पाचाडि का शाब्दिक अर्थ है पांच डिह यानी पांच गांव. इसी पांच डिह को मिलाकर एक बाइसि होता है. यह झारखंड के सभी आदिवासी मूलवासियों के यहां अलग –अलग नाम एवं रस्म रिवाज से आदि काल से होते आ रहे हैं. यहां मूल रूप से कुड़मालि संस्कृति में इसके प्रयोजन एवं महत्व के बारे में विस्तृत रूप से उल्लेख किया जा रहा है.
ये मूलत: वर्षा आधारित कृषि करते हैं. इसलिए यह वर्षा के शुरू होने के उपरांत ही की जाती है. कुड़मि कबिला इसी पाचाडि के दिन से धान लगाना शुरू करते हैं. जिस खेत में पाचाडि होता है, उस खेत को पाचाडि खेत’ कहते है. यह खेत बहुत पहले से तय किया हुआ रहता है. इसी खेत में प्रति वर्ष पाचाडि करते हैं.
पाचाडि के पीछे लोकविश्वास
हमारी संस्कृति आत्मिक विश्वास से परिपूर्ण है. पाचाडि करने के पीछे यह धारणा है कि कृषि आजीविका के सर्वोत्तम संसाधन के रूप में किया जाता है. इसलिए इसके पूर्व अपने परिवार, मवेशियों को देवी–देवताओं द्वारा रक्षा करने के उद्देश्य से कृषि की जाती है. ताकि कृषि कार्य में उपयोग आने वाले सभी तत्व अच्छी तरह से स्वस्थ रहें. ऐसा करने से अधिक से अधिक वर्षा हो, बैल स्वस्थ रहें, हल चलाने वाले एवं धान बोने वाली स्त्रियां स्वस्थ रहें और अन्न की पैदावर अधिक हो. गांव में किसी तरह का रोग एवं महामारी न आये, इसलिए हलवाहे अपने एवं बैलों को निंगछा छोर करते हैं.
पाचाडि के पूर्व रस्म
पाचाडि करने के पूर्व किसानों को कई विधि –विधान से गुजरना पड़ता है. इसकी शुरुआत जेठ महीना में होने वाले रहइन पर्व से ही शुरू हो जाता है. कुड़मालि संस्कृति में आसाढ़ महीने में प्रत्येक ग्राम पंचायत जिसको बाइसि कहते हैं, जिसमें एक ग्राम देवता होता है. सर्वप्रथम इसकी पूजा की जाती है. जो नेंइआ यानी पाहान द्वारा की जाती है. इसमें एक बकरा एवं लाल मुर्गे की बली दी जाती है. इसके उपरांत प्रत्येक घर मेंआसाड़िकिया जाता है. इसमें प्रमुख रूप से रांगा हाड़ि या कुदरा थान में पूजा की जाती है. यहां पर लाल मुर्गा की बली चढ़ायी जाती है. आसाड़ि के पूर्व किसी कुड़मि घर में पकवान यानी पिठा नहीं बनायी जाती है. इसके पश्चात वर्षा होने पर ही सर्वसम्मति से पाचाडि का दिन तय किया जाता है. तब तक सावन महीना भी आ जाता है. जब खेत में धान रोपने लायक पानी जमा हो जाता है, तब यह रस्म पूरा किया जाता है. इसके पहले खेत को धान गाछी लगाने लायक तैयार कर लेते हैं.
पाचाडि के रस्म
पाचाडि का रस्म महज कुछ घंटो में ही संपन्न हो जाता है. क्योंकि सब कुछ पहले से तैयार किया हुआ रहता है.सबसे पहले जिस खेत में पाचाडि किया जाता है, उस खेत को सुबह हल से जोता जाता है. फिर मेइर दिया जाता है. हरवाहे अपने–अपने बैल के जोड़ों को नहाते हैं. फिर इसको जुआंन में बांधकर उस खेत में लाया जाता है. तब तक नेंइआ (पाहान) कुदरा थान में पूजा करके आ जाता है. इस कुदरा थान में जो खेत का देवता होता है, इसे मुर्गा की बलि दी जाती है. तब तक घर की स्त्रियां भी नहा–धोकर पूजा की सामग्री लेकर खेत पहुंच जाती हैं.
इसमें दो तरह की पूजन सामग्री होती है. एक पूजन सामग्री और दूसरा निंगछा छोर की सामग्री होती है. पूजन सामग्री में पाव भर अरवा चावल, दूब घास, काजल, सिंदूर, सरसों का तेल, गाय का दूध, गोबर, एक लोटा पानी, गुड़ इत्यादि को थाली में लेकर लाया जाता है और निंगछा छोर की सामग्री में गोटा सरसों, लकड़ी अथवा गोइठा की आग, धुना, चिरचिटि का पौधा, सर का झाड़ा हुआ बाल, भेलुआ इत्यादि को मिट्टी के सारुआ में लाया जाता है.
