देविंदर शर्मा का नाम कृषि और उससे जुड़े मामलों के विशेषज्ञ के रुप में शुमार किया जाता है. एक पुरस्कार विजेता पत्रकार, चिंतक, लेखक देविंदर शर्मा की खाद्यान्न एवं ट्रेड पॉलिसी में विशेष पहचान है.
लंबे समय तक पत्रकारिता जगत में सक्रिय रहने और कई मूलभूत विषयों को अपनी कलम के जरिये धार देने वाले देविंदर शर्मा ने टिकाऊ खेती, जैविक विविधता, पर्यावरण और विकास पर ठोस कार्य किया है. कृषि कंपनियों के बाजार के अलावा सीएसआर, किसानों के प्रति और अन्य कार्यो में जिम्मेदारी को लेकर सुजीत कुमार ने उनसे कई मामलों पर बात की.
कंपनीयों के सीएसआर का भारत में क्या स्वरूप है?
कुछ दिन पहले भारत सरकार के द्वारा एक पहल हुई. जब केंद्र सरकार को आईबी की रिपोर्ट मिली. जिसके आधार पर यह बात सामने आयी थी कि एनजीओ को विदेशों से फंडिंग हो रही है. इन पैसों का उपयोग देश में किस तरह से हो रहा है. यह चर्चा का विषय है. बहरहाल इन सारे बातों के बीच बाहर से अब फंडिंग कम हो रही है, लेकिन अब इसमें एक नया अध्याय जुड़ रहा है. मुङो लगता है, जितने भी एनजीओ हैं, वह अब धीरे – धीरे कंपनी राज की भूमिका में आ रहे हैं. अब वही कंपनी राज की भूमिका को निभायेंगे. जब कॉरपोरेट सेक्टर इन क्षेत्रों में आयेगा तो जाहिर है, कंपनी राज होगा. एक वक्त वह भी था जब अंग्रेजों के शासनकाल में मंगल पांडेय ने कंपनी राज के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद किया था. वह एक अलग इतिहास रहा है, जिसे हम पढ़ते हैं. हालात ऐसी ही बनी रहेगी तो वक्त फिर दोहराया जायेगा. दुबारा कंपनी राज स्थापित होगा. यह समय सभी के लिए सचेत होने के लिए है. सचेत नहीं होंगे तो दुबारा कंपनी राज होगा. जितने भी एनजीओ हैं, जिनकी फंडिंग बाहर से बंद हो गयी है, वह अब क्या करेंगे? कंपनियों से जुड़ेंगे. उसी के पास भागेंगे. यह सारा स्वरूप जो होने वाला है, आने वाले समय में. मुङो लगता है, बहुत खतरनाक होगा. देश में एनजीओ की भरमार है. करीब 70 लाख के करीब एनजीओ इस देश में कार्यरत हैं. इतनी बड़ी संख्या में एनजीओ कहीं ना कहीं तो जुड़ेंगे ही. बिहार, झारखंड में इनके कार्य प्रणाली को समझना होगा. इन राज्यों में काम करने के लिए कंपनियां जो कदम उठा रही हैं, उसे समझने की जरूरत है. आप वहां माइनिंग के काम को कर रहे हैं, बदले में दो – चार स्कूल बना दे रहे हैं, उससे क्या होने वाला है? पॉस्को, वेदांता जैसी कंपनियों ने क्या किया? जंगल को काट दीजिए और स्कूल को खोल दीजिए. यह कहां तक उचित है? जहां तक सीएसआर की बात है, इसका तो विरोध होना चाहिए बल्कि कार्य के शुरू में ही विरोध होना चाहिए. जंगल के जंगल काट दिये और अस्पताल, पुल, नाला बना डाला तो क्या बड़ा कार्य कर दिया? मेरे हिसाब से जहां तक सीएसआर की बात है तो इसके लिए ठोस पहल करने की जरूरत है. इसके पैसे सरकारी विभाग के पास जमा कराने की जरूरत है. इसे वही जमा कराया जाये. इसे कपार्ट को दे दिया जाये. वह अपने स्तर पर देखे, जहां जरूरत हो, वहां बांटे. अगर ऐसा हो तो ठीक है नहीं तो इन कंपनियों के सीएसआर और रखरखाव के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. कॉरपोरेट सेक्टर का पैसा खत्म होगा तो उसमें दिक्कत नहीं है. सोचिए, अगर अंबानी कोई कार्य करेगा तो वह किसके लिए करेगा? खुद के लिए करेगा. विकास के लिए जो कार्य उसके जरिये होगा, उनमें उसका हित रहेगा और देश को बेवकूफ बनायेगा कि हमने देश के लिए इतना किया. उसको देश, लोगों से क्या मतलब? उसे तो अपना माल बेचना है. वही बाद में सीएसआर बनेगी. सबसे उत्तम यही है कि कपार्ट को पैसा दे दिया जाये. वह अपने स्तर पर कार्य करे. कपार्ट के पास भी कई तरह की खामियां हैं लेकिन वह काम करेगा तो इतनी परेशानियां नहीं होगी. सभी का काम मेरे ख्याल से एक जैसा ही है. 19 -20 का फर्क होगा, लेकिन कपार्ट जैसी संस्था कार्य करेगी तो एक अच्छी पहल होगी.
कृषि के क्षेत्र में झारखंड, बिहार में किस – किस तरह की कंपनियां काम कर रही हैं? उनका सीएसआर क्या है? सीएसआर की हकीकत क्या है?
कोई भी प्राकृतिक आपदा आती है तो वह इन कंपनियों के लिए व्यापार का एक अवसर बन जाता है. वह इन वक्त का उपयोग अपने बिजनेस को बढ़ाने के लिए करते हैं. कृषि में कंपनियां हैं, सीएसआर में कंपनियां इनवेस्ट करेंगी. जहां फायदा होगा, सामाजिक दायित्व होगा. जहां लाभ होगा, वहां विकास से नाता नहीं. पूरी दुनिया का यही प्रयोग है. आपने देखा होगा, मोबाइल के द्वारा मैसेज मिलता है. वह मैसेज सूखे के स्वरूप मे जो संदेश आ रहा है, वह सामान को बेचने के लिए आता है. घर के दरवाजे में अगर कीड़ा लग गया तो उसके लिए संदेश कि अगर आपके घरों, दरवाजों में कीड़े लगे हैं तो अमुक चीज का प्रयोग करें. हर जगह प्रमोट करने की बात है. क्योंकि माहौल इनके साथ है. बिहार, झारखंड को लेकर पंजाब, हरियाणा को गौर से देखना होगा. आज क्या है, मशीन बेचने, बनाने वाली कंपनियों ने मशीनों को लाद कर रख दिया है. इससे पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा कर रही गयी है. इसे कनजर्वेशन कृषि का नाम दिया गया. वल्र्ड बैंक का मॉडल, नई मशीनों को प्रमोट करते रहो. कई तरह की मशीनें आज बाजार में हैं, हैप्पी सीजर, टैन्सोमीटर और भी बहुत है.मतलब यह है मशीने, मशीनों को रिप्लेस कर रही हैं. इससे किसानों का बोझ बढ़ता जा रहा है. महाभारत में जो हाल अभिमन्यु का था, वही हमारे किसानों का है. अभिमन्यु को चक्रव्यूह के अंदर घुसना आता था, तोड़ना नहीं. ठीक यही हाल किसानों का है. मेरा मानना है, किसानों की यह हालत बनायी जा रही है. चक्रव्यूह में उन्हे धकेला जा रहा है. जो जिस स्तर पर है, वह उन्हें धकेल रहा है. देश में पिछले 10 – 12 साल में औसत करीब तीन लाख किसानों ने मौत को गले लगा लिया है. करीब 41 प्रतिशत किसानों ने खेती को छोड़ दिया है. लगभग 60 प्रतिशत किसान आज भूखे सो रहे हैं. क्या है यह, इस चक्रव्यूह से अगर किसान बाहर नहीं निकला तो खुशहाल नहीं होगा. किसानों को तो मरना है.
क्या ये कंपनियां अपनी सीएसआर नीति और कार्यक्रम की घोषणा कर रही हैं? क्या उनके अनुसार काम कर रही हैं? इसके ऑडिट की क्या प्रणाली है?
इसके बारे में ज्यादा नहीं बता सकता हूं. कंपनी एक्ट के बारे में क्या – क्या प्रावधान हैं, इसमें ज्यादा कुछ नहीं बता सकता. अभी तो कुछ दिन पहले ही संसद में इसी विषय पर चर्चा भी हुई है. कॉरपोरेट नहीं चाहता कि कपार्ट को दो प्रतिशत दिया जाये. यह सारा मामला राज्य सरकारों के अधीन भी होता है, और करीब करीब सारी राज्य सरकारें एक जैसी हैं.
