कोई आठ महीने पहले जो सफर बड़ी उम्मीदों से शुरू हुआ था, वह कहां पहुंचा है और किधर जा रहा है, यह न देश जानता है और न इसके रहनुमा. सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा पहले हो रहा था- चुप्पे मनमोहन सिंह नहीं हैं, तो करीब-करीब उतने ही चुप्पे नरेंद्र मोदी हैं; कहीं दूर से डोरी खींचने वाली सोनिया गांधी नहीं हैं, तो नागपुर से डोरी खींचने वाला संघ है; अमेरिकी एजेंडा पूरा करने में बावले हुए मनमोहन सिंह नहीं हैं, तो चीन, जापान, अमेरिका आदि के सत्ताधीशों के सामने बावलापन दिखाती सरकार व प्रशासन है; उनके पास हमारे मुंह पर दे मारने के लिए आंकड़े थे, तो इनके पास खोखले शब्दों की तोपें हैं; और न वे किसी दिशा में चल पा रहे थे और न ये कोई दिशा खोज पा रहे हैं. हर तरफ बस एक आपा-धापी नजर आती है. और उसमें फंसे हैं बेचारे महात्मा गांधी!!
मुङो याद आता है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी उस सरकार के विदेश मंत्री हुआ करते थे जो अपने वक्त के ‘दूसरे गांधी’ के नाम से विभूषित जयप्रकाश नारायण के आशीर्वाद से बनी थी और ‘अपनी तरह से गांधी’ होने का दावा करने वाले मोरारजी देसाई के नेतृत्व में चल रही थी. और अटलजी उस राजनीतिक खेमे से निकले थे जो कड़वी गोली की तरह गांधी को निगलता तो था, लेकिन पचाने को तैयार नहीं था. लेकिन विदेश मंत्री अटलजी महात्मा गांधी के मुरीद होने लगे! बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी कि मुलाकात भी हो गयी और पूछने का अनौपचारिक मौका भी बन गया. अपने चिर-परिचित ठहाके और गंभीरता के कॉकटेल के साथ वह बोले : ‘‘क्या करूं, सारी दुनिया में यह देश पहचाना ही इस एक आदमी के नाम से जाता है!.. मैं समझ गया हूं कि अपना सिक्का चलाना हो तो इस आदमी का सिक्का चलाये रखना जरूरी है. यह 1977 की बात है. लगता है, आज 2015 में भी देश-दुनिया देख आये नरेंद्र मोदी भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि यदि अपना सिक्का चलाना हो तो इस बूढ़े के नाम का सिक्का चलाये रखना अपरिहार्य है, चाहे वह कितना भी घिस गया हो!.. लेकिन इस बूढ़े के साथ जो सबसे बड़ा खतरा है उसे पहचानने में अक्सर लोग भूल करते हैं, और वैसी ही भूल शायद मोदी भी कर रहे हैं कि गांधी की दुकान में छद्म नहीं चलता है. यह सरकार इसी में उलझ गयी है. पीएम सब कुछ गांधी के नाम से करना चाहते हैं : सफाई भी, प्रवासी भारतीय सम्मेलन भी! लेकिन जिस सीढ़ी से वह ऊपर पहुंचे हैं, वह गांधी-विरोध व गांधी-घृणा की जमीन पर टिकी है. तो मामला बहुत टेढ़ा हो जाता- गांधी में ‘आस्था रखनेवाला प्रधानमंत्री’ और गांधी की छाया से भी बिदकने वाला संघ परिवार! लेकिन प्रधानमंत्री ने रास्ता निकाल लिया है. वह मंच पर गांधी और शासन-प्रशासन में संघ के साथ रहेंगे. तभी तो वह एक सुर में कहते हैं : सबके साथ, सबका विकास; और उनके साथ होते हैं अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, दीनानाथ बत्र, साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति और इन सबके ध्वजवाहक बने हैं मोहन भागवत! ये सारे लोग अच्छे हैं या बुरे, इस विवाद में न पड़ें हम, बल्कियह देखें कि इनमें से कोई एक भी नहीं है जो सबको साथ ले कर चलने के लिए जाना जाता हो. अगर आज पूरा संघ परिवार यह कोटा तय करने में लगा है कि एक हिंदू औरत को कितने बच्चे पैदा करने चाहिए, तो इसके पीछे किसी के मुकाबले हिंदुओं की संख्या बढ़ाने की मानसिकता ही तो है! एक समाज का दूसरे समाज से मुकाबला किसी भी तरह सबको साथ लेने का आधार नहीं हो सकता. इस बारे में पार्टी में दो-एक कुनमुनाती आवाजें उठीं बस; और सरकार एकदम चुप है!
