।। इला पटनायक ।।
(अर्थशास्त्री)
वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस बयान के बाद कि रुपया अंडरवेल्यूड है, के एक दिन बाद ही डॉलर के मुकाबले रुपया 68 से ऊपर चला गया. इससे साफ जाहिर होता है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है.
मई महीने से अब तक रुपये के मूल्य में करीब 20 फीसदी की गिरावट आयी है. यह उभरती अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक है. अभी हालात और कठिन होनेवाले हैं. सीरिया पर अमेरिकी हमले की आशंका के बाद तेल की कीमतों में उछाल आना तय है. इससे भारत का आयात खर्च बढ़ना तय है.
मौजूदा आर्थिक हालात के मद्देनजर सरकार को सख्त कदम उठाने चाहिए. इसके बदले सरकार खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने पर आमदा है. इस कानून से सरकारी खर्च का बढ़ना तय है.
इस कानून के लागू होने के बाद राजस्व घाटा और बढ़ेगा क्योंकि इसे अमल में लाने पर लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है. राजस्व घाटे के साथ ही चालू बचत खाता भी खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. आज चालू बचत खाता 90 बिलियन डॉलर हो गया है, जो 2007 में आठ बिलियन डॉलर था.
यानी की चालू बचत घाटा जीडीपी का 5 फीसदी हो गया है. यही नहीं शार्ट टर्म बाहरी कर्ज 170 बिलियन डॉलर हो गया है. जबकि विदेशी मुद्रा भंडार महज 280 बिलियन डॉलर है.ऐसे में भारत के पास आयात के लिए सिर्फ पांच महीने की विदेशी मुद्रा बची है. अगर हालात ऐसे ही रहे, तो 1991 की स्थिति का सामना करना पड़ सकता है. देश की आर्थिक स्थिति 2008 के बाद से ही खराब होने लगी थी.
विकास दर कम होने के बावजूद सरकार का खर्च काफी बढ़ गया. चुनावी साल होने के कारण सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की कीमत में 40 फीसदी का इजाफा किया. साथ ही किसानों के लिए 70 करोड़ करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया. सरकार को भले ही इसका चुनावी लाभ मिला, लेकिन अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा.अब खाद्य सुरक्षा कानून लागू किया जा रहा है.
ऐसे में राजस्व घाटे को जीडीपी का 4.8 फीसदी रखने का लक्ष्य हासिल करना मुमकिन नहीं है. शुरुआती दौर में रिजर्व बैंक ने रुपये की कीमत को थामने के लिए कदम उठाया. लेकिन ये सारे कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं. यह सभी जानते थे कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत के बाद उभरती अर्थव्यवस्थाओं के मुद्रा पर दबाव पड़ेगा.
इसका सबसे अधिक असर कम विकास दर और अधिक चालू बचत घाटे वाली अर्थव्यवस्थाओं की मुद्रा पर पड़ना तय था. इसके बावजूद भारत सरकार ने कदम नहीं उठाये. भारत में विकास दर कम होने, औद्योगिक उत्पादन में लगातार गिरावट आने से निवेशकों का रुख अमेरिका और यूरोप की ओर हो गया.
महंगाई दर अधिक होने से भारतीय कंपनियों का मुनाफा कम होने लगा और उनकी विस्तार योजनाओं पर ग्रहण लग गया. सरकारी योजनाएं घोटालों के कारण लटक गयीं. इससे बाजार में निराशा का माहौल छा गया. इसे दूर करने के लिए सरकार ने कोई कोशिश नहीं की. ऐसे में जैसे ही डॉलर के मुकाबले रुपये में गिरावट आने लगी और क्रेडिट एजेंसियों के रेटिंग कम करने के डर से सरकार ने इसे रोकने की कोशिशें शुरू की, लेकिन अक्सर सरकार की ऐसी कोशिशें नाकाम होती हैं.
सरकार ने रुपये की गिरावट को थामने के लिए सोने पर आयात कर लगा दिया. रिजर्व बैंक और सेबी ने कई कदम उठाये. रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रलय में इन कदमों को लेकर सामंजस्य नहीं दिखा. इसका असर बाजार पर पड़ा और निवेशक संपत्ति रुपये में खरीदने से बचने लगे. इससे डॉलर की मांग बढ गयी. इन कदमों से वित्तीय बाजार के उदारीकरण के सरकारी दावे पर भरोसा कम हुआ.
इसके लिए सरकार की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है. सरकार ने दूसरे आर्थिक सुधारों पर अमल नहीं किया. जब हालत खराब होने लगे तो रिटेल, बीमा और विमानन क्षेत्र में एफडीआइ को मंजूरी दी गयी. लेकिन तबतक भारतीय बाजार पर निवेशकों का भरोसा कम हो चुका था. ऐसे में इन कदमों का लाभ नहीं मिला. मौजूदा हालात से निकलने के लिए आर्थिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाना ही होगा.
अभी हालात और कठिन होने वाले हैं. सीरिया पर अमेरिकी हमले की आशंका के बाद तेल की कीमतों में उछाल आना तय है. इससे भारत का आयात खर्च बढ़ेगा और स्थिति और विकट होगी.
कारण और समाधान
– बढ़ते राजस्व घाटे, और चालू बचत घाटा के कारण ही डॉलर के मुकाबले गिर रहा है रुपया.
– दूसरे दौर के आर्थिक सुधार से ही भारतीय बाजार में लौटेगी रौनक.