पोलियो उन्मूलन में मिली सफलता के बाद भारत यह कह सकता है कि सरकार स्वास्थ्य समस्याओं के जड़ से निदान के प्रति प्रतिबद्ध है. सरकार देश के लगभग सभी हिस्सों में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को बचाने के लिए नियमित टीकाकरण कार्यक्रम चला रही है. लेकिन सरकार को उस तरह की सफलता का इंतजार है जैसा पोलियो उन्मूलन में मिला है. सरकार को पोलियो की तरह इस कार्यक्रम में कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मदद कर रही हैं. यूनिसेफ उन्हीं में से एक है. पेश है टीकाकरण कार्यक्रम के विभिन्न आयाम पर यूनिसेफ इंडिया के हेल्थ विशेषज्ञ( टीकाकरण) डॉक्टर सतीश कुमार गुप्ता से पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह की विशेष बातचीत :
सरकार के साथ कई राष्ट्रीय-अंतररराष्ट्रीय संस्थाए नियमित टीकाकरण के मसले पर काफी जोर-शोर से काम कर रही हैं? बावजूद इसके हम उस स्तर तक नहीं पहुंच पा रहे जो हमारा लक्ष्य है?
देखिए, पिछले कुछेक वर्षो में सरकार के जो आंकड़े हमारे सामने आए हैं, उसे देखें तो हम यह कह सकते हैं कि नियमित टीकाकरण में काफी प्रगती हुई है. लेकिन जो हमारा लक्ष्य है, उस तक नहीं पहुंच पाये हैं. लक्ष्य तो सौ फीसदी टीकाकरण है, लेकिन आम तौर पर यह माना जाता है कि अगर 80 फीसदी बच्चों को नियमित टीकाकरण के दायरे में लायें तो टीकाकरण के अभाव में होने वाली बीमारियों का खतरा काफी कुछ कम हो जाता है. आज भी भारत में 25-30 फीसदी बच्चे टीकाकरण अभियान से बाहर ही हैं. देश में प्रतिवर्ष 27 मिलियन बच्चों का जन्म होता है, उनमें से 7 मिलियन बच्चों को टीकाकरण का पूरा डोज नहीं मिल पाता है. आंकड़े यह भी कहते हैं कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों में से 1.3 मिलियन ऐसे बच्चे हैं जिनकी प्रत्येक वर्ष मृत्यु हो जाती है. इनमें से 25-30 फीसदी ऐसे बच्चे हैं जिनको कि नियमित टीका दिया गया होता तो ये बच सकते थे. हालांकि भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में लगभग 90 फीसदी बच्चों को टीकाकरण के दायरे में लाया गया है. भारत की जनसंख्या ज्यादा है, नाइजीरिया में भी लगभग एक मिलियन बच्चे हैं जो कि टीकाकरण के दायरे से बाहर हैं. बांग्लादेश ने यह सफलता अपने सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्यकर्मियों की बदौलत पायी है. श्रीलंका में भी टीकाकरण का दर अच्छा है.
टीकाकरण के अभाव में बच्चों को कौन-कौन सी बीमारियां होती हैं. अभी टीकाकरण कार्यक्रमों की पहुंच किन इलाकों में नहीं हो पायी है या अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिल पायी है?
टीकाकरण के जरिए हम बच्चों को मीजल्स, खसरा, डिप्थीरिया, काली खांसी आदी से बचा सकते हैं. यह एक पूरा चक्र है. यदि बच्चे को संपूर्ण टीकाकरण न मिले तो वह खसरे का शिकार हो जाता है, इसकी वजह से काली खांसी होती है, उसे निमोनिया भी हो सकता है और वह कुपोषण का शिकार हो सकता है. आज देश में लगभग 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. जहां तक टीकाकरण कार्यक्रम की पहुंच का सवाल है, लगभग हर इलाके में नियमित कार्यक्रम चल रहे हैं. लेकिन यह संपूर्णता की स्थिति में नहीं आया है. बडी संख्या में बच्चे छूट जा रहे हैं. ये वे बच्चे हैं, जो विभिन्न कंस्ट्रक्शन साइट, मलिन बस्तियों या दूर दराज के गांवो में हैं. स्वास्थ्य कर्मियों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की वहां नियमित पहुंच के अभाव में ये बच्चे छूट जाते हैं. ग्रामीण इलाकों में भी देखें तो बड़े गांव में तो टीकाकरण अभियान सही तरीके से संचालित हो जा रहा है लेकिन छोटे-छोटे टोले जो कि उन इलाकों से दूर हैं, जहां टीकाकरण कैंप लगाये गये हैं, वहां से दूर हैं, वहां काफी बच्चे टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पा रहे हैं. बाढ़ वाले इलाके या दूर-दराज के पहाड़ी इलाके में टीकाकरण कार्यक्रम को संचालित किये जाने की कोशिश तो की जाती है, लेकिन यह पूरी तरह से नहीं हो पा रहा है. ऐसा नहीं है कि केवल गांवों में ही टीकाकरण की दर कम है. वैसे इलाके जहां लोगों का पलायन दर ज्यादा है या वैसी आबादी जो घुमंतू हैं वहां भी संपूर्ण टीकाकरण कार्यक्रम में परेशानी आती है. इसके अलावा मुख्य शहर से दूर बसे कस्बों में अस्पताल या जनस्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में टीकाकरण कम हो पाता है. हालांकि पोलियो के क्षेत्र में मिली सफलता के बाद मोटिवेशन लेवल बढ़ा है और लोगों को लग रहा है कि हम नियमित टीकाकरण के मामले में भी अच्छा परिणाम दे सकते हैं.
