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रिपोर्टरों के एडिटर माने जाते थे विनोद मेहता वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता नहीं रहे नयी दिल्ली : जाने माने संपादक व विश्‍लेषक और कई अखबारों व पत्रिकाओं की सफलतापूर्वक शुरुआत करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता नहीं रहे. लंबी बीमारी के कारण रविवार को उनका निधन हो गया. वह 73 वर्ष के थे. मेहता आउटलुक […]

रिपोर्टरों के एडिटर माने जाते थे विनोद मेहता
वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता नहीं रहे
नयी दिल्ली : जाने माने संपादक व विश्‍लेषक और कई अखबारों व पत्रिकाओं की सफलतापूर्वक शुरुआत करने वाले वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता नहीं रहे. लंबी बीमारी के कारण रविवार को उनका निधन हो गया. वह 73 वर्ष के थे. मेहता आउटलुक पत्रिका के संपादकीय अध्यक्ष थे जिसकी उन्होंने शुरुआत की थी. फेफड़े के संक्रमण से पीड़ित मेहता कई माह से बीमार थे.
एम्स में भरती थे और जीवन रक्षक यंत्र पर थे. एम्स के प्रवक्ता अमित गुप्ता ने कहा कि विभिन्न अंगों के काम बंद कर देने के कारण उनका निधन हो गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेहता के निधन पर शोक प्रकट किया है. ट्विट किया कि अपने विचार में स्पष्ट और बेबाक विनोद मेहता को एक शानदार पत्रकार और लेखक के रूप में जाना जायेगा.
2011 में आत्मकथा ‘लखनउ ब्वाय’ लिखी और वे टीवी पर चर्चा करने वालों में लोकप्रिय चेहरा थे. हाल ही में उन्होंने एक और पुस्तक ‘एडिटर अनप्लग्ड’ लिखी, लेकिन दिसंबर में इसके लोकार्पण में हिस्सा नहीं ले सके. मेहता ने सफलतापूर्वक ‘संडे आब्जर्वर, ‘इंडियन पोस्ट’, ‘द इंडिपेंडेंट’, द पायनियर (दिल्ली संस्करण) और फिर आउटलुक की शुरुआत की. साल 1974 में उन्हें डेबोनियर का संपादन करने का मौका मिला. कई वर्ष बाद वह दिल्ली चले आये जहां उन्होंने ‘द पायनियर’ अखबार के दिल्ली संस्करण पेश किया.
उन्हें कुत्तों से काफी प्रेम था और उन्होंने एक गली के कुत्ते को गोद भी लिया था जिसका नाम एडिटर रखा था. इसका जिक्र आउटलुक में उनके लेख में अक्सर आता था. मेहता ने मीना कुमारी और संजय गांधी की जीवनी लिखी और 2001 में उनके लेखों का संकलन ‘मिस्टर एडिटर : हाउ क्लोज आर यू टू द पीएम’ प्रकाशित हुआ.
मेहता तीन वर्ष के थे जब विभाजन के बाद वह अपने परिवार के साथ भारत आये. उनका परिवार लखनऊ में बस गया जहां से उन्होंने स्कूली शिक्षा और फिर बीए की डिग्री हासिल की. बीए डिग्री के साथ उन्होंने घर छोड़ा और एक फैक्टरी में काम करने से लेकर कई नौकरियां की. उन्होंने सुमिता पाल से विवाह किया जिन्होंने पत्रकार के रूप में पायनियर में काम किया. दंपति को कोई संतान नहीं है. हालांकि ‘लखनउ ब्यॉय’ में मेहता ने लिखा है कि उनके अपने जवानी के दिनों के प्रेम संबंध से एक बेटी है.
एक दौर था, जब भारतीय मीडिया में संपादकों का बहुत ही आदर-सम्मान किया जाता था. चाहे वह प्रिंट मीडिया का संपादक हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का, उस जमाने में मीडिया घरानों में संपादक बहुत उच्च और सम्मानित स्थान रखते थे. अखबार, पत्रिका या न्यूज चैनल, हर जगह उन्हें यह अधिकार और आजादी थी कि वे खबरिया सामग्री को लोगों के सामने कैसे पेश करें. संपादकों पर मीडिया मालिकों का कोई दबाव नहीं होता था. शायद इसीलिए उस दौर में हमारा मीडिया लोकतंत्र के चौथे खंभे की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी निभा रहा था. विनोद मेहता उस दौर के प्रतीक हैं.
विनोद मेहता रिपोर्टरों के एडिटर माने जाते हैं. उन्हें किसी और चीज से कोई मतलब नहीं था, सिवाय इस बात के कि कैसे रिपोर्टर की खबरों को वरीयता दी जाये और अच्छी तथा सच्ची सामग्री लोगों तक पहुंचायी जाये. वे सिर्फ अपने संपादकीय कर्म को निभाया करते थे, उन्हें यह ख्वाहिश जरा भी नहीं थी कि उन्हें नेता बनना है या नेताओं से सांठ-गांठ कर कोई पद या लाभ प्राप्त करना है. न ही उन्हें कोई सरकारी पुरस्कार चाहिए था. उनको तो केवल और केवल संपादक रहना था.
