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दलित ही सचमुच आजाद हुआ

सवर्ण, तो कई मायने में आजादी के पहले भी आजाद थे. दलित तो सदियों से गुलामी में थे. जाति व्यवस्था ने उन्हें सामाजिक तौर पर गुलाम बना रखा था. राजनीति में उनका कोई इतिहास नहीं मिलता. आजादी के बाद दलितों को सिर्फ अंगरेजों से आजादी नहीं मिली. इस दिन से उनकी सामाजिक-राजनीतिक आजादी की भी […]

सवर्ण, तो कई मायने में आजादी के पहले भी आजाद थे. दलित तो सदियों से गुलामी में थे. जाति व्यवस्था ने उन्हें सामाजिक तौर पर गुलाम बना रखा था. राजनीति में उनका कोई इतिहास नहीं मिलता. आजादी के बाद दलितों को सिर्फ अंगरेजों से आजादी नहीं मिली. इस दिन से उनकी सामाजिक-राजनीतिक आजादी की भी शुरुआत हुई. इस तरह देखें तो पिछले साढ़े छह दशकों में दलित-आदिवासी ही आजाद हुए हैं.

किसी भी समाज के विकास का विेषण दो तरह से होता है. यदि हम आज के संदर्भ में दलित समुदाय की स्थिति की तुलना सवर्ण समाज से करें, तो वे काफी पीछे खड़े नजर आते हैं. अगर दलित-आदिवासी की तुलना इनके अतीत से की जाये, तो यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यह समाज एक सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के दौर से गुजर रहा है. उदाहरण के लिए मैं पिछले दिनों जमशेदपुर से कोलकाता हाइवे से 30 किलोमीटर दूर यू-टर्न लेते हुए 10 किलोमीटर अंदर एक आदिवासी गांव में गया. मेरे साथ रांची के कुछ स्थानीय लोग भी थे. करीब 5 बजे हम वहां पहुंचे. हमें अपनी गाड़ी रुक-रुक कर चलानी पड़ी, क्योंकि आगे 20 लड़कियां साइकिल से जा रही थीं. वे सभी इंटर कॉलेज में पढ़नेवाली थीं और छुट्टी के बाद घर जा रही थीं.

जमशेदपुर से आगे हम रांची के लिए रवाना हुए. शाम के करीब सात बजे हम आदिवासी हाट यानी स्थानीय बाजार में पहुंचे. वहां एक दृश्य ने मेरा ध्यान खींचा. वहां हर आदिवासी युवा जींस पहने हुआ था. ग्रामीण प्रदेशों में मड़ुवा, सांवा, टांगून, साठी आदि अनाजों की खेती खत्म हो गयी है, जो एक जमाने में दलितों का भोजन माना जाता था. जमींदार भी इन अनाजों की खेती करते थे. वे मोटा अनाज या तो गाय-भैंसों को खिलाते थे या दलित को मजदूरी के रूप में देते थे. इस बीच दलित व गैर दलित के खाद्य स्नेत का अंतर कम हो गया है. सबसे बड़ी क्रांति तो यही है कि हमने ‘फूड सोर्स इक्वलिटी’ यानी भोजन के स्नेत की समता प्राप्त की है. भोजन, वस्त्र व गहनों में वर्चस्ववाद खत्म हुआ है. पहले, बीस साल से कम उम्र के दलित युवक धोती नहीं पहनते थे. भोजन और पहनावा में जो हिरारकी (पदानुक्रम) थी वह खत्म हुई है. दलितों के पेशे में भी बदलाव आया है.

पूरे परिदृश्य के संदर्भ में यदि बात की जाये, तो आजादी के बाद दलितों के ऊपर उच्च जाति का शिकंजा ढीला हुआ है. उन पर दादागीरी करनेवालों की सामाजिक शक्ति का हृास हुआ है. सवर्ण, तो कई मायने में आजादी के पहले भी आजाद थे. दलित तो सदियों से गुलामी में थे. जाति व्यवस्था ने उन्हें सामाजिक तौर पर गुलाम बना रखा था. आजादी के बाद दलितों को सिर्फ अंगरेजों से आजादी नहीं मिली. इस दिन से उनकी सामाजिक-राजनीतिक आजादी की भी शुरुआत हुई. इस तरह देखें, तो पिछले साढ़े छह दशकों में दलित-आदिवासी ही आजाद हुआ है. भारत में यह कल्पना करना कि कोई दलित मुख्यमंत्री हो सकता है, राष्ट्रपति हो सकता है, लखपती हो सकता है, पहले संभव ही नहीं था. हां, लेकिन यह प्रक्रिया अभी बीच रास्ते में ही है.

टीवी पत्रकार रवीश कुमार की एक विशेष रिपोर्ट पर गौर करें, तो देखें कि दिल्ली में जब सिक्योरिटी गार्ड की जाति के बारे में पूछा गया तो बहुसंख्यक गार्ड यूपी व बिहार के सवर्ण जातियों के थे. पेशा दलितों के साथ शोषण का बड़ा आधार था. यह जकड़बंदी आज टूट गयी है. आज दलितों के बीच में मध्यम वर्ग व उच्च तबके के बीच से निम्न वर्ग पैदा हो रहा है.

