।। कृपाशंकर चौबे ।।
नक्सलियों ने मई में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के काफिले पर हमला किया, फिर जुलाई में झारखंड में पाकुड़ के एसपी अमरजीत बलिहार को बेरहमी से मार डाला. सरकार ने जवाबी कार्रवाई की बात कही है.
साफ है, जंगल में कांबिंग ऑपरेशन चलेंगे. कुछ माओवादी मारे जायेंगे, कुछ कथित रूप से माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले निदरेष ग्रामीण. फिर माओवादी हमले करेंगे, फिर सरकार जवाब देगी. सवाल है कि गांधी के देश में शांति आयेगी कैसे, माओ की बंदूक से या गांधी की अहिंसा से!
झा रखंड में पाकुड़ जिले के आदिवासी पुलिस अधीक्षक अमरजीत बलिहार और पांच अन्य पुलिसकर्मियों की हत्या से स्पष्ट है कि माओवादी राजनीतिक तौर पर चुनौती भले नहीं बन पाये हैं, सुरक्षा के लिए चुनौती बने हुए हैं. झारखंड में जो हत्याकांड हुआ है, वह अप्रत्याशित नहीं है.
13 साल पहले वर्ष 2000 में भी माओवादियों ने झारखंड के लोहरदगा में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक डॉ अजय कुमार सिंह की हत्या कर दी थी. पाकुड़ हत्याकांड को लेकर एक बड़ा सवाल यह है कि माओवादियों के मारे जाने पर जो बुद्धिजीवी तत्परता से मुखर होते हैं, उसी तत्परता से वे माओवादियों द्वारा की जानेवाली हत्या पर क्यों नहीं मुखर होते?
पाकुड़ हत्याकांड के पहले माओवादियों ने 25 मई को छत्तीसगढ़ के बस्तर में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला कर 25 लोगों को मार गिराया था. उस हिंसा की तरह पाकुड़ की हिंसा पर भी नागरिक समाज ने मौन धारण कर रखा है. सवाल है कि जो पुलिसवाले अथवा दूसरे दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता अथवा आम नागरिक माओवादियों की हिंसा के शिकार होते हैं, क्या उनके मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार नहीं होते? माओवादियों की हिंसा पर मौन धारण कर कतिपय बुद्धिजीवी और मानवाधिकार संगठन माओवादियों की अप्रत्यक्ष मदद नहीं कर रहे?
क्या उन्होंने कभी माओवादियों को यह समझाने की जहमत उठायी कि उन्हें राज्य की नीतियों से अपना विरोध शांतिपूर्ण तरीके से ही जताना चाहिए? इस तरह के आचरण से क्या राज्य सत्ता और उग्र वामपंथी समूहों व जनजातीय समूहों में अलगाव को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
यह माना जा सकता है कि जल-जंगल-जमीन को जिस तरह तबाह किया गया, उसके खिलाफ आदिवासियों में जबरदस्त घृणा है. यानी माओवादियों ने जो किया है, यह कानून और व्यवस्था के मामले नहीं हैं. विकास की गलत नीति के मामले हैं. इसलिए जाहिर है कि विकास के मौजूदा मॉडल का ही वस्तुगत विवेचन करना होगा.
लेकिन, यह भी तय है कि रक्तपात से इस भीषण युद्ध का कोई फैसला नहीं होनेवाला. तथ्य यह भी है कि भारत के समूचे जंगल गलियारे में माओवादी सक्रि य हैं, तो इसके पीछे शासन की गलत नीतियां हैं. भारत के कई राज्यों में जंगल पर से जंगलजीवियों का अधिकार छिन रहा है.
