टॉप गियर:क्रांति संभव:ऑटो एक्सपर्ट
सोचिये, अगर हमारे शहर की सड़कों पर गूगल की टेस्ट कार दिखे, जो बिना ड्राइवर के चल रही हो. जो तमाम तरीके के कैमरे और मोबाइल उपकरण से फिट होकर, सवारियों से भरी. जो हर तरीके से सामान्य कार लगे लेकिन उसमें ड्राइवर नदारद हो. सोचिये कि दिल्ली के इंडिया गेट के आस-पास ऐसी कार दिखे, तो हंगामा ही हो जाए. वहां मौजूद टूरिस्ट अपनी आइसक्रीम फेंक कर कार ही देखने के लिए भागेंगे. दिल्ली पुलिस की पीसीआर वैन सक्रिय हो जाएंगी और छूटते ही ब्रेकिंग न्यूज से टीवी चैनलों के स्क्रीन भर जाएंगे. या फिर सोचिये कि वॉल्वो की कारें एक लाइन से चलती दिखें, जिनमें ड्राइवर बैठे तो हों लेकिन बेफिक्र अखबार पढ़ रहे हों, सैंडविच खा रहा हों, सिर टिका कर आराम कर रहे हों लेकिन कारें चलती जा रही हों. ऐसा हो तो तुरंत ट्रक ड्राइवर अपना काम धंधा छोड़ कर खोजने में लग जाएं कि ये टेक्नोलॅजी काम कैसे करती है और ट्रकों के काफिलों पर इसे कैसे फिट किया जा सकता है. या फिर वैसी कारें दिखें, जो सड़क पर ट्रैफिक ज्यादा होने पर आसमान में उड़ने लगें. मसलन, पटना के गांधी सेतु पर जाम लगा है, तो गंगाजी को उड़ कर पार कर लिया जाये. फिर जहां जगह खाली मिले उतर जायें किसी लाइन होटल पर. सोचने में मजेदार लगता है और बहुत अविश्वसनीय भी. लेकिन यह सिर्फ कल्पना की उड़ान नहीं, सच्चाई है. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी गाड़ियों पर टेस्ट चल रहे हैं.
अगर आप इंटरनेट वगैरह पर सर्फिग करते होंगे, तो समझ ही गये होंगे कि क्या कह रहा हूं मैं. लेकिन मेरा आज का सवाल दरअसल कुछ और है. वाकई अगर ये टेस्टिंग भारतीय सड़कों पर चल रही होती तो क्या होता? बहुत सी अलग चीजों के अलावा एक खास चीज होती- लोग इन्हें देखते, चर्चा होती, जो नहीं भी खरीद पाते, वो भी इनके एक-एक पहलू के बारे में कम से कम दस मिनट ज्ञान जरूर दे पाते. इसके आरएंडडी के हरेक पहलू से परिचय होता. लेकिन अभी इनकी अहमियत एक रोचक खबर से ज्यादा कुछ नहीं.
भारत में गाड़ियों की टेक्नोलॉजी से जुड़ी जानकारियां आम लोगों में कम ही देखने को मिलती है. मसलन एबीएस, ट्रैक्शन कंट्रोल, स्टेबिलिटी प्रोग्राम, सेरामिक डिस्क ब्रेक, टबरेचार्जर, सुपरचार्जर इत्यादि की जानकारी. और इसके पीछे वजहें तो कई हैं लेकिन एक बड़ी वजह है इन टेक्नोलॉजी से हमारी दूरी. आम तौर पर ये सभी फीचर्स भारत में इंपोर्टेड हैं. गाड़ी कंपनियां इन्हें अपने देशों से लेकर आती हैं और बताने की कोशिश करती हैं कि अमुक फीचर अमुक तरीके से काम करता है. ये सब टेस्ट कहीं और जर्मनी-जापान जैसी जगहों में होते रहे हैं, डेवलप कहीं और. फिर बनने के लिए चीन या भारतीय फै क्ट्रियों में पहुंचते हैं.
भारत भले ही दुनिया भर की कार और मोटरसाइकिल कंपनियों के लिए एक ग्लोबल हब बनता जा रहा हो, लेकिन मोटे तौर पर ये भरोसेमंद और सस्ते प्रोडक्शन हब का महिमामंडित नामकरण ही लगता है. आर एंड डी के नाम पर यहां सीमित कोशिशें दिखती हैं, कुछ कंपनियों ने हालांकि अपने आर एंड डी सेंटर भारत में खोले जरूर हैं. अब वहां क्या काम चल रहा है, ये तो जाहिर सी बात है कंपनियां नहीं बतायेंगी.