संपूर्ण टीकाकरण के लक्ष्य की प्राप्ति में कौन से राज्य बाधा बन रहे हैं?
देखिए, इनको बाधा नहीं कह सकते लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि में टीकाकरण कार्यक्रम की प्रगति काफी धीमी है. हालांकि बिहार की तुलना में झारखंड की स्थिति ठीक है लेकिन इसे बेहतर नहीं माना जा सकता. बेहतर तभी कहा जा सकता है, जब हम 80 फीसदी का लक्ष्य हासिल करने की स्थिति में होंगे. पंचायती राज्य संस्थाओं की इसमें अहम भूमिका बनती है. यदि टीकाकरण कार्यक्रम से पंचायती राज संस्थाओं को जोड़ा जाये, तो सामुदायिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर लोगों को इससे जुड़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं और अधिक से अधिक बच्चों को टीकाकरण के दायरे में लाया जा सकता है. नियमित टीकाकरण के जरिए जो बीमारियां होती हैं, उन्हें पोलियो की तरह जड़ से तो नहीं मिटाया जा सकता है, केवल हम खसरा उन्मूलन कर सकते हैं. काली खांसी और टेटनस जैसी बीमारियों को हम सघन टीकाकरण कार्यक्रम चलाकर न्यूनतम स्तर पर ला सकते हैं.
आपने पोलियो कार्यक्रम के सफलता की बात की, लेकिन पोलियो कार्यक्रम के विभिन्न चरण में हमने यह देखा है, विभिन्न इलाकों में पोलियो के टीके को लेकर भ्रांतियां है, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में लोग पोलियो कार्यक्रम से दूर हैं?
नियमित टीकाकरण कार्यक्रम को लेकर इस तरह की भ्रांतियां तो नहीं हैं, लेकिन इसके प्रभाव से लोग थोड़े डरे जरूर होते हैं. जैसे अक्सर यह सुनने को मिलता है कि टीका लगाने के बाद बुखार हो गया. जिस टीके के लगने से बुखार हो जाये तो फिर हम टीका क्यों लगाए. लेकिन लोगों को यह जानकारी देने की जरूरत है, टीका एंटी बॉयोटिक पैदा करता है, जिसकी वजह से बुखार आ सकता है. आशा वर्कर और एएनएम लोगों को इस बारे में बताती भी हैं. इस विषय में और जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है. लोगों को यह समझाना होगा कि यदि संपूर्ण टीकाकरण बच्चों का होगा तो न सिर्फ उनका स्वास्थ्य बेहतर होगा, बल्कि आगे चल कर वे बीमारियों से बचेंगे और इससे आर्थिक लाभ भी होगा?
आशा और एएनएम टीकाकरण कार्यक्रम की रीढ़ हैं? इनको प्रशिक्षण देने या प्रोत्साहन देने के लिए सरकार क्या करती है?
एएनएम तो सरकारी कर्मचारी होते हैं. जिनके ऊपर टीकाकरण की जिम्मेवारी होती है. उनको नियत वेतन मिलता है. आशा की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यही प्रोत्साहित कर माताओं और बच्चों को टीकाकरण बूथ तक ले आती हैं, उन्हें कार्यक्रम की जानकारी देती हैं, लेकिन आशा को सरकार टीकाकरण कार्यक्रम के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए भत्ता देती है. कुछ इलाकों में टीकाकरण कार्यक्रम के विभिन्न चरणों या इसके टीकाकरण चक्र पूरा करने के एवज में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए अतिरिक्त राशि देने की व्यवस्था की है. इससे उन्हें प्रोत्साहन मिलता है. हालाकि नीतिगत स्तर पर सरकार को इस दिशा में फैसला लेना है कि उनके लिए भी आंगनबाड़ी कर्मियों की तरह मानदेय नियत किया जाए. सरकार इस तरह का कोई फैसला लेगी इससे उन्हें फायदा होगा.
टीकाकरण कार्यक्रम में विभिन्न मीडिया माध्यमों की भूमिका को किस रूप में देखते हैं?
किसी भी कार्यक्रम चाहे वह सरकारी हो या गैर सरकारी यदि समाज के एक बड़े हिस्से को उस कार्यक्रम के दायरे में लाया जाता है, तो स्वाभाविक रूप से मीडिया चाहे परंपरागत मीडिया हो, मुख्य धारा की मीडिया हो या न्यू मीडिया इनकी भूमिका अहम हो जाती है. मीडिया न सिर्फ इन कार्यक्रमों की जानकारी लोगों तक पहुंचा सकती है बल्कि यदि किसी व्यक्ति को नियमित टीकाकरण के विषय में कोई भ्रांति है, तो उसको दूर करने में भी मीडिया की भूमिका काफी अहम है. इसके साथ ही टीकाकरण कार्यक्रम की बेहतरी को बताकर हम जनता को जागरूक करते हैं, साथ ही सरकारी तंत्र भी इसके विषय में काफी सजग हो जाता है, जिसका फायदा समाज को मिलता है.