पाहान उस खेत से धान की गाछी उखाड़ कर लाते हैं. जिस खेत में बीज बोया जाता है, उसमें पाहान विधि विधान से उस पाचाडि खेत के मेवाड़ के पूर्वी छोर पर पूजा करते हैं. सबके यहां पूजा करने के बाद पांच–पांच बान (गाछी) उसी तैयार खेत में पहान द्वारा गाड़ा यानी बोया जाता है. फिर खेत के मालिक यानी हल चलाने वाला अपने–अपने बैलों को तेल से मालिश करते हैं, विशेष कर सिंह और माथा में लगाया जाता है. फिर माथा एवं सिंह में सिंदूर लगाया जाता है. फिर उस बैल को उस घर के स्त्री द्वारा चुमाया जाता है. लोटा में लाया हुआ पानी दोनों दिशा में डालकर पूजा संपन्न करती हैं.
इसके बाद पुरुष दोनों बैलों को निंगछा छोर करते हैं. इसे करने के लिए एक विशेष कला की जरूरत होती है. एक विशेष क्रम में बारी–बारी से अपने दोनों पैरों और बैलों के पैरों के बीच से होकर गुजारा जाता है. इस प्रक्रिया को निंगछा छोर कहते हैं. इस निंगछा हुआ सारुआ को बायें हाथ में किसी दो राहों के बीच में पलट कर रख दिया जाता है और फिर उसको तीन या पांच बार डेगा या फांदा जाता है. फिर उसे बायें पैर से कुचल कर तोड़ दिया जाता है. तोड़ने के पश्चात वह उसके तरफ पुन: मुड़कर नहीं देखता हैं और वापस उस खेत मे आता है. इसके बाद दूध में मिलाया हुआ अरवा चावल और गुड़ का प्रसाद बांटा जाता है. इस प्रसाद को घर के सभी सदस्य को अनिवार्य रूप से खाना पड़ता है.
कुड़मालि में पाचाडि का महत्व
आदिवासी संस्कृति में पर्व त्योहारों का अपना विशेष महत्व होता है. झारखंडी समाज में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पाचाडि का व्यापक महत्व है. इसका इंतजार हर किसान को जेठ महीना शुरू होते ही होने लगता है. जैसे ही आसाढ़ में बारिश होने लगती है, तब किसान के दिल में इसकी छटपटाहट बढ़ जाती है. इस रस्म में होने वाले प्रत्येक बिंदु का अपना अलग महत्व होता है. इसमें सफल वर्षा एवं फसल अच्छे होने की कामना पाहन करते हैं. बैलों को तेल लगाने का मतलब यह है कि हम प्राकृतिक पूजक, अपने मवेसियों को प्यार करने वाले लोग हैं. पाचाडि में केवल बैलों को चुमाया जाता है. जबकि सहराय के समय केवल गाय को चुमाया जाता है. ताकि कृषि कार्य के समय मवेशी स्वस्थ रहें. कुदरा थान आदि में मुर्गे की बलि इसलिए दी जाती है क्योंकि कृषक का अधिकांश समय खेत–खलिहान में ही कटता है. चूंकि घर के अंदर जितना किसी से भय रहता है उसे ज्यादा भय बाहर से रहता है. इसलिए अपने खेत–खलिहान, मवेशियों की देखभाल के लिए एक मात्र कुदरा भूत होता है. यही हम किसानों के रक्षक होते हैं. दूसरी तरफ निंगछा छोर करने से पुरुष बाल–बच्चों को बरसात में घाव आदि होने का खतरा कम होता है. ऐसा इसलिए कि वर्षा के पानी में अम्ल होता है, जो आज वैज्ञानिक लोग भी मानने लगें हैं. यह तो हमारे संस्कृति में आदिम समय से परीक्षण करते आ रहे हैं.
पर्यावरण की दृष्टि में महत्व
लाल रंग धैर्य, तेज और बलवान होने का प्रतीक होता है. इससे हर कोई डरता है. परंतु यहां केवल किसी को डराने के उद्देश्य से बैलों के सिंह में सिंदूर नहीं लगाया जाता है. बरसात के समय बैल पानी में भींगते हैं, इस कारण सिंदूर ठंड से रक्षा करता है और बढ़िया से हल खींचता है. चूंकि जंगल में बैलों के चरते समय विभिन्न तरह के खतरनाक जीव–जंतु से भी सामना करना पड़ता है, इस कारण इससे देखकर दूसरा जीव डर जाता है. पर्यावरण की दृष्टि से पाचाडि अत्यंत महत्वपूर्ण रस्म है क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से पेड़ों की पूजा की जाती है. ताकि पेड़ और अधिक उगे और अधिक बारिश हो और अनाज की पैदावार अधिक से अधिक हो.