सरकार की तरफ से भी ऐसा कोई ठोस विजन नहीं दिखता है, जहां पर प्रयोग, टेस्टिंग और डेवलपमेंट पर जोर हो. जहां आम इनोवेटर्स या उत्साही नौजवानों को प्रोत्साहन दिया जाये. यहां विजन दिखा भी है, तो बहुत देरी से, जिसके पीछे निजी कंपनियों की कोशिश ज्यादा दिखी. कुछ जगहों पर तो इनका योगदान भारतीय ग्राहकों की आदतों के बारे में विदेशी इंजीनियरों को परिचित ही कराना मात्र होता था. हम तो इसी बात से खुश हो जाते हैं कि रोल्स रॉयस के अंदर एक ऑप्शन मालाबारी लकड़ी का भी है, जो भारत से जाता है.
विदेशों में अगर देखें तो सभी कार कंपनियां किसी न किसी तरीके से मोटरस्पोर्ट या रेसिंग से जुड़ी होती हैं. चाहे वो रेसट्रैक हों, या रेगिस्तान और कीचड़ भरी रैली. इन्हीं कांपिटिशन वाले माहौल में कंपनियां नयी-नयी टेक्नोलॉजी अपनी गाड़ियों में लगाती हैं. इंजीनियर दिन-रात लगे रहते हैं कि गाड़ियों का वजन कैसे कम रखा जाये, कैसे ज्यादा माइलेज निकाली जाये. इन सबके बाद रेस होती है, जिसमें सबकी कोशिशों का नतीजा दिखता है. मोटरस्पोर्ट प्रेमी इन्हें सामने से देखते हैं, मीडिया में इनका जिक्र होता है. आज यूरोप में जिस कल्चर को हम देख रहे हैं, वह इसी तरीके से पिछले सवा सौ सालों में बना है, जिसकी जरूरत भारत में भी है. भारत में फिलहाल कंपनियां बहुत ही सीमित तरीके से ऐसे इवेंट में हिस्सा ले रही हैं. आम ग्राहक बहुत दूर हैं इन सबसे.
भारत में गाड़ियों का एक आधा-अधूरा कल्चर विकसित हुआ है. यहां बड़े-बड़े अधिकारियों के लिए भी फेरारी और नैनो के बीच सिर्फ एक ही फर्क है, इनकी कीमत. वे दोनों कारों की बीएचपी, सेफ्टी फीचर्स, कमजोरियों और खूबियों को भूल जाते हैं. हीरो स्प्लेंडर और हायाबूसा, दोनों को मोटरसाइकिल ही मानते हैं. सबके लिए एक नजर, एक ही लाइसेंस है. सुपरकार और सुपरबाइक चलाने के लिए सिर्फ एक ही काबिलियत मायने रखती है आज की तारीख में, वो है खरीदने की ताकत. अब उतनी दमदार गाड़ियों को चलाना कैसे है, संभालना कैसे है इसकी फिक्र क्यों करनी. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, चालान कटेगा या फिर थाने से बेल लेना पड़ेगा.
सस्ती गाड़ियों के ग्राहक भी कम थोड़े न हैं. उन्हें सेफ्टी फीचर्स में पैसे नहीं खर्चने.‘एबीएस एयरबैग क्या है जी, इसका क्या काम हमें. एक बार खुला तो खुला, पैसे बर्बाद हुए न जी? थोड़े पैसे बच जाएंगे को इसमें तेल आ जायेगा. अंगरेज लोग डरपोक होते हैं इसलिए ये सब इजाद करते रहते हैं, हमें इनकी जरूरत नहीं.’ ऐसा बयान भारत के अधकचरे ऑटोमोबाइल कल्चर के सबूत हैं, जो अभी और विकृत ही होता जायेगा.
भारत में गाड़ियों का एक आधा-अधूरा कल्चर विकसित हुआ है. यहां बड़े-बड़े अधिकारियों के लिए भी फेरारी और नैनो के बीच सिर्फ एक ही फर्क है, इनकी कीमत.
वे दोनों कारों की बीएचपी, सेफ्टी फीचर्स, कमजोरियों और खूबियों को भूल जाते हैं. हीरो स्प्लेंडर और हायाबूसा, दोनों को मोटरसाइकिल ही मानते हैं. सबके लिए एक नजर, एक ही लाइसेंस.