जंगल और जमीन पर कॉरपोरेट घरानों का कब्जा होता जा रहा है. विशेष आर्थिक क्षेत्र की आड़ में आदिवासी उजाड़े जा रहे हैं. माओवादी इसे रोकने के लिए ही सशस्त्र संग्राम चला रहे हैं. इसी के जरिये वे व्यवस्था में बदलाव का स्वप्न देख रहे हैं. यदि माओवादी हिंसा को रणनीति बनाते रहेंगे, तो जाहिर है कि शासन को भी अपनी हिंसा को वैध ठहराने का बहाना मिलता रहेगा.
शासन को भी इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर जनजातीय संस्कृतियां देश के लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर भी स्वयं को आहत और उपेक्षित क्यों महसूस करती हैं? क्या यह सच नहीं कि जनजातियों की निरंतर उपेक्षा के कारण और उन अंचलों में विकास नहीं होने के कारण ही वहां माओवादियों का असर बढ़ा? सवाल यह भी है कि आदिवासी बहुल इलाकों में माओवादी जिस तरह का विकास चाहते हैं, उस तरह का विकास सुनिश्चित करने में शासन को क्या बाधा है?
आखिर जनजातीय क्षेत्रों की विशिष्टता को बरकरार रखते हुए उनके जल-जंगल-जमीन के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी आज तक क्यों नहीं सुनिश्चित की गयी है? जल-जंगल-जमीन का सवाल आदिवासियों के जीवन और जीविका का सवाल है.
आदिवासी जल-जंगल-जमीन की रक्षा इसलिए करते रहे हैं, क्योंकि प्रकृति को वे ईश्वर मानते हैं. विकास परियोजनाओं में उन्हें विश्वास में नहीं लेना, उनके साथ अन्याय है और न्याय की छटपटाहट ने ही उन्हें शासन व्यवस्था से दूर किया और माओवादियों के निकट पहुंचाया है.
ऐसे में जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय आदिवासी समूहों के स्वामित्व को औपचारिक स्वीकृति देकर, जनजातियों के जीवन संसाधन की सुरक्षा सुनिश्चित करके और स्थायी व टिकाऊ विकास की परियोजनाएं प्रारंभ करके ही जंगलों के साथ अन्योन्याश्रित संबंध बना कर जीनेवाली एक समूची संस्कृति के भीतर एक नयी उम्मीद जगायी जा सकती है.
उनकी बौद्धिक संपदा के दस्तावेजीकरण, जनजातियों की कलाओं व उनकी सांस्कृतिक धरोहर तथा कृषि व औषधि के बारे में आदिवासियों के देशज ज्ञान को बढ़ावा देने की पहल भी करनी होगी.
माओवादियों की लड़ाई के तरीके को लेकर असहमतियां जरूर हैं, पर उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर असहमति नहीं है. उन मुद्दों को हल करने के बजाय उल्टे मुद्दे उठानेवालों के प्रति सख्ती कोई सटीक रास्ता नहीं है. निश्चित ही दमन के नाम पर जन सुरक्षा अधिनियम और गैरकानूनी निरोधक कानून की आड़ में भय और असुरक्षा का जो माहौल बनाया जा रहा है, वह गलत है.
ये कानून अपने चरित्र में ही दमनकारी हैं. लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि माओवादी इससे निबटने के लिए खून-खराबा करें. माओवादियों को प्रतिरोध का अहिंसक रास्ता ही चुनना चाहिए. उन्हें याद रखना होगा कि यह गौतम बुद्ध का देश है. यह गांधी का देश है. सन् 1857 की हिंसक क्रांति हमेशा गांधी की चेतना में थी.
गांधी ने 1857 के घटनाक्र म में देख लिया था कि हिंसा के सहारे अंगरेजों को नहीं हराया जा सकता. इसीलिए उन्होंने अहिंसक आंदोलन का रास्ता अपनाया था. इतिहास गवाह है कि भारत में गांधी जी को अपने अहिंसक प्रतिरोध के जरिये लक्ष्य हासिल करने में सफलता मिली. कहने का आशय यह है कि भारत में गांधी का रास्ता ही सफलता की गारंटी है, यहां माओ की बंदूक नहीं चल सकती.
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)