्यों महंगाई इतनी बढ़ रही है? क्यों बजट में राजकोषीय घाटा इतना ऊपर है? भारतीय अर्थव्यवस्था में दुनिया को यह अविश्वास क्यों है कि रुपये की कीमत लगातार घट रही है? क्यों रिजर्व बैंक के उठाये कदम काम नहीं आ रहे हैं? स्टॉक मार्केट में अप्रत्याशित उतार–चढ़ाव क्यों है? देशी और विदेशी, दोनों निवेशकों में भारत को लेकर क्यों संशय है? सरकार चलानेवाले या नीति बनानेवाले क्यों असहाय दिख रहे हैं? क्यों इस अर्थव्यवस्था में विषमता इतनी तेजी से बढ़ रही है? बेराजगारी बढ़ रही है? असंगठित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र क्यों खराब हाल में हैं? अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार का मानना है कि ब्लैक इकॉनोमी (काली अर्थव्यवस्था) तीन फीसदी लोगों के हाथों में ही सिमटी है? देश में यह तीन फीसदी, शेष जनसंख्या पर क्यों भारी हैं? इस अर्थसंकट के कारण जो सामाजिक तनाव और राजनीतिक अराजकता फैली है, उसका हल क्या है? क्यों आजादी के 66 वर्ष बाद भी सबसे अधिक गरीब और अपढ़ इसी देश में हैं? भारत, दुनिया का सबसे प्रदूषित देश क्यों बन गया है? नदियों का पानी प्रदूषित, भूमिगत जल प्रदूषित, हवा प्रदूषित और इन सबसे होनेवाले रोग भारत में क्यों बढ़ रहे हैं? अर्थशास्त्री प्रो अरुण कुमार कहते हैं कि जर्जर हो चुके बड़े समुद्री जहाजों का भारत में तोड़ा जाना, प्लास्टिक वेस्टेज की व्यवस्था न होना, खतरनाक रासायनिक पदार्थो का प्रदूषण बनना, कंप्यूटर वेस्टेज का भंडार व खराब रासायनिक पदार्थो के बनने का स्तर भारत में ही क्यों सबसे अधिक है? जंगल खत्म हो चुके हैं.
खुले खनन का प्रभाव अलग है. हर ब्रांडेड चीज की खपत भारत में बढ़ रही है. ऊर्जा की भारी खपत हो रही है और हम इसकी बड़ी कीमत चुका रहे हैं. क्यों भारत सोना और पेट्रोलियम पदार्थो के आयात में इतना विदेशी मुद्रा चुका रहा है? आज हमारा विदेशी कर्ज 365 बिलियन डॉलर (सितंबर, 2012 तक) है. हमारे पास रिजर्व है, 295 बिलियन डॉलर (जनवरी, 2013 तक).
यह असंतुलन अर्थव्यवस्था में कैसे आया? इसका दोषी कौन है? मई से अब तक रुपये में 20 फीसदी की गिरावट आयी. दुनिया के अन्य देश, जो अर्थसंकट के कारण राजनीतिक आंदोलन और मुसीबतें झेल रहे हैं (जैसे–तुर्की, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका वगैरह), उन देशों में भी स्टॉक मार्केट 10-20 फीसदी के बीच गिरा और मुद्रा का भी आठ से 20 फीसदी के बीच अवमूल्यन हुआ.
इन देशों का औसत आर्थिक विकास दर भी चार फीसदी पर आ गया है. ये भी दुनिया के उभरते देश कहे जा रहे थे. भारत का विकास दर बमुश्किल पांच फीसदी है, पर भारत में प्रति व्यक्ति आमद 1500 डॉलर है. उधर, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका वगैरह देशों में प्रति व्यक्ति औसत आदम 15000 डॉलर है. अब दिल्ली में यह चर्चा है कि तीसरी बार भारत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे पर ‘बेलाउट पैकेज’ लेकर जानेवाला है.
केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा फिर सोना गिरवी रखने की बात कह ही चुके हैं. अल्पकालीन विदेशी कर्ज 80 बिलियन डॉलर से बढ़ कर 170 बिलियन डॉलर हो गया है. यह देश की असल स्थिति है. दूसरी तरफ हम दंभ भरते हैं कि आज पचास ब्रांड की कारें हमारी सड़कों पर दौड़ रहीं हैं. इनमें डेढ़ सौ वेराइटी हैं. हर बीसवें मिनट में एक भारतीय नये मोटरबाइक की सवारी करता है. घर घंटे में 200 नयी कारें सड़क पर उतरती हैं.
