
छत्तीसगढ़ी भाषा की फ़िल्मों को इस साल 50 बरस पूरे हो गए हैं, लेकिन आधी सदी पुराना छत्तीसगढ़ का फ़िल्म उद्योग अब भी पहचान के संकट से जूझ रहा है.
नया राज्य बनने के बाद से 150 से ज़्यादा फ़िल्में छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी हैं.
यह और बात है कि दर्ज़न भर फ़िल्मों को छोड़ अधिकांश फिल्में अपनी लागत भी वसूल नहीं कर सकीं.
पढ़िए विस्तृत रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ की पहली फ़िल्म 1965 में बनी थी-‘कही देबे संदेश’. इस फ़िल्म के गाने बेहद लोकप्रिय हुए थे, जिन्हें मोहम्मद रफ़ी, महेंद्र कपूर, मुबारक बेग़म और मन्ना डे जैसे गायकों ने आवाज़ दी थी.
लेकिन, फ़िल्म प्रदर्शन से पहले ही जात-पात की राजनीति करने वालों के निशाने पर आ गई और रायपुर के बजाए फ़िल्म का प्रदर्शन दुर्ग के तरुण टॉकीज़ में करना पड़ा.

पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म, कही देबे संदेश, का एक दृश्य
बाद में फ़िल्म को ‘सहकारिता को प्रोत्साहित’ करने वाली बताकर मनोरंजन कर में छूट भी दी गई.
इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक मनु नायक पुनेरा दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "तब का दौर और था. तब फ़िल्म देखना भी बुरा माना जाता था. मैंने तो भोजपुरी से प्रेरित होकर फ़िल्म बनाई थी. फ़िल्म के गाने चल गए, मतलब फ़िल्म चल गई. आज की तरह नहीं कि एक सप्ताह में फ़िल्म लगी, चली और फिर उतर भी गई."
हालाँकि, फ़िल्म अपनी लागत भी नहीं वसूल पाई और मनु नायक बहुत चाहकर भी कोई दूसरी फ़िल्म नहीं बना सके.
दोहराता इतिहास
इसके बाद निर्माता विजय कुमार पांडेय ने 1971 में ‘घर द्वार’ नाम से फ़िल्म बनाई. फ़िल्म के निर्देशक थे निर्जन तिवारी. फ़िल्म तत्कालीन मध्यप्रदेश के अलावा पड़ोसी राज्यों में भी रिलीज़ की गई.

कहा जाता है कि दूसरी फ़िल्म, घर द्वार, अच्छी चली थी.
फ़िल्म के बारे में दावा किया जाता है कि यह फ़िल्म अच्छी चली. लेकिन ‘कही देबे संदेश’ और ‘घर द्वार’ के ‘चलने’ में मुनाफ़ा शामिल नहीं था, यही कारण है कि लगभग 30 साल तक किसी ने फिर छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बनाने के बारे में सोचा भी नहीं.
तीसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म कोई तीस साल बाद वर्ष 2000 में ‘मोर छंइहा भुंइया’ नाम से बनी. छत्तीसगढ़ राज्य बनने वाला था और भाषाई प्रेम ज़ोर पर था.
छत्तीसगढ़िया अस्मिता की ताल ठोंकने वाले समय में परदे पर आई सतीश जैन की इस फ़िल्म ने इतिहास रचा.
नया राज्य बनने से ठीक पहले आई इस फ़िल्म को देखने के लिए लोग सिनेमाघरों में टूट पड़े. यह सिलसिला अगले 2-3 बरसों तक बना रहा.
इसके बाद छत्तीसगढ़ी में फ़िल्म बनाने का सिलसिला तो जारी रहा, लेकिन फ़िल्मों की सफलता का नहीं.
‘मया देदे मया लेले’, ‘झन भूलो मां बाप ला’ और ‘मया’ जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो इस पूरे दौर में छत्तीसगढ़ी फ़िल्में बनती रहीं और मुंह के बल गिरती रहीं.

छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों ने फ्लॉप होने का एक नया रिकॉर्ड बनाना शुरू कर दिया.
जूते-चप्पल जैसा बजट
छॉलीवुड के नाम से पुकारे जाने वाली छत्तीसगढ़ी भाषा की फ़िल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो अनुज शर्मा की राय है कि छत्तीसगढ़ी की फ़िल्मों का अपना कोई स्वतंत्र बाज़ार नहीं है और इन्हें हिंदी फ़िल्मों से मुक़ाबला करना होता है.
अनुज कहते हैं, "मोर छइहा भुइंया फ़िल्म ‘मोहब्बतें’ और ‘मिशन कश्मीर’ जैसी फ़िल्मों के साथ रिलीज हुई थी. लगभग 20 लाख रुपये की लागत से बनी इस फ़िल्म ने इतिहास रचा था. हमारी फ़िल्मों का बजट तो हिंदी सिनेमा के जूते-चप्पल के बजट के बराबर होता है. फिर भी हम बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं."
छत्तीसगढ़ में कॉमेडी फ़िल्में भी बन रही हैं और हॉरर भी, यहां तक कि वयस्क फ़िल्में भी. डबल रोल वाली फ़िल्में और थ्रीडी फ़िल्में तो हैं ही.
हालांकि, अधिकांश फ़िल्मों की कहानी गांव केंद्रित होती है और अधिक हुआ तो गांव से शहर आए नायक की कहानी फ़िल्मों का आधार होती है.
यही कारण है कि कई निर्माता-निर्देशक तो अपनी फ़िल्मों की शूटिंग अपने आसपास के गांव में ही करते हैं.

