–एडवांस टेक्नोलॉजी 1 –
आम धारणा है कि ट्रेनों में तकनीक के इस्तेमाल की रफ्तार धीमी है. पर हकीकत यह है कि ट्रेनों में बड़े स्तर पर नयी तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है. केवल रफ्तार ही नहीं, ब्रेकिंग तकनीक, ट्रैक में सुधार, ऊर्जा बचत प्रणाली और सुरक्षा से संबंधित तकनीकी परिवर्तनों ने ट्रेनों को नया स्वरूप दिया है.
जब आप नयी कार खरीदने जाते हैं, तो उसमें पहले की अपेक्षा ज्यादा फीचर्स होते हैं. अब तो इनमें सेटेलाइट नेविगेशन और सेंसर तकनीक का भी इस्तेमाल हो रहा है. हवाई जहाजों में केवल बाहरी डिजाइन ही नहीं बदला है, बल्कि उन्नत इंजन, आरामदेह कुरसियों और मनोरंजन के लिए नयी तकनीक का खूब प्रयोग हुआ है.
पर ऐसा न समङों कि कार और हवाई जहाज के मुकाबले ट्रेनें इस मामले में पीछे हैं. ट्रेनों में बेहतर तकनीक के इस्तेमाल का ही कमाल है कि अधिक टिकाऊ पटरियां बिछायी जा रही हैं, ब्रेक सिस्टम मजबूत हुआ है और ट्रेनों को इस तरह डिजाइन किया जा रहा है, जो 500 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पर भी सुरक्षित रहें.
अब इस तकनीक पर भी काम हो रहा है कि ट्रेनों के ब्रेकिंग सिस्टम से कैसे विद्युत ऊर्जा पैदा कर उसे छोटे पावर ग्रिड में स्टोर किया जाये. और इससे भी आगे, चलते–फिरते प्लेटफॉर्म की भी योजना बनायी जा रही है.
कंप्यूटरीकृत प्रणाली
ट्रेनों में कंप्यूटरीकृत प्रणाली के इस्तेमाल से बड़ा बदलाव आ रहा है. हाल के दिनों में, डीजल और इलेक्ट्रिक ट्रेनों को कंप्यूटर प्रणाली से जोड़ा गया है. इस प्रणाली का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. घिसी हुई, चिकनी, या सड़ी–गली पत्तियों से पटी पटरियों पर जब ट्रेन दौड़ती है, तो पहिये पूरी ताकत से ट्रैक पर पकड़ बना कर नहीं रख पाते. इस फिसलन के कारण न केवल ऊर्जा नष्ट होती है, बल्कि इंजन की खींचने की शक्ति भी घटती है.
फिसलन की स्थिति में कंप्यूटर प्रणाली पहिये को दी जानेवाली शक्ति तब तक घटाती है, जब तक कि पहिये ट्रैक पर पूरी क्षमता से पड़ने न लगें. इस प्रणाली में छिड़काव यंत्रों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जो मुश्किल स्थिति में पटरियों पर बालू का छिड़काव करता है.
यह महत्वपूर्ण है कि जब अतिरिक्त खिंचाव की जरूरत होती है, तब एक रेल इंजन महज 24 घंटे में तीन टन बालू का छिड़काव कर सकता है. अमेरिका की जेनरल इलेक्ट्रिक कंपनी ने ‘स्लिप कंट्रोल’ टेक्नोलॉजी से एक इंजन से खींचे जानेवाले 26 डिब्बों की संख्या 31 कर दी. कंप्यूटरीकृत प्रणाली में उन ‘स्लेव लोकोमोटिव्स’ को जोड़ा गया है, जो पूरे ट्रेन में लगे होते हैं. इनका काम ऑपरेटर के हर एक्शन की प्रतिकृति तैयार करना होता है.
कुल मिला कर इसका सिद्धांत ऊर्जा वितरण पर काम करता है. ओलिवर वाइमैन नामक कंसलटेंसी चलानेवाले कार्ल वान डाइक के अनुसार, यह प्रणाली रेडियो प्रणाली से अधिक सुरक्षित है. इसके माध्यम से 200 या इससे भी अधिक डिब्बे वाली ट्रेनों को चलाया जा सकता है. इससे साफ पता चलता है कि अमेरिका, कनाडा और मेक्सिको में दो दशकों (2006 तक) में क्यों नेटवर्किग में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि कुल ट्रैक में कमी आयी है.
ब्रेकिंग प्रणाली
ट्रेनों में ब्रेकिंग प्रणाली सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है. किसी चलती ट्रेन को ब्रेक लगा कर रोकने का मतलब है 80 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ रही सौ गाड़ियों को दो किमी दूर ट्रैक से खींचना. केवल यूरोप की बात करें, तो अकेले 2011 में 2300 रेल दुर्घटनाओं में 1239 लोग मारे गये थे.
इसी तरह एशिया के कई विकासशील देशों में जहां आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल कम है, वहां रेलवे दुर्घटनाएं बहुत आम हैं. सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि जितनी तेज गति से पहिये घूमते हैं, उतनी ही तेजी से ब्रेक शूज गरम होते हैं. इससे घर्षण घटता है और साथ ही ब्रेकिंग पावर भी.
इस अवस्था को ‘हिट फेड’ भी कहते हैं. जैसा कि हम जानते हैं कि लगभग सभी ट्रेनों में ब्रेक पावर के लिए संपीड़ित वायु (कंप्रेस्ड) का इस्तेमाल किया जाता है. जब इंजन स्टार्ट होता है, तो एयर ब्रेक डिब्बे दर डिब्बे एक्टिवेट होता है (इंजन से लेकर ट्रेन के अंतिम डिब्बे तक).
ऐसा करने में कम से कम दो मिनट का समय लगता है. यानी एयर टय़ूब के जरिये सिग्नल अंतिम डिब्बे तक पहुंचती है. आधुनिक ट्रेनों में ब्राउनियर ब्रेक शू का इस्तेमाल किया जाता है, जो रेसिन, इलास्टोमर्स और मिनरल फाइबर के बने होते हैं. इससे पहिये और ट्रैक के बीच घर्षण बल अधिक होता है. जबकि तापमान अधिक रखा जाता है, पर कंपन बहुत कम होता है.
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अब ब्रेक पावर का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक पद्धति से किया जा रहा है, ताकि इसके इस्तेमाल से एक ही बार में सभी डिब्बों पर ब्रेक शू लग सके. अमेरिका में छह साल पहले एक मालगाड़ी में ‘इलेक्ट्रॉनिकली कंट्रोल्ड न्यूमेटिक ब्रेक्स’ का इस्तेमाल किया गया था. हालांकि पूरा सिस्टम महंगा है, पर यह तकनीक तेजी से इस्तेमाल में लायी जा रही है, खास कर खनन करने वाली कंपनियां, जो लंबे ट्रेनों का संचालन करती हैं.
(द इकोनॉमिस्ट से साभार, प्रस्तुति : संजय कुमार सिन्हा)