हम आधी आबादी, खास कर किशोरियों की सुरक्षा के प्रति गंभीर नही हैं. आज चाहे गांव का समाज हो, या शहर का, पड़ोसीपने का घोर अभाव है. लोग अपने इर्द-गिर्द भी नजर नहीं रखते..
लोग अपने-अपने तजरुबे के मुताबिक, अपने साथ घटी घटनाओं के इर्द-गिर्द सोच का ताना-बाना बुनते हैं. हरेक के विश्लेषण में अपनी-अपनी हकीकत होती है. भारत भ्रमण पर आनेवाले पर्यटक अलग-अलग तरीके से अपनी आपबीती बताते रहे हैं. हमें इनका विश्लेषण करते वक्त सावधानी बरतनी होती है, हकीकत को टटोलना होता है. महिलाओं और बच्चों, खास कर लड़कियों की सुरक्षा का सवाल भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के बहुत से देशों में चिंता का विषय है..
लेकिन असल सवाल भारत या विदेश का नहीं, सभी लोगों के द्वारा खुद को सुरक्षित महसूस करने का है. लड़कियों के साथ यौन प्रताड़ना की घटनाएं घटित हो रही हैं, इससे किसी को इनकार नहीं होगा. हमारे देश में महिलाओं, किशोरियों के साथ बलात्कार, छेड़छाड़, अमानुसिक उत्पीड़न की घटनाएं समय-समय पर सामने आती रहती हैं. कोई हमें यह बताये कि भारत महिलाओं के लिए स्वर्ग है या नरक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क तब पड़ेगा जब आम भारतीय जनमानस ऐसी घटनाओं के प्रति सजग होगा.
वर्षो पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थी, यह बात कोई दावे के साथ नहीं कह सकता था, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि ऐसी घटनाएं आम नहीं थीं. अब लोग सीमा लांघते जा रहे हैं. हरेक समाज में, चाहे वह गांव का समाज हो या शहर का, ऐसा लगता है कि एक तरह की असुरक्षा की भावना बढ़ी है. इसके लिए कौन जिम्मेवार है, किसकी कितनी भूमिका है, कहां यह ज्यादा घटित हो रहा है.. ऐसे सवालों पर विचार करने पर दिख यह रहा है कि ऐसी घटनाएं हर जगह घटित हो रही हैं, इसके लिए हर तरह के लोग जिम्मेवार हैं, अमीर हो या गरीब सभी जगह यह समस्या है. असुरक्षा ने अब उम्र की सीमाओं को भी तोड़ दिया है. ऐसी घटनाओं के शिकार हर उम्र, हर वर्ग, हर जाति, हर धर्म के लोग हो रहे हैं.
ऐसे कितने मामले सामने आ रहे हैं, ऐसी घटनाओं के पीछे किस तरह की मानसिकता काम करती है, और इनसे बचने के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं, ऐसे विषयों पर देश में गहन चिंतन की आवश्यकता है. ऐसी ज्यादातर घटनाएं सामने नहीं आ पाती हैं. जो आंकड़े उपलब्ध होते भी हैं वे अपडेट नहीं होते हैं. इस विषय पर शोध का भारी अभाव है. महिला उत्पीड़न का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि उसे बलात्कार का शिकार होना पड़ा. शारीरिक छेड़छाड़, घूरना, तेजाब फेंकना, बलपूर्वक उसे अपनी तरफ लाने का प्रयास करना, ऐसे सभी मामले महिला उत्पीड़न के दायरे में शामिल हैं. लेकिन लगता है कि उत्पीड़न की घटनाओं से निपटने के लिए हम तैयार नहीं हैं, न सामाजिक रूप से और न ही संस्थागत रूप से. अकसर कहा जाता है कि सिनेमा और टेलीविजन सीरियल के प्रभाव, या फिर समाज में आ रहे बदलाव के कारण ऐसी घटनाएं हो रही हैं. हो सकता है, इसमें आंशिक सच्चई हो, लेकिन इसके और भी कारण हो सकते हैं.
हकीकत यही है कि हम आधी आबादी, खास कर किशोरियों की सुरक्षा के प्रति गंभीर नही हैं. आज चाहे गांव का समाज हो, या शहर का, पड़ोसीपने का अभाव हो गया है. लोग अपने इर्द-गिर्द भी नजर नहीं रखते. वाच कल्चर खत्म हो रहा है. छेड़छाड़ की घटनाएं सरेआम होती हैं, किसी से जबरदस्ती किया जाता है, लेकिन हम रुक कर ऐसी घटनाओं की रोकथाम की दिशा में प्रयास नहीं करते. यह काम हम कानून का अनुपालन करनेवाली एजेंसियों पर छोड़ देते हैं. हमें समझना होगा कि एक नागरिक के रूप में हमारी कुछ जवाबदेही है, और जब हम यह समझने लगेंगे तब हमें किसी विदेशी छात्र द्वारा भारत भ्रमण के बाद लिखे गये संस्मरण से शर्मिदा नहीं होना पड़ेगा. (बातचीत : संतोष कुमार सिंह)
रजिया इस्माइल
कन्वीनर, इंडिया अलांयस फॉर चाइल्ड राइट्स