पहले सामाजिक प्रतिष्ठा के जो मानक तय थे, उसमें समानता हासिल करना नामुमकिन था. बिहार में यादवों ने जनेऊ पहनना शुरू किया था मगर उन्हें क्षत्रिय का दर्जा नहीं मिला. जन्म से ही जाति निर्धारित हो जाती थी. अब मानक सामाजिक से बदल कर भौतिक होते जा रहे हैं. इस लिहाज से भौतिक मानक हैसियत के प्रतीक बन गये हैं. क्रांति दलित के घर में हुई है. संसद का सामाजिक चरित्र भी बदला है. अधिकतर राज्यों के मुख्यमंत्री गैर ब्राहमण और गैर ठाकुर हैं. आजादी के बाद उच्च जाति का राजनैतिक ह्रास व दलितों का उभार हुआ है.

बात आरक्षण की, तो इसका आधार सामाजिक ही होना चाहिए. मगर आरक्षण बना है आरक्षण की जरूरत समाप्त करने के लिए. मुङो आरक्षण से लाभ मिला है, तो मेरे बच्चों को नहीं मिलना चाहिए. आरक्षण के खिलाफ हो-हल्ला होने का कारण है कि उच्च जातियां अपना ह्रास देख रही हैं और आरक्षण का पीढ़ी दर पीढ़ी उपयोग देख रही हैं. देखा गया है कि आइएएस अधिकारी रिटायर होने के बाद आरक्षण वाली सीट से चुनाव लड़ता है, जबकि उसको इसकी कोई जरूरत नहीं. वास्तव में ड्रग ऐडिक्शन की तरह उन्हें आरक्षण की लत लग गयी है.

दलितों के साथ अत्याचार के मामले भी सामने आते रहे हैं. खैरलांजी और सोनी सोरी के साथ हुई घटना चंद उदाहरण हैं. मुङो लगता है कि अभी इस तरह की हिंसक घटनाएं और बढ़ेंगी. सवर्ण समाज दलित आदिवासियों को अपना गुलाम समझता था. मगर अब दलित आदिवासी को दबाना मुश्किल है. अब दलित आदिवासी आंखों में आंखे डाल कर बात करने लगा है. जब अब्राहम लिंकन ने अश्वेतों को आजाद घोषित कर दिया, तो लगभग 40 वर्ष तक लिंचिंग (गैरकानूनी ढ़ग से प्राणदंड) की वारदातें जारी रहीं. पहले दलित किसी न किसी की जागीर समङो जाते थे.

वन कानून आदिवासियों को कमजोर बनाने वाला है. आदिवासी चिंतकों को यह विचार करने की जरूरत है कि उन्हें इस जीवन से ऊपर उठना है या नहीं! प्रारंभ में हम सभी आदिवासी थे. विकास के क्रम में परिवर्तित हुए. आदिवासियों को सोचना होगा कि उन्हें मुख्यधारा में आना है या नहीं!

पिछले छह दशकों में दलित मुक्ति की चर्चा जब भी और जहां भी होती है , उसका प्रस्थान बिन्दु नौकरियों में रिजर्वेशन होता है , और अंत भी इसी प्रश्न पर होता है. दलित उत्थान की बहसों की धुरी नौकरी ही रहती है. दलित अधिकार का अर्थ नौकरियों से ऊपर नहीं उठ पा रहा. इसमें कोई शक नहीं कि दलित समाज ने आज जो भी हैसियत हासिल की है , उसका कारण सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में रिजर्वेशन ही है या विधायिका में प्रतिनिधित्व. लोकसभा में लगभग सवा सौ दलित सांसद हैं. यदि रिजर्वेशन खत्म कर दिया जाये , तो यह संख्या शायद दस का आंकड़ा भी पार नहीं कर सकेगी. छह दशकों में हुई यह एक मूक क्रांति से कम नहीं है. दलित आंदोलन की त्रसदी है कि वह नौकरियों में अपने अधिकार से आगे नहीं बढ़ पाता. सरकार , मुख्यधारा के राजनीतिक दल या बौद्धिक तबका भी शायद यही चाहते हैं कि दलित नौकरी से आगे की न सोचें. यह सबसे बड़ी त्रसदी है. क्या मात्र नौकरियों से ही दलित मुक्ति संभव है ? इस प्रश्न पर विचार प्राय: नहीं होता. दलित मुक्ति में एक औजार के रूप में नौकरियों का बड़ा महत्व है, पर हमें इसकी सीमाओं को भी समझना चाहिए.

भारत में सरकारी नौकरियों की कुल संख्या एक करोड़ 94 लाख है. संगठित निजी क्षेत्र में नौकरियों की संख्या मात्र 87 लाख है. इस तरह सरकारी और निजी क्षेत्र की कुल नौकरियों की संख्या 2.81 करोड़ है, जिसमें दलितों का अधिकार 63 लाख नौकरियों पर बैठता है. यानी अगर सरकारी और निजी क्षेत्र में दलितों का रिजर्वेशन पूरा भी कर दिया जाये, तो मात्र 63 लाख दलितों को ही लाभ मिल पायेगा , जबकि जरूरतमंद दलितों की तादाद करोड़ों में है. नेशनल सैंपल सर्वे ( 1993-94) के अनुसार भारत के कुल रोजगार का मात्र आठ प्रतिशत भाग संगठित क्षेत्र (सरकार और निजी क्षेत्र मिला कर) में है, शेष 92 फीसदी असंगठित क्षेत्र में. अर्थ यह कि सुखमय दलित भविष्य की संभावना असंगठित क्षेत्र में अधिक है, पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि संगठित क्षेत्र में दलितों की दावेदारी जरूरी नहीं है.

(बातचीत : सुभाष कुमार गौतम)

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