अस्सी के दशक की पत्रकारिता में मुंबई में जितने भी बड़े संपादक हुए, उनकी तरह विनोद मेहता राजनेताओं से कभी प्रभावित नहीं होते थे और न ही उनको लुभाने की कोशिश करते थे. वे हमेशा ही राजनेताओं से एक प्रकार की दूरी रखते थे, जो कि एक अच्छे संपादक का गुण भी है. ऐसा नहीं है कि नेताओं से उनकी दोस्ती नहीं थी, लेकिन वह सिर्फ दोस्ती ही थी, उससे आगे न तो उनको उनसे कोई लाभ लेना था और न ही अपने संपादकीय कर्म से समझौता करना था.
विनोद मेहता के दौर के सभी संपादकों के मन में यही होता था कि आखिर ‘स्टोरी’ क्या है? किसी स्टोरी को कैसे लिखा जाये, जिससे कि वह हेडलाइन बने और लोग उस पर बहस करें, चर्चा करें. हालांकि मेहता ऐसा भी नहीं समझते थे कि उनकी स्टोरी से यह देश बदलेगा, लेकिन इतना जरूर देखते थे कि उनकी स्टोरी में कितना दम है. दरअसल, वह दौर प्रिंट मीडिया का था. पहले अखबारों का और फिर थोड़े बाद के दौर में राजनीतिक-सामाजिक पत्रिकाओं का दौर चला था.
विनोद मेहता में एक खास तरह का पत्रकारीय गुण था कि कैसे एक फीचर स्टोरी को ज्यादा प्रभावी रूप से लोगों के सामने लायी जाये. मेरी पत्नी सागरिका ने उनके साथ कई वर्षो तक काम किया है, इसलिए मैं उनकी पत्रकारीय शैली के बारे में अच्छे से वाकिफ हूं. सागरिका मुझसे अकसर कहती थी कि विनोद मेहता के लिए कोई रिपोर्टर या पत्रकार बड़ा-छोटा, जूनियर-सीनियर नहीं है. दरअसल, विनोद मेहता कोई भेदभाव इसलिए नहीं रखते थे, क्योंकि वे इस परंपरा को तोड़ना चाहते थे, जिसके तहत यह माना जाता था कि कोई बड़ी स्टोरी या कवर स्टोरी सिर्फ कोई सीनियर रिपोर्टर ही कर सकता है. मीडिया में विद्यमान ऐसी कई परंपराओं को तोड़ते हुए मेहता ने पत्रकारिता को स्टोरी फोकस्ड करने की पूरी कोशिश की और इसमें वे कामयाब भी रहे. हालांकि वे खुद हाइप्रोफाइल थे, बड़ी शख्सीयत थे, उन्होंने कई किताबें भी लिखीं, लेकिन इन सबके बावजूद वे अपनी सरलता बरकरार रखने में कामयाब रहे.
आउटलुक पत्रिका से हटने के बाद वे टीवी चैनलों पर बहसों में भाग लेते नजर आते तो थे, लेकिन उनका दिल हमेशा से प्रिंट मीडिया में ही था. उनको सबसे अच्छी बात यही लगती थी कि अगले दिन अखबार में कोई अच्छी स्टोरी छपे या आगे चलकर कोई अच्छा अखबार या राजनीतिक-सामाजिक पत्रिका निकले, जिसमें अच्छी से अच्छी कवर स्टोरी को जगह मिले. वे जब टीवी पर एक राजनीतिक विशेषज्ञ के रूप में बोलते थे, तो जरा भी नहीं डरते थे सच बात कहने में.
उनको इस बात से कोई मतलब नहीं होता था कि कोई उनकी बात से सहमत होगा या नहीं, बस वे सही-सही बोलते जाते थे. विनोद मेहता खुद को बहुत बुद्धिजीवी नहीं मानते थे, वे बस खुद को रिपोर्टरों का एडिटर कहलाना पसंद करते थे. आज के इस दौर में ऐसी बातें देखने-सुनने को नहीं मिलतीं. आजकल या तो संपादक का ओहदा ही मानो खत्म हो गया है, या यह संपादक नामक पद की एक नौकरी भर होकर रह गया है. पत्रकारों की स्वतंत्रता और संपादकों के अधिकार को लेकर मेहता ने कई जगहों से अपना इस्तीफा भी दिया था. आज मीडिया मालिकान का दौर है, लेकिन ऐसा नहीं है कि संपादक का पद पूरी तरह से गौण हो जायेगा.
मेरा मानना है कि मेहता के दौर जैसी पत्रकारिता के लिए संपादकों और पत्रकारों की स्वतंत्रता बहुत जरूरी है, तभी यह संभव है कि अखबार और पत्रिकाएं अच्छी स्टोरी को ब्रेक कर सकें. अगर मीडिया मालिकों की ओर से संपादकों को प्रोफेशनल स्वतंत्रता दी जाये, तो मैं समझता हूं कि आगे आनेवाले दिनों में हमें विनोद मेहता जैसे साहसी पत्रकार की कमी महसूस नहीं होगी.
उनको विनम्र श्रद्धांजलि!
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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