क्या वह चुप इसलिए है कि जो बोला जा रहा है, वह उसकी ही बात है? या कि वह चुप है क्योंकि कहीं ये दोनों रणनीतियां एक साथ ही तय की गयी हैं? छत्तीसगढ़ में मिशनरी स्कूलों पर दबाव बनाया गया है कि वे अपने यहां सरस्वती की मूर्ति स्थापित करें, शिक्षकों को ‘फादर’ की जगह ‘सर’ कहें. क्या सर कहना भारतीय संस्कृति है? या कि सच कहीं यह है कि हमारी मानिसक गुलामी हमसे ‘सर’ कबूल करवा कर आधुनिक होने का सुख पाती है, जबकि हमारा सांप्रदायिक मानस ‘फादर’ कहने से ईसाईयत का खतरा महसूस करता है? इस सरकार का सच क्या है, यह तो तभी पता चले न जब इस सरकार का मुखिया कुछ बोले!
वह चुप हैं और ये मुखर! बात यहां तक पहुंच गयी है कि अब गांधी की हत्या को ‘वध’ कह कर महिमामंडित करने वाले, गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को दार्शनिक का दर्जा दे रहे हैं और उसका मंदिर बनाने का आह्वान कर रहे हैं. साक्षी महाराज ने युवकों का आह्वान किया है कि वे गोडसे के विचारों का अध्ययन करें. अगर मुंबई में बाल ठाकरे की प्रतिमा स्थापित करने के लिए सरकारी जमीन मुहैया करवायी जा सकती है; अगर संसद में सावरकर की तसवीर लगवायी जा सकती है, तो कल को नाथूराम गोडसे की प्रतिमा लगाने से कैसे रोक लेंगे आप? यह सब जो हो रहा है और जिस दिशा में जा रहा है उससे गांधी का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि वे नफा-नुकसान की हमारी क्षमता से कहीं अलग व दूर जा चुके हैं. इतिहास ने उन्हें उनकी जगह पर प्रतिष्ठित कर दिया है. नुकसान इस देश और समाज का हो रहा है और आगे इससे भी ज्यादा होगा क्योंकि हमारा भारतीय समाज बना ही उस धातु से है कि जिसे जितने प्रेम से आप संभालेंगे यह उतना ही आपका हो कर रहेगा, जितनी जोर से इसे अपना बनाना चाहेंगे, उतना ही यह बिखरेगा!
महात्मा गांधी की हत्या इसलिए की गयी कि हिंदुत्ववादी उनसे असहमत थे. वह गांधी का होना अपनी कल्पना के भारत के लिए हानिकारक मानते थे. लेकिन वे किसी भी तरह, किसी भी हथियार से भारतीय जन-मानस में फैलते उनके प्रभाव का मुकाबला नहीं कर पा रहे थे. वे समझ गये थे कि इस आदमी का मुकाबला नहीं किया जा सकता है, इसे खत्म जरूर किया जा सकता है. 80 साल के एक बूढ़े-बीमार-से आदमी की हत्या करने का फैसला एक राष्ट्रीय संगठन लंबे सोच-विचार के बाद, अपने कई आला लोगों की मंत्रणा व सहमति से करे तो उसे किसी सिरफिरे का कारनामा नहीं कह सकते हैं. वैचारिक असहमति के कारण हत्या का यह आखिरी उदाहरण होता, तो यह जहर भी पिया जा सकता था. लेकिन जातीय श्रेष्ठता का फासीवादी दर्शन हत्याओं की सीढ़ियों पर पांव रखता हुआ ही चलता है. वही अब हो रहा है. छोटी-बड़ी जगहों पर सांप्रदायिक हत्याएं हो रही हैं. वे सारे लोग, जो अब तक समाज में हाशिए पर ठिठके थे, अब सरकारी पद, सम्मान, इनाम-इकराम पा रहे हैं. नया इतिहास पढ़ाने और नया विज्ञान सिखाने वाले सामने लाये जा रहे हैं. गांधी की हत्या के बाद भी हम किसी संस्था, संगठन, व्यक्ति, किताब, फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन ये तो हर उस अभिव्यक्ति को कुचल देने में ही विश्वास करते हैं जो आपसे सहमत नहीं है- चाहे वह गांधी हों कि पीके फिल्म!
यहीं पर सरकार की और सरकार के मुखिया की भूमिका बनती है. अगर सरकार दिशाहीन है और मुखिया खामोश, तो उसका नाम मनमोहन है या मोदी, देश को फर्क नहीं पड़ता है. आप मंच पर क्या कहते हैं और किसी विदेशी मेहमान के सामने क्या चेहरा पेश करते हैं, देश यह नहीं देखता है. वह देखता है कि आप फाइलों पर क्या लिखते हैं, आप अपने लोगों को निर्देश क्या देते हैं, आप नीतियां क्या बनाते हैं और नौकरशाही से उस पर किस तरह अमल करवाते हैं. वह देखता है कि आप सबको साथ ले कर चलने के रास्ते में बाधा खड़ा करने वालों से कैसे निबटते हैं. वह हर कदम पर, हर वक्त आपकी ही बनायी कसौटी पर आपको कसता है. और जब वह आपको खारिज करता है तब आपका नाम इंदिरा गांधी है कि होस्नी मुबारक, यह वह नहीं देखता है. आज 30 जनवरी को, राजघाट जाने से पहले आप भी और आप भी और हम भी और वे भी, स्वविवेक के आईने में खुद को देखें और फिर ही राजघाट पर कदम रखें.
कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार