
पिछले दिनों मैं एक रिपोर्ट के लिए वाशिंगटन से कुछ दूर बेघर, बेसहारा मुसलमान औरतों के लिए बने एक शेल्टर में गया.
कैमरे ने रोते-बिलखते क़िस्सों को क़ैद किया, अपनों के हाथों सताई हुई उन महिलाओं को हालात बदलने का खोखला दिलासा दिया और फिर वापस लौट आया.
ग़ज़ा, यूक्रेन, ओबामा, ज़रदारी की पेचीदगियों में उलझ गया. एक रिपोर्ट ख़त्म, दूसरे की तैयारी शुरू.
लेकिन उस शेल्टर से मेरे साथ कुछ और भी वहां से आया जो जाने का नाम नहीं ले रहा. उसकी तस्वीर नहीं बना सकता क्योंकि वो एक एहसास है.
डरे-सहमे बच्चे
उसके इर्द-गिर्द कुछ शब्द घूम रहे हैं..बेज़ुबान, निरीह, कातर, डर, सन्नाटा.
और ये शब्द उन छोटे-छोटे मासूम सहमे हुए बच्चों की आंखों में थे जो वहां अपनी मांओं को एक अजनबी से बातें करते हुए देख रहे थे.
कोई भी नई चीज़ देखकर बच्चे चुंबक की तरह खिंचे चले आते हैं, उन्हें छूने की कोशिश करते हैं, शोर मचाते हैं, ज़िद करते हैं.
वहां एक बड़ा सा कैमरा था, लाईटें थीं, माइक्रोफ़ोन था, नए चेहरे थे, शोर था.
लेकिन ये बच्चे सिमटे हुए थे, मां के कपड़ों के पीछे दुबके हुए थे, ख़ामोश थे और उनकी ख़ामोशी मानो सबसे ज़्यादा शोर मचा रही थी. शरारत करना शायद वो भूल चुके थे.
बेटी होने का दंश
उन्हीं बच्चों में से एक बच्ची चार महीने पहले पाकिस्तान से आई थी अपनी मां के साथ. पिछले एक महीने से इस शेल्टर में है क्योंकि पिता ने मां को घर से निकाल दिया.
उम्र है दो साल, सफ़ेद फ़्रॉक पर कढ़े हुए लाल फूल बदरंग से हो रहे हैं. वो गवाह रही है अपनी मां पर हुए ज़ुल्म की. उसने देखा है कि कैसे उसकी मां के तीन दांत तोड़े गए, कैसे उसके साथ मार-पीट हुई, कैसे उस पर चौबीसों घंटे बेटी पैदा करने के लिए ताने मारे गए.
मैने उसे हंसाने की कोशिश की, दोस्त बनकर उसे बहलाने की कोशिश की. लेकिन कोई असर नहीं.
ये तो नहीं जानता कि उसे कितनी बातें याद होंगी, लेकिन उसे इतना ज़रूर याद होगा कि जिन्हें वो पापा, चाचा के नाम से जानती थी वो मर्द थे. बुरे लोग थे. और उसी नस्ल का एक और इंसान उसके सामने खड़ा था. वो भी बुरा आदमी ही होगा.
हो सकता है उसने ऐसा न सोचा हो, लेकिन एक मर्द होने का अपराधबोध मुझे हो रहा था.
जब तक मैं वहां रहा—किचन में, ड्रॉइंग रूम में, डाइनिंग टेबल पर—वो एक पल के लिए भी अपनी मां से अलग नहीं हुई. दूसरे बच्चों का भी कुछ वैसा ही हाल था. वो भी अपने-अपने कोनों में दुबके रहे.
लगता था जैसे इसी उम्र में उन्होंने किसी और पर यक़ीन करना ही छोड़ दिया हो.
आज़ादी का एहसास
इस शेल्टर को चलाने वाली आसमां हनीफ़ की बेटी के बच्चे भी उस शाम वहां आए हुए थे. वो आज़ाद अमरीका के बच्चे थे, इन बच्चों से बिल्कुल अलग. ज़िंदगी की चमक से भरपूर.
अपनी मां के साथ इस शेल्टर में आने वाले बेघर बच्चों ने ऐसे आज़ाद अमरीकी बच्चों को यहां के हरे-भरे पार्कों में किलकारी मारते हुए, शोर मचाते हुए, ज़िंदगी को जीते हुए देखा होगा. शायद उन पार्कों में खेला भी होगा.
लेकिन अब वो इस शेल्टर के बाहर कम ही निकलते हैं. उनकी मांएं जब कुछ ख़रीदारी करने जाती हैं तब ये भी बाहर जाते हैं उनके साथ. लेकिन मां जब ख़ुद डरी हुई हो कि कहीं कोई देख न ले, किसी रिश्तेदार को पता न चल जाए, कहीं उसका पति यहां आकर हल्ला हंगामा न करने लगे..तो वो डर बच्चे के अंदर भी घर कर लेता है.
जिन लोगों ने ये ज़ुल्म किए हैं पता नहीं वो उसे ज़ुल्म मानते भी होंगे या नहीं. उनकी नज़रों में तो शायद उन्होंने एक महिला को सबक़ सिखाया. उसकी ज़ुबान बहुत चलती थी, वो किसी लायक़ नहीं थी, वो बदसूरत थी, वो औरत थी.
लेकिन शायद उन्हें ये नहीं पता कि उन्होंने उस महिला के साथ-साथ उसके बाद की एक पीढ़ी को भी बर्बाद कर दिया. उन्हें ज़ुल्म सहने की आदत डाल दी.
जिस एहसास को मैं लेकर वापस लौटा हूं वो शर्म का एहसास है. मैं शर्मिंदा हूं अपने मर्द होने पर. क्या आप शर्मिंदा हैं?
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