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ज्यादा इस्तेमाल कम बिल

।। अंजनी कुमार सिंह ।। पश्चिम बंगाल का ‘स्मार्ट टय़ूबवेल’ प्रोजेक्ट पूर्वी भारत के कई राज्यों में भूजल का पुनर्भरण अपेक्षाकृत ज्यादा है, लेकिन ग्रामीण विद्युतीकरण में निवेश बहुत कम है. इन क्षेत्रों में बिजली से सिंचाई की व्यवस्था का अभाव है, जिससे भूजल का इस्तेमाल कम होता है. कृषि को ज्यादा सशक्त बनाने के […]

।। अंजनी कुमार सिंह ।।

पश्चिम बंगाल का ‘स्मार्ट टय़ूबवेल’ प्रोजेक्ट

पूर्वी भारत के कई राज्यों में भूजल का पुनर्भरण अपेक्षाकृत ज्यादा है, लेकिन ग्रामीण विद्युतीकरण में निवेश बहुत कम है. इन क्षेत्रों में बिजली से सिंचाई की व्यवस्था का अभाव है, जिससे भूजल का इस्तेमाल कम होता है. कृषि को ज्यादा सशक्त बनाने के लिए सरकार ने कई कदम उठाये हैं. लेकिन पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है, जिसने खेती के लिए स्मार्ट टय़ूबवेल प्रोजेक्ट बनाया. इस मॉडल का शुरू में विरोध हुआ, लेकिन बाद में इससे किसानों को काफी फायदा हुआ. इस मॉडल के विरोध की वजह यह थी कि किसान बिजली का भुगतान पहले से ही करते थे. इस टय़ूबवेल में भी मीटर लगा दिया गया.

राज्य में टय़ूबवेल मालिक को बिजली के लिए (फ्लैट टैरिफ रेट) एक निर्धारित रकम का भुगतान करना पड़ता था, चाहे वह जितना इस्तेमाल करें. वर्ष 2007 में सरकार ने टय़ूबवेल में इलेक्ट्रिक मीटर लगाना शुरू किया, जिसका काफी विरोध हुआ. वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट ने इस प्रोजेक्ट पर एक स्टडी की. उसने सलाह दी की मौजूदा स्थिति में यह प्रोजेक्ट इस राज्य के लिए सही नहीं है, क्योंकि वहां पानी की कमी नहीं है. वहां रेन फॉल की मात्र और ग्राउंड वाटर का लेवल अच्छा है, जिसका 50 फीसदी ही उपयोग किया जाता है. लेकिन, परिणाम सोच के उलट आया. अलग-अलग जरूरत होने के बावजूद फ्लैट टैरिफ में छोटे किसानों को भी उतने ही पैसे देने पड़ते थे, जितना बड़े किसान को.

काम शुरू होने के बाद इस प्रोजेक्ट के विषय में लोगों की धारणा बदली और परिणाम सकारात्मक आने लगे. कई स्टडी ग्रुप ने इस पर काम किया. ‘इलेक्ट्रिसिटी रिफॉर्म्स और ग्राउंड वाटर यूज’ पर रिसर्च कर रहे शोधार्थियों, जिन्होंने प्रोजेक्ट का पहले विरोध किया था, बाद में इस प्रोजेक्ट को लाभप्रद बताने लगे.

समय के मुताबिक भुगतान : हर राज्य की अपनी समस्या है. वे अपने तरीके से पॉवर रिफॉर्म करते हैं. बंगाल, उत्तराखंड ने खेती के कार्यों के लिए यूनिवर्सल मीटर लगाने की बात कही.

चूंकि जनता से चार्ज लिया जाना था, इसलिए विरोध स्वाभाविक था, लेकिन दोनों राज्यों में मजबूत विपक्ष नहीं था, इसलिए इसका बहुत ज्यादा विरोध नहीं हुआ. बंगाल में पहले बिजली के लिए फ्लैट रेट देना पड़ता था, इसलिए लोग पानी बेचते थे और इससे वाटर ट्रेडिंग होती थी. मीटर लगने के बाद उन्हें उतना ही भुगतान करना पड़ता था, जितना वे इस्तेमाल करते थे. बंगाल सरकार ने इस प्रक्रि या में हाइटेक एप्रोच लगाया, जबकि उत्तराखंड सरकार ने ऐसा नहीं किया. वहां पर बहुत चीजें पारंपरिक तरीके से होती रहीं.

जबकि बंगाल ने रिमोडलीसेंसर इंस्टॉलेशन किया और इसे ‘टेंपर प्रूफ’ बनाया, ताकि मीटर के साथ छेड़खानी नहीं हो सके. बिजली का चार्ज एक दिन में अलग-अलग समय के हिसाब से तय किया गया. शाम के वक्त ‘व्यस्त समय’ में बिजली का ज्यादा इस्तेमाल रोकने के लिए ऐसा किया गया. इसके लिए तीन ‘टेरिफ रेट’ बनाया गया. सामान्य दर सुबह पांच बजे से शाम के पांच बजे तक 1.37 रु पये प्रति किलोवाट के हिसाब से. दूसरा पीक रेट, शाम पांच बजे से रात 11 बजे तक 4.75 प्रति रु पये किलोवाट की दर से. रात के 11 बजे से सुबह पांच बजे तक ‘ऑफ पीक रेट’ के दौरान 75 पैसे प्रति किलोवाट की दर से निर्धