भारत में नई सरकार के गठन के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐसे संकेत दिए थे कि विदेश नीति में पड़ोसी देशों को तरजीह दी जाएगी. रविवार को शुरू हो रहे मोदी के नेपाल दौरे से दोनों पक्षों में उम्मीद का माहौल है.
भूटान के बाद मोदी नेपाल की द्विपक्षीय यात्रा पर हैं.
लंबित पनबिजली परियोजनाओं और जल स्रोतों के सवाल ने दोनों देशों के रिश्तों को दशकों से उलझाए रखा है.
मगर किसी समझौते पर पहुँचने तक यह सवाल बना रहेगा कि दोनों देश जल विवाद सुलझाने के लिए किस हद तक लचीला रुख अपनाएंगे?
पढ़ें पानी के रिश्ते पर पूरा आकलन
बीते 17 सालों में नेपाल के द्विपक्षीय दौरे पर जाने वाले नरेंद्र मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे.
हालांकि दोनों देशों की सीमाएं खुली हुई हैं और वे एक दूसरे के सबसे क़रीबी पड़ोसी होने का भी दावा करते हैं.
दोनों के बीच सबसे ज़्यादा विवाद पानी के साझा स्रोतों का विकास और बंटवारा रहा है. जानकारों का कहना है कि मोदी के नेपाल दौरे में बातचीत के एजेंडे में जल विवाद सबसे ऊपर रखा जाएगा.
उन्हें लगता है कि रविवार से शुरू होने वाली दो दिन की यात्रा में ऐसे किसी बड़े समझौते पर बात बन जाए जिससे दोनों देश सहमत हों तो इससे दशकों पुराने जल विवाद का समाधान निकल सकता है.
और यह हो पाया तो बहुत बड़ी बात होगी. अतीत के समझौतों से जुड़े विवादों और दोनों देशों के बीच संदेह के माहौल के कारण नेपाल की नदियों पर प्रस्तावित कई बड़ी परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं.
अविश्वास की ताज़ा घटना तब घटी जब भारत की ओर से पनबिजली विकास के लिए एक समझौते की पेशकश के बाद नेपाल की राजनीति में उबाल आ गया.
नए रिश्ते
यहां के राजनेता चाहे वे सत्ता पक्ष से हों या फिर विपक्षी खेमे के, दोनों का ही दावा है कि भारत की पेशकश नेपाल के जलस्रोतों पर नई दिल्ली का एकाधिकार सुरक्षित करने के इरादे से की गई है.
हालांकि भारत सरकार इन आरोपों से इनकार करती है. भारत की ओर से यह सफ़ाई दी गई है कि नेपाल चाहे तो इस प्रस्तावित समझौते में किसी तरह का बदलाव या सुधार कर सकता है.
भारत के जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रामास्वामी अय्यर ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में लिखा है, "दोनों देशों के संबंधों को भारत के असंवेदनशील और ग़लत रवैये और नेपाल की अतिसंवेदनशीलता और ग़लतफ़हमी ने लगातार नुक़सान पहुँचाया है. इन्हीं चीज़ों के मद्देनज़र मैंने एक बार किसी नए समझौते को लेकर बातचीत की कोशिशों पर चेताया था."
वैसे मोदी सरकार ने छोटे पड़ोसी देशों के साथ नए रिश्तों का वादा किया है. मोदी की यात्रा से पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पिछले हफ्ते काठमांडू जाकर इसकी नींव रख आई हैं.
इस एजेंडे में कम से कम आधे दर्जन पनबिजली परियोजनाओं के प्रस्ताव हैं. नेपाल के कुछ राजनेताओं को उम्मीद है कि भारत की बदली हुई विदेश नीति में द्विपक्षीय जलस्रोतों को भी जगह दी जाएगी.
अतीत की ग़लतियां
जलस्रोतों के सवाल पर नेपाल की सरकार को सुझाव देने के लिए बनाए गए बहुदलीय टास्क फोर्स के सदस्य भीम रावल कहते हैं, "उन्होंने संकेत दिए हैं कि अतीत की ग़लतियां नहीं दुहराई जाएंगी. अब यह वास्तव में होता है या नहीं, यह देखना होगा."
1997 में हुए महाकाली नदी समझौते से जुड़े विवाद पर रावल की राजनीतिक पार्टी में फूट पड़ गई थी. इस विवादास्पद समझौते के तहत पंचेश्वर परियोजना से बड़े पैमाने पर सिंचाई और 6400 मेगावाट बिजली के उत्पादन का दावा किया गया था जिसे दोनों देश मिलकर इस्तेमाल करते.
परियोजना आठ साल में पूरी होनी थी, लेकिन 17 साल बाद भी यह केवल काग़ज़ पर ही है.
विश्वास का माहौल
रावल कहते हैं कि मोदी के दौरे से हमें पंचेश्वर परियोजना के आगे बढ़ने की उम्मीद है.
लेकिन भारत की मदद से बिजली बनाना, भारत को बिजली बेचने से पूरी तरह अलग मुद्दा है. आप जैसे ही दोनों चीजों को मिलाते हैं वैसे ही विवाद शुरू हो जाता है, क्योंकि एक माहौल बन जाता है कि नेपाल अपने ही जलस्रोतों पर अपना हक़ खो देगा.
अधिकारियों का कहना है कि भारत ने मोदी के दौरे से ठीक पहले विश्वास का माहौल बनाने के लिए एक नए ऊर्जा सौदे की पेशकश नेपाल को भेजी है.
एक ओर जहां भारत पानी के संकट से जूझ रहा है, वहीं नेपाल को घरेलू इस्तेमाल और आमदनी बढ़ाने के लिए ज़्यादा बिजली चाहिए.
जानकारों का कहना है कि दोनों देशों की ज़रूरतों के बीच संतुलन बिठाना सबसे बड़ी चुनौती होगी.
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