कभी-कभार आप रायपुर शहर के किसी चौक-चौराहे पर फ़िल्म की शूटिंग देख सकते हैं, लेकिन निर्माता-निर्देशक पड़ोसी राज्य ओडिशा को शूटिंग और संपादन के लिहाज से बेहतर मानते हैं.
बॉलीवुड की राह पर
इसी तरह, अधिकांश फ़िल्मकारों की कोशिश होती है कि गीतकार-संगीतकार स्थानीय हों, लेकिन गायक या गायिका कोई बॉलीवुड से जुड़ा नाम हो. लेकिन इन फ़िल्मी गानों में भाषा भर छत्तीसगढ़िया होती है, संगीत और ताम-झाम मुंबइया फ़िल्मों जैसा ही होता है.
फ़िल्मों का बजट 15-20 लाख रुपये से लेकर एक करोड़ तक होता है और फ़िल्म में कलाकारों को अधिकतम 3 से 5 लाख रुपये मिलते हैं.
तकनीक के लिए मुंबई और पड़ोसी राज्य ओडिशा की मदद ली जाती है.

फ़िल्म में स्थानीय कलाकार ही मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन हीरोइनों के लिए छत्तीसगढ़िया फ़िल्मकारों को कई बार भोजपुरी, उड़िया या मुंबई की कम बजट वाली हीरोइनों का मुंह देखना पड़ता है.
छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मुंबइया लटके-झटके और नकल के रास्ते सफलता तलाशने की भी लगातार कोशिश हो रही है.
कई बार तो हिंदी समेत दूसरी भाषा की फ़िल्मों को सीधे-सीधे छत्तीसगढ़ी में डब किया जा रहा है या उनकी हास्यास्पद क़िस्म की रीमेक बन रही हैं.
दिलचस्प यह है कि छत्तीसगढ़ी में डब की जाने वाली फ़िल्मों में मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्में पहले नंबर पर हैं.
गंभीर काम भी
लेकिन इस धुंधलके में गंभीर काम करने वालों की भी कमी नहीं है.

छत्तीसगढ़ में रहते हुए सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम की लिखी ‘गांजे की कली’ कहानी पर योगेंद्र चौबे ने कलात्मक फ़िल्म बनाई, जिसकी दुनिया भर में प्रशंसा हुई.
इस फ़िल्म के निर्माता अशोक चंद्राकर कहते हैं, "हमने मान लिया है कि छत्तीसगढ़ी फ़िल्म का मतलब है ऐसी फ़िल्म, जिसकी भाषा छत्तीसगढ़ी हो और वह लो बजट वाली हो. छत्तीसगढ़ी की फ़िल्म में यहां लाइफ स्टाइल, संस्कृति होनी चाहिए. जो आमतौर पर यहां की फ़िल्मों में दिखाई नहीं देती."
बस्तर के इलाके में अविनाश प्रसाद जैसे लोगों ने हल्बी भाषा में ‘मोचो मया’ जैसी फ़िल्में बनाईं और नाम भी कमाया. ज़ाहिर है, हल्बी की फ़िल्म थी, इसलिए दर्शक भी केवल बस्तर के ही मिले. लेकिन अविनाश इससे निराश नहीं हैं.
अविनाश कहते हैं, "हमने पहली बार हल्बी में फ़िल्म बनाने की कोशिश की. कैमरा से लेकर दूसरे संसाधन तक हमने किराये पर मंगाए और फ़िल्म बनाई. स्थानीय टॉकीज में प्रदर्शन भी हुआ. हम इससे खुश हैं."

राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लगातार छत्तीसगढ़िया फ़िल्में बन रही हैं.
कुछ परदे तक पहुंच पाती हैं तो कुछ बरसों से ‘शूटिंग मोड’ में ही अटकी हुई हैं. लेकिन यह सच है कि 50 साल में छत्तीसगढ़िया फ़िल्मों के नैन-नक़्श अभी भी ठीक-ठीक नहीं बन पाए हैं.
कई छत्तीसगढ़िया फ़िल्में बना चुके मनोज वर्मा कहते हैं, "छत्तीसगढ़ी में कितनी भी अच्छी फ़िल्म आप बना लें, हिंदी की कोई फ़िल्म जैसे ही आती है, टॉकीज़ से हमारी फ़िल्म उतार दी जाती है. छत्तीसगढ़ फ़िल्मों को देखने का जो संस्कार हमें बनाना चाहिए, उसमें हम असफल रहे हैं."
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