समझने की जरूरत है कि इस अर्थसंकट के मूल व बड़े कारण गैर–आर्थिक हैं. पूरे देश में शासन का इकबाल या प्रताप खत्म हो गया है. दो शब्दों में कहें, तो ‘गवर्नेस कोलैप्स’ की स्थिति है. एक उदाहरण, नोकिया कंपनी का. दुनिया की बड़ी मोबाइल कंपनी. फिनलैंड की. इस कंपनी ने भारत सरकार को पत्र लिखा है कि वह इस देश से कारोबार समेट कर जाना चाहती है. चीन में कारोबार करेगी.
वहां से भारत निर्यात करेगी. नोकिया कंपनी ने, भारत में दुनिया का सबसे बड़ा निवेश किया है. 285 मिलियन डॉलर का. इस कंपनी में सीधे आठ हजार लोग नौकरी करते हैं. 30 हजार लोग अप्रत्यक्ष रूप में इससे जुड़े हैं.
यह कंपनी 1995 से भारत में है. यहां 80 करोड़ का उत्पादन हो रहा है. उस कंपनी ने कहा है कि भारत अब ‘लीस्ट फेवरेबुल मार्केट’ (जिसका आशय है, खराब बाजार) हो गया है. पत्र का आशय है कि कारोबार के नियम यही कहते हैं कि यहां से निकलकर चीन जाया जाये और वहां से निर्यात किया जाये. नोकिया के पत्र के अनुसार, भारत में काम करना ‘पॉलिटिकल रिस्क’ (राजनीतिक खतरा) है.
नोकिया ने केंद्र सरकार से यह भी कहा है कि आप जितना जल्द हो, यह अवधारण ठीक करें कि भारत कारोबार या व्यापार के लिए एक गलत जगह है. साफ है कि यह कंपनी राजनीतिक कारणों से या लाल फीताशाही से ऊबकर भागना चाहती है. ऐसे असंख्य और अनंत उदाहरण हैं.
दरअसल, मुल्क के हालात जिस मुकाम पर हैं, उसे ठीक करने के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति चाहिए. इसके सबसे जरूरी तत्व हैं, ईमानदारी और चरित्र. हालांकि ये आर्थिक कारण या मुद्दे नहीं हैं, पर आर्थिक इतिहास की नियति यही लिखते हैं. यही दोनों सात्विक तत्व मुल्क के सार्वजनिक जीवन से गायब हैं. इस देश की राजनीति को फिर चाहिए, इस देश के संकट का देशज हल देनेवाला राजनीतिक दर्शन. गांधी और उनकी परंपरा के जो लोग हुए, उनके हाथ इस देश की मिट्टी या नब्ज पर थी.
चाहे लालबहादुर शास्त्री हों या कामराज हों या उस परंपरा का कोई अन्य. उन लोगों ने अपने–अपने दौर में अर्थसंकट के देशज हल निकाले. आज फिर मुल्क को किसी शास्त्री या कामराज की जरूरत है. भारत में इस अर्थसंकट के बहाने अगर इस राजनीतिक सवाल पर विमर्श हो, तो शायद कोई नया रास्ता मिले. क्योंकि इसी नये राजनीतिक रास्ते पर चलने से ही भारत के मौजूदा आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट के हल मिलेंगे.
देश में ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज, हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड से पढ़े–लिखे सांसद हैं, प्रधानमंत्री हैं. मंत्री हैं. प्लानिंग कमीशन के चेयरमैन हैं. बड़े नौकरशाह हैं, जो हमारी नियति लिख रहे हैं. इनमें से कोई कामराज जैसे गरीब परिवार से नहीं आता. न फूहड़ खद्दर पहनता है. न उनके जैसा अपढ़ है, न शास्त्री जी जैसा गरीब घर की संतान है.
जो इंसान पढ़ने के लिए पैसे के अभाव से नाव पर न चढ़कर तैर कर गंगा पार करता था. आज उनसे बहुत पढ़े–लिखे और समृद्ध पृष्ठभूमि के शासक हैं, फिर भी देश में यह अर्थसंकट? यह स्टेट्समैनशिप का अभाव है? 66 वर्षो में मुल्क आगे गया है या पीछे? पढ़े–लिखे लोगों ने देश को आगे बढ़ाया है, या पीछे धकेला है?
