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एकता का गांव हुआ ‘सियासत’ का शिकार

दिलनवाज़ पाशा बीबीसी संवाददाता, कांठ, मुरादाबाद से मुरादाबाद के एक गांव में दलितों के मंदिर के लाउडस्पीकर का विवाद अब उत्तर प्रदेश में सियासी मुद्दा बन गया है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसमें हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए स्थानीय प्रसाशन से मामले सुलझाने को कहा है, लेकिन इस मुद्दे पर राजनीति लगातार गर्म है. […]

मुरादाबाद के एक गांव में दलितों के मंदिर के लाउडस्पीकर का विवाद अब उत्तर प्रदेश में सियासी मुद्दा बन गया है.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसमें हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए स्थानीय प्रसाशन से मामले सुलझाने को कहा है, लेकिन इस मुद्दे पर राजनीति लगातार गर्म है.

ये मामला कांठ तहसील के अकबरपुर चेदरी गाँव का है जिसे निवासी एक समय दलित-मुसलमान एकता की मिसाल बताते हैं.

लेकिन वहाँ इस विवाद के बाद जून में महिलाओं समेत कई लोगों को पुलिस ने हिरासत में लिया था.

26 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी ने कांठ कूच का आह्वान किया था जो नाकाम रहा.

दूसरी तरफ़, दोनों समुदाय फिर से अमन और चैन वाला माहौल क़ायम करना चाहते हैं.

पढ़ें दिलनवाज़ पाशा की पूरी रिपोर्ट-

26 जून को याद करते हुए 75 वर्षीय भगवती की आँखें भर आती हैं. उस दिन अकबरपुर चेदरी गाँव के मंदिर से लाउडस्पीकर उतारने के लिए की गई पुलिस की कार्रवाई में वो बेहोश हो गई थीं.

भगवती को अस्पताल से ही जेल भेज दिया गया था. उनकी पसलियों का दर्द अभी तक नहीं गया है.

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उन्हें जितनी तक़लीफ़ मंदिर से लाउडस्पीकर उतरने की है उससे ज़्यादा गाँव का भाईचारा ख़त्म होने की है.

वो कहती हैं कि जो गांव अब सांप्रदायिक तनाव की चपेट में है, वो कभी आपसी भाईचारे और एकता की मिसाल हुआ करता था.

1966 में रामगंगा की बाढ़ से प्रभावित मुस्तफ़ाबाद के लोगों ने अकबरपुर चेदरी नाम का ये बसाया था, जिसे नया गांव भी कहते हैं.

गाँव में दलितों की आबादी एक चौथाई से भी कम है. बाक़ी अलग-अलग जातियों के मुसलमान परिवार रहते हैं.

गांव वाले बताते हैं कि क़रीब तीन दशक पहले दलितों ने गाँव में जब अपना मंदिर बनाया था तब मुसलमानों ने भी चंदा दिया था.

मंदिर के लाउडस्पीकर को लेकर हुए विवाद से पहले इस गांव में कभी कोई सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ.

भगवती कहती हैं, "जहाँ हमारा गाँव मुस्तफ़ाबाद था, वहां अब रामगंगा की धारा है. पहले मुसलमान यहाँ आकर बसे थे, फिर वे ही हमें ले आए. जब तक हमारे घर नहीं बने, हम उन्हीं के घरों में रहे थे. बहुत मुहब्बत थी इस नए गाँव में."

‘बाहरी लोगों का हाथ’

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लेकिन क्या अब वो मुहब्बत ख़त्म हो गई है? इस सवाल पर भगवती कहती हैं, "मुहब्बत तो हमारे दिलों में थी. है और रहेगी, लेकिन दुख इस बात का है कि हमारे मंदिर के लाउडस्पीकर की वजह से अपने, अपने जैसे नहीं रहे."

मुझे गाँव में पुलिस की मौजूदगी के सिवा सांप्रदायिक तनाव का कोई और संकेत नहीं दिखा. लोग अपने रोज़मर्रा के कामों और इबादत में लगे थे.

