।। दक्षा वैदकर ।।
कुछ माता-पिता ने इ-मेल व फेसबुक के जरिये तरह-तरह के सवाल पूछे हैं. एक मां का कहना है, ‘‘मेरा बेटा बहुत कम बोलता है. सारे बच्चे मैदान में खेलते हैं और यह न जाने बैठे-बैठे क्या सोचता रहता है.’’ एक अन्य मां का कहना है, ‘‘मेरी बेटी पहले मुझसे बहुत बात करती थी, लेकिन अब उसे दोस्तों से बात करना ज्यादा अच्छा लगता है.’’
हम सभी अपनी जिंदगी से ज्यादा दूसरों की जिंदगी में दखलअंदाजी करते हैं. हमारे दिमाग में ये बातें अधिक आती हैं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? उसेऐसा नहीं करना चाहिए? मैं जो कह रहा हूं, अगर वह वैसा करेगा, तो उसके लिए बेहतर होगा. इस तरह हम दूसरों के जिंदगी जीने के तरीके को तय करना चाहते हैं. हम उस इनसान को नियंत्रित करना चाहते हैं.
ऐसा हम इसलिए नहीं करते, क्योंकि इससे सामनेवाला का फायदा होगा. बल्कि इसलिए करते हैं, क्योंकि अगर सामनेवाला इनसान हमारी इच्छानुसार चलेगा, तो इससे हमें खुशी मिलेगी. बच्चों व माता-पिता के संबंधों में यह चीज सबसे ज्यादा होती है. हर माता-पिता को लगता है कि बच्च मेरी संपत्ति है. यह अभी छोटा है. यह अभी सही निर्णय नहीं ले सकता. इसके लिए हर चीजमुझेही तय करनी होगी.
ऐसे में माता-पिता खुद को मूर्तिकार और बच्चे को मूर्ति समझने लगते हैं. वे चाहते हैं कि उनकी मूर्ति बिल्कुल परफेक्ट बने. लेकिन ऐसा है नहीं. बच्चे मूर्ति नहीं हैं. उनका अलग सोच, दिमाग व स्वभाव है. माता-पिता का काम बच्चों को सारी सुख-सुविधाएं जैसे अच्छा भोजन व शिक्षा देना है और उन्हें उनका निर्णय खुद लेने के लिए प्रेरित करना है.
आप उन्हें दुनिया की सारी चीजों से वाकिफ करायें. आप उनसे कहें, ‘‘अगर आपको कुछ समझ में न आये, तो मैं आपके साथ हूं, आपको रास्ता दिखाने के लिए.’’ जब आप इस समझदारी से चलेंगे, तो आपसी संबंध नहीं बिगड़ेंगे. यदि आप बच्चों को हर चीज में टोकेंगे, उन्हें दूसरों बच्चों से सीख लेने को कहेंगे, उन्हें कहेंगे कि तुम कम बोलते हो, अपने दोस्त को देखो, उसके नंबर कितने अच्छे आये, तो आपका बच्च आपसे दूर जाने लगेगा. वह झूठ बोलेगा, बातें छुपायेगा. तब आप ही कहेंगे कि बच्च हाथ से निकल गया.
– बात पते की
* आप बच्चे को किसी रास्ते पर जाने से जितना रोकेंगे, वह उस रास्ते पर जाने के लिए उतना ही अधिक उतावला होगा. बेहतर है उसे खुद रास्ता चुनने दें.
* आपका बच्चा सही निर्णय ले, इसके लिए आपको बचपन से ही उसे थोड़ी-थोड़ी जिम्मेवारी देनी होगी, ताकि धीरे-धीरे उसमें समझ विकसित हो.