कृषि के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां, बाढ़, सुखाड़, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं की हालत में किसानों को होने वाले नुकसान की भरपाई में अपना सामाजिक दायित्व निभा रही हैं या नहीं? इसके मूल्यांकन की क्या व्यवस्था है?
कोई भी कंपनी दुख में साथ नहीं देती है. लाभ होगा तो उनका और विपरित हालात बने तो वह कहती हैं, यह सारी सरकार की जिम्मेवारी है. कोई भी कंपनी आगे नहीं आती है. सूखा होगा तो सारी कंपनियां भाग जायेंगी. कोई मदद करेगा, यह तो सोचना ही गलत है. केवल लाभ के लिए अगर कोई जुड़े और कभी ऐसा वक्त आये जब किसी को मदद की दरकार हो और वह हाथ खड़े कर दे. इससे तो देश का स्वरूप ही बदल जायेगा. बीमा कंपनियां भी मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाती हैं. किससे उम्मीद की जाये? सहायता के नाम पर कितना पैसा मिलता है? कोई बीमा नहीं करता. अहम यह है कि किसानों के लिए कोई भी कुछ भी नहीं करना चाहता है.
बिहार-झारखंड जैसे मॉनसून आधारित राज्यों में बीज, खाद और कृषि उपकरण बनाने वाली कंपनियों को किसानों के प्रति और जवाबदेह बनाने के लिए क्या कुछ करना चाहिए?
बिहार – झारखंड जैसे राज्यों के लिए उनकी कृषि व्यवस्था को समझना होगा. ऐसे राज्यों को पंजाब, हरियाणा के कृषि मॉडल की आवश्यकता नहीं है. यहां इस बात को समझने की जरूरत है कि इन राज्यों की भौगोलिक हालात क्या है? यहां की खेती का मॉडल पर्यावरण के अनुकूल है. इसमें थोड़ी पहल और करनी होगी. खेती को पर्यावरण, पशुपालन से जोड़ने की जरूरत है. इन राज्यों की भौगोलिक संरचना, कृषि अति गहन है. खाद, बीज रास नहीं आता. यहां अब कुछ बदलाव की जरूरत है. अब यह चाहिए कि कृषि के लिए कोई तरीका अपनाया जाये. कंपनियों की भागेदारी हो लेकिन हालत के अनुकूल हो. जैसे – मॉनसेंटो कंपनी बीज बेचती है. वह सोचे इन राज्यों में क्या करना है? हाइब्रिड बीज ना बेचे. नियम, शर्ते हो, जमीन के टिकाऊपन के लिए खोज हो. जैविक खाद को प्रोत्साहन दे. इन सारे शर्तो को लागू किया जाये. सन् 1987 – 88 में मॉन्सेंटो ने इंडोनेशिया में अपना काम शुरू किया. तब वहां की सरकार ने इस बात की शर्त रख दी कि कंपनी तभी काम करेगी जब वह कंपोस्टिंग भी करेगी. उसे वहां करना पड़ा. हमें भी यहां इसी तरीके को अपनाना होगा. आप बाजार में आये तो हमारे शर्तो पर आये. प्रोत्साहित करना जरूरी लेकिन जमीन को खोवे नहीं. जमीन सबको चाहिए. सरकार अगर सख्त हो तो बात बन सकती है. पूर्वोत्तर भारत में जो खेती का मॉडल है, वह इधर भी हो. आंध्र प्रदेश के मॉडल को अपना सकते हैं. वहां की 35 लाख एकड़ की खेती में केमिकल पेस्टिसाइड का प्रयोग नहीं होता है और करीब 20 लाख एकड़ में केमिकल फर्टिलाइजर का प्रयोग नहीं होता है. इसे कम्यूनिटी मैनेज्ड सस्टिनेबल एग्रीकल्चर (सीएमएसए) कहा जाता है. इस सरकारी योजना को लागू हुए 10 साल हो गये. इसका बहुत अनुकूल प्रभाव पड़ा है. इससे पर्यावरण का दोहन कम हुआ है. लोगों ने रासायनिक खादयुक्त फसलों का प्रयोग नहीं किया है तो उनकी सेहत भी सुधरी है. आर्थिक हालात में भी बहुत सुधार आया है. किसी को किसी भी स्तर पर कोई परेशानी नहीं है. इसी मॉडल को अपनाने की जरूरत है. जंगल से जुड़े रहने की जरूरत है.
देविंदर शर्मा
कृषि मामलों के जानकार