मैं गांव से आता हूं. गांव में औरतों के गहने होते हैं, जो परिवार के सम्मान बचाने के काम आते रहे हैं. गिरवी रखकर. बंधक रखकर. मुझे पता है कि देश के सोना को गिरवी रखने की राजनीतिक कीमत मुझे चुकानी पड़ेगी? पर आज मैं जिस पद पर बैठा हूं, उसका पहला बुनियादी फर्ज और धर्म है, दुनिया में, देश की प्रतिष्ठा व साख को बचाना.
चंद्रशेखर, पूर्व प्रधानमंत्री
शास्त्रीजी ने कहा कि वे गांव की हर झोपड़ी में जाना चाहते हैं. एक झोपड़ी में वे किसानों के परिवारों के साथ बैठे. बातचीत की कि जिंदगी कैसी चल रही है? क्या सब सहकारी समिति के सदस्य हैं? यह समिति कैसे काम कर रही है? ठीक–ठाक चल रही है? वे समिति के दामों से संतुष्ट हैं? वगैरह–वगैरह. चौपाल में लंबी बातचीत के बाद प्रधानमंत्री ने पूछा, इस गांव में मुसलमान रहते हैं? मैं उनके घरों में जाना चाहता हूं. इस तरह उनके घर गये. वहां भी बैठे, बातें की. फिर पूछा, क्या यहां हरिजन हैं? वहां से वे हरिजन के घर गये. भीड़ को पीछे छोड़ कर. उनसे पूछा कि क्या आपका दूध भी उसी बर्तन में डाला जाता है, जिसमें औरों का डाला जाता है? क्या आप उसी कतार में खड़े होते हैं, जिसमें ब्राह्मण खड़े होते हैं? इस तरह सुबह दो बजे तक प्रधानमंत्री गांव के लोगों के साथ बातें करते रहे. घर–घर घूम कर.
चंद्रशेखर ने तुरंत कहा, कोई दिक्कत नहीं. अगली सुबह दूरदर्शन पर जाऊंगा. देश को संबोधित करूंगा कि हम गहरी मुसीबत में हैं. विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया है. विदेशों से विकास के लिए पूंजी नहीं मिल रही. हम विदेशों से चीजें मंगाना कम या बंद कर रहे हैं. बहुत जरूरी चीजें ही आयेंगी. हम देश बचायेंगे. उन्होंने कहा कि यह फकीरों का देश रहा है. देश के लोग ऐसे संकट में साथ होंगे.
जब संकट हो, तो साहस के साथ कदम उठाना, नेतृत्व का पहला गुण होता है. आज देश के नेताओं ने यह गुण खो दिया है. एक नेता का राजधर्म है कि जब देश संकट में हो, तो वह सब चीजों से ऊपर उठकर देश के हित में काम करे. प्रधानमंत्री को आम जनता ‘मौन मनमोहन सिंह’ कहने लगी है. चिदंबरम साहब, प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को दोषी बता रहे हैं. पर देश की जनता से कोई नेता या दल संवाद नहीं कर रहा कि इस अर्थसंकट की आग कैसे बुझेगी?
देश में कोयला का बड़ा भंडार है, पर हम कोयला नहीं निकाल पा रहे. लेकिन कम से कम कोल गैस के आधार पर पेट्रोलियम पदार्थो के विकल्प तो ढूंढ़ सकते हैं. इससे विदेशी मुद्रा भंडार में कितनी बड़ी बचत होगी? मैनुफैरिंग के क्षेत्र में मध्यम और छोटी इकाइयां बंद हो रही हैं. ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में भी मौलिक और नये रास्ते खोज कर देश को बचाने का अभियान चलना चाहिए. ये तात्कालिक रास्ते या कदम हो सकते हैं. यह काम हर मुल्क की राजनीति करती है. पर, इस देश का क्या हाल है? विचार, दर्शन और नीतियों के आधार पर राजनीतिक दल दरिद्र और शून्य हैं. हद तो तब हो गयी, जब इस अर्थसंकट के लिए वित्त मंत्री ने 2009-11 में प्रणब मुखर्जी द्वारा लिये गये कदमों को जिम्मेदार ठहराया.