रमज़ान के महीनों में मस्जिदों में नमाज़ियों की भीड़ थी.

गांव में रहने वाले शबी अहमद कहते हैं, "जब से नया गांव बसा है, तब से हम प्यार से रहते आए हैं, कभी कोई तनाव नहीं हुआ है. तनाव अब भी नहीं है, जो कर रहे हैं वो बाहर के लोग हैं."

वहीं अशरफ़ हुसैन अंसारी कहते हैं कि सियासत न हो तो मुद्दा सुलझ सकता है. उनके मुताबिक़, "ये गांव का मसला है अगर बैठ कर बात की जाए तो निपट सकता है. लेकिन बाहर के लोग इसका राजनीतिक फ़ायदा उठाना चाहते हैं."

बिखरती समरसता

26 जून को पुलिस ने मंदिर से लाउडस्पीकर उतारा था. पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे दलितों के साथ सख़्ती भी की थी.

इसके बाद चार महिलाओं समेत आठ दलितों को जेल भेज दिया गया था. महिलाएं तो अगले ही दिन रिहा हो गईं थी लेकिन पुरुष चौदह दिन बाद छूटे थे.

इस घटना को लेकर कई दलित युवाओं में आक्रोष है. एक युवक का कहना है, "हिंदू समाज के नेताओं के समर्थन की वजह से ही हम यहाँ रह रहे हैं. जब हम हैं तो हमारा मंदिर भी रहेगा और मंदिर पर लाउडस्पीकर भी."

दलित युवा कहते हैं, "वे हिंदू समाज का होने की वजह से हमारी मदद कर रहे हैं. जहाँ तक वोट का सवाल है तो अब हम उनसे बाहर नहीं हैं."

एक महिला ने कहा, "मायावती तो कहीं लिहाफ़ ओढ़कर सोई हैं. उन्होंने हमारी ख़बर नहीं ली. अब हम उनकी ख़बर नहीं लेंगे."

गाँव के दलितों को अफ़सोस है कि इस विवाद में किसी भी दलित नेता ने उनका साथ नहीं दिया, हाल तक नहीं पूछा.

दलित परिवारों का कहना है कि प्रसाशन ने लाउडस्पीकर उतारा है, वही लगाए. क़रीब पचास दलितों के ख़िलाफ़ केस भी दर्ज़ किया गया है. दलित चाहते हैं कि सभी मुक़दमे वापस लिए जाएं.

‘समझौता हो गया था पर…’

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दलित परिवारों के लिए यह विवाद आर्थिक संकट का कारण भी बन गया है और अब दोनों पक्ष विवाद का निपटारा चाहते हैं.

विधायक अनीसुर्रहमान कहते हैं कि मुसलमानों को दिक़्क़त मंदिर के लाउडस्पीकर से नहीं बल्कि बाहरी हस्तक्षेप से है.

वो कहते हैं कि भाजपा इसका राजनीतिक फ़ायदा उठाना चाहती है और इसलिए इस मुद्दे को ज़बरदस्ती खींच रही है.

वो कहते हैं, "अगर बातचीत से बात निपटे तो हमें लाउडस्पीकर से भी कोई दिक़्क़त नहीं है. मेरे आवास पर सांसद सर्वेश की मौजूदगी में हुई बैठक में लाउडस्पीकर लागने का फ़ैसला हो भी गया था. लेकिन भाजपा को वह मंज़ूर नहीं हुआ."

गाँव से निकलते वक़्त मेरे ज़ेहन में एक बुज़ुर्ग के ये शब्द घुमड़ते रहे, "ये कैसी राजानीति है जिसने भाई को भाई से अलग कर दिया है. कोई अब हिंदू समाज हो गया है कोई मुसलिम समाज. वो समाज नहीं रहा जिसमें मुसलमानों के घरों में दलित रह लिए थे. वो नया गाँव भी नहीं रहा जो सबने मिलकर बसाया था."

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