नये राज्य के निर्माण के बाद से ही झारखंड की जनता राजनीतिक थपेड़ों की पीडि़त रही है. जनता में धीरे-धीरे हताशा घर कर रही है. इस नये राज्य की अभी तक जो तसवीर देखने को मिल रही है, उससे तो यही लगता है कि विकास के नाम पर खिलवाड़ किया गया है.
किसी एक राज्य का अगर सबसे ज्यादा दोहन हुआ है, तो इस मानदंड पर झारखंड बिल्कुल सही बैठता है. ऐसे माहौल में यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर इस परिस्थिति के लिए जिम्मेवार कौन है. प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बावजूद यह राज्य भारत के मानचित्र पर कहीं नजर क्यों नहीं आता. नागर समाज से जुड़े संगठन खुल कर काम नहीं कर पाते. यहां आरटीआइ कार्यकर्ताओं के मारे जाने और व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने पर प्रताडि़त किये जाने की घटनाएं आम हैं.
सबसे बड़ी बात तो यह है कि अपने मूल राज्य बिहार से अलग यह कहते हुए नये राज्य का निर्माण हुआ था कि उसके साथ झारखंड का विकास नहीं हो सकता, इसलिए यह जरूरी है कि नये राज्य का निर्माण हो, ताकि प्रदेश का नये सिरे से विकास हो सके. इस विभाजन के बाद मूल प्रदेश अर्थात् बिहार के लोग भी यह सवाल उठा रहे थे कि संयुक्त बिहार के बंटवारे के बाद अब प्रदेश में कुछ भी नहीं बचा है, क्योंकि सब कुछ झारखंड में चला गया. लोग उद्वेलित थे. उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार उन्हें विशेष पैकेज देगी.
इस पैकेज में देरी के बाद विशेष राज्य के दर्जे की मांग भी आगे बढ़ी. लेकिन बिहार की सराहना इस बात के लिए करनी होगी कि प्रदेश के मजबूत राजनीतिक नेतृत्व ने पिछले कुछ वर्षों में बिहार का रूप बदलने की सफल कोशिश की है. जितना संसाधन था, उसका बेहतर इस्तेमाल करने की कोशिश हुई है. लेकिन उसके उलट झारखंड अपने मूल स्थान से खिसक कर और नीचे चला गया है. इसके लिए सीधे तौर पर वहां की अस्थिर राजनीति और झारखंड को लूटतंत्र में बदल देनेवाले राजनीतिक दल और राजनीतिक नेतृत्वकर्ता जिम्मेवार हैं.
ऐसा नहीं है कि झारखंड में प्रतिभाओं की कमी है, या लोग मेहनतकश नहीं हैं. पूरा का पूरा आदिवासी बहुलता वाला यह समाज संघर्षशील लोगों का समाज है. जब झारखंड का गठन हुआ, तो बड़ी संख्या में बिहार के नौकरशाह झारखंड गये. इनमें कई लोग बहुत अच्छे थे, और इस उम्मीद के साथ झारखंड में पदस्थापना की होड़ लगी थी कि नये राज्य में उन्हें बेहतर काम करने का मौका मिलेगा. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि नये प्रदेश के नये राजनीतिक माहौल में उनके लिए बेहतर तरीके से काम करना संभव नहीं हो पायेगा. इसलिए इनमें से कई लोगों ने या यूं कहें कि कि नौकरशाही के एक बड़े हिस्से ने व्यवस्था को अनुरूप खुद को ढाल लिया, और वे भी राजनीतिक नेतृत्व के अनुरूप आचरण में लगे हुए हैं.
झारखंड के राजनेता लोकतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने के नाम पर केवल चुनाव लड़ना सीख गये हैं. वैसे तो चुनावी राजनीति में पैसे का बोलबाला और भ्रष्टाचार देश के सभी राज्यों में है, और इसके मद्देनजर चुनाव सुधार की मांग काफी पुरानी है, लेकिन झारखंड में इसका प्रभाव काफी दिखाई देता है. इतना ही नहीं इसी राज्य से यह मामला आया था जिसमें नरसिम्हा राव के दौरान संसद में विश्वास मत के दौरान अटैची के लेन-देन का आरोप लगा. इस पृष्ठभूमि में राज्य में व्यापक बदलाव की कोई उम्मीद नहीं दिखती और राजनेता-कॉरपोरेट के इस गंठजोड़ में झारखंड के निर्माण का सपना काफी पीछे छूट गया लगता है.
प्रदेश के निर्माण के बाद झारखंड के विभिन्न जिलों मे राजनीतिक नेतृत्व की मदद से कॉरपोरेट ने अपना पांव पसार लिया है. यह सब इस तर्क के साथ और विकास की उस झूठी अवधारणा के साथ हो रहा है कि अगर उद्योग लगेंगे, कॉरपोरेटाइजेशन होगा, तो राज्य के लोगों का विकास होगा. निजीकरण के इस ढोल में न सिर्फ प्रदेश के संसाधन लूटे जा रहे हैं, बल्कि प्रदेश से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हो रहा है. राजशक्ति यह कभी नहीं बताती कि कॉरपोरेट इस जवाबदेही के साथ किसी भी राज्य में विकास के लिए नहीं आता, उसका एक मात्र मकसद मुनाफा कमाना होता है. वे राज्य की जनता और वहां के संसाधनों को अपने उपभोग के लायक बना कर और पूरी तरह से दोहन कर वहां से खिसक जाते हैं.
कई लोग यह भी तर्क देते हैं कि राज्य में कॉरपोरेट आयेगा, तो वे अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत राज्य का विकास करेगा. इसलिए आप झारखंड में देखेंगे, तो बहुत बड़ी संख्या में कॉरपोरेट आधारित एनजीओ काम कर रहे हैं. कई सारे अधिकारियों ने भी एनजीओ बना रखा है. इनमें से कई लोग अच्छा काम भी कर रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों का दायरा सीमित है. कंपनियां अपनी सामाजिक जवाबदेही का दिखावा उन्हीं क्षेत्रों में करती हैं, जहां वे हैं. वहां, जहां बाजार तैयार किया जा सकता है. सामाज के सभी वर्गों के विकास की जिम्मेवारी सरकार की है, न कि कॉरपोरेट की.
झारखंड में चुनाव हो रहे हैं. कमोबेश वही राजनीतिक दल और नेता चुनावी अखाड़े में हैं. ऐसे में बहुत बड़ा राजनीतिक बदलाव होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर भी झारखंड की जागृत लोकशक्ति, जिसने प्रदेश के निर्माण में योगदान दिया, उससे यह अपेक्षा तो है ही कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग सोच-समझ कर करेगी और राजनीतिक विकल्प नहीं, बल्कि वैकल्पिक राजनीति के सहारे प्रदेश के भावी भविष्य को गढ़ेगी.
(बातचीत : संतोष कुमार सिंह)