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इन बौछारों में होली होली
शरद तैलंग होलो, होली फिर आ गयी. हर साल की तरह, बिन बुलाये मेहमान की तरह या किसी चुनाव की तरह. लेकिन चुनाव और होली में इतना ही अंतर है कि होली तो एक साल में एक बार ही आती है, पर चुनाव जिनके लिये आने की अवधि तय है, वे कभी-कभी किसी रेलगाड़ी की […]
शरद तैलंग
होलो, होली फिर आ गयी. हर साल की तरह, बिन बुलाये मेहमान की तरह या किसी चुनाव की तरह. लेकिन चुनाव और होली में इतना ही अंतर है कि होली तो एक साल में एक बार ही आती है, पर चुनाव जिनके लिये आने की अवधि तय है, वे कभी-कभी किसी रेलगाड़ी की तरह समय से पहले भी टपक पड़ते हैं. कोई उम्मीदवार दो चुनाव क्षेत्रों से जीत जाये, तो एक पर पुन: चुनाव आ जाता है.
कोई उम्मीदवार भगवान को प्यारा हो जाये या किसी का चुनाव अवैध घोषित हो जाये, तो फिर चुनाव. बूथ केंद्रों पर कब्जा हो जाये, तो फिर चुनाव. सरकार गिर जाये, तो फिर चुनाव, पर होली के साथ ऐसा नहीं है. वो तो जब आती है तभी आती है. लगता है मैं होली के मूड में पटरी बदल कर चुनाव में घुस गया हूं. चलिये अब पुन: लाइन पर आता हूं
होली आते ही साफ सुथरे कपड़ों को अलमारी में रख कर कुछ पुराने तथा खराब कपड़ों को काम में लेने के लिये बाहर निकाला जाता है. चुनाव में भी तो कुछ पुराने खराब छविवाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारते हैं. होली में साफ छविवाले कपड़ों की छवि खराब होने का डर रहता है. यही हाल चुनाव का है, वहां भी आजकल खराब छविवाले, दाग लगे लोग ही काम आते हैं. होली में रंगों की बौछार होती है, तो चुनावों में एक-दूसरे पर दोषारोपणों की बौछार होती है. अन्य त्योहारों पर सभी जगहों की साफ सफाई की जाती है, पर होली और चुनावों में सभी जगहों पर गंदगी फैलाई जाती है. एक और बौछार भी बहुत प्रसिद्ध है, जनता पर मंहगाई की बौछार. यहां तक कि अब महंगाई के कारण लोग शादी का निमंत्रण भी इस तरह का भेजने के लिये बाध्य हो गये हैं-
‘भेज रहा हूं नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने का, हे मानस के राजहंस तुम कष्ट न करना आने का.
मुश्किल से ही मिल पायेगा आरक्षण भी गाड़ी का, समय बचेगा, खर्च बचेगा कपड़ों का और साड़ी का.
मोबाइल से शुभाशीष का मैसेज भी कर सकते हो,
और 501 रुपये का मनीऑर्डर भर सकते हो,
फिर भी आना चाहो तो तुम और किसी को मत लाना, यदि संभव हो तो भोजन भी अपने घर ही कर आना.’
अरे अरे अब होली की गाड़ी महंगाई के स्टेशन पर आ गयी, बार-बार ट्रैक बदल रही है, पर क्या करें होली के मौसम में रंगों के साथ-साथ इतनी तरह की बौछारें हो रही हैं कि ध्यान बार-बार भटक जाता है. आप कितना भी अपना ध्यान होली पर केंद्रित रखने की कोशिश करें, यह चंचल मन रास्ता बदल ही देता है. चारों तरफ इतनी समस्याएं हैं कि एक बात पर टिकना मुश्किल हो जाता है.
अब देखिये न, होली की मस्ती छा रही है, पर ध्यान क्रिकेट की तरफ जा रहा है. वहां भी चौकों और छक्कों की बौछार हो रही है. अब तो आलम ऐसा है कि मेरा एक क्रिकेट प्रेमी दोस्त जब लंगड़ाते हुए आ रहा था, तो कारण पूछने पर क्रिकेट की भाषा में ही बोला- यार ! गली में से जा रहा था, जो ज्यादा वाइड नहीं थी, कि पैर स्लिप हो गया. पेंट की क्रीज खराब हो गयी और लेग ब्रेक हो गया. ऑपरेशन के बाद एक पैर लांग लेग और एक शॉर्ट लेग हो गया.
अरे यार ! फिर गच्चा खा गया. ये होली तो बार-बार हाथों से फिसल जाती है, क्या करें जब देश में भांति-भांति की बौछारें सब को भिगो रही हों, तो रंगों की बौछार कितना असर डाल पायेगी. अब नीलामी में पैसों की बौछार भी अभी ही होनी थी. उस सूट के कपड़े का लफड़ा भी रंग ला रहा है.
अब होली मनायें तो मनायें कैसे? रंग लाते हैं, तो उसे घोलने के लिये पानी चाहिए और पानी नलों में आता नहीं है. मिठाई लाते हैं, तो नकली मावे के कारण बीमार होने का डर लगा रहता है. घर में बनाते हैं, तो नकली और असली घी-तेल की पहचान करना कठिन है. गुलाल लगाते हैं, तो आंखें जलने लगती हैं, उसमें भी पता नहीं क्या-क्या मिला देते हैं? लगता है कैंसर नामक बीमारी ने सारे व्यापारियों के साथ समझौता कर लिया है कि ‘तुम मुङो खून दो मैं तुम्हें धन दूंगा.’ अजी मैं फिर बहकने लग गया. अब होली आयी है, तो परंपरा निभानी ही पड़ेगी. आजकल हम लोग त्योहारों पर सिर्फ परंपरा ही तो निभा रहे हैं, और क्या करें.
दिवाली आती है, तो सब कहते हैं यह धन के बौछार का पर्व है, दशहरे को कहते हैं कि बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है, रक्षा बंधन को भाई-बहन के प्रेम का त्योहार मानेंगे और होली को कहेंगे प्यार और सद्भाव का पर्व है. सोचता हूं कि क्या प्यार और सद्भाव, भाई-बहन का प्रेम, बुराई का खात्मा सिर्फ एक दिन के लिये ही है? यदि नहीं, तो रोज ही होली या अन्य त्योहार क्यों नहीं मनाते हैं? जगत में प्रेम और भाईचारा बना रहे, तो रोज ही होली. रोज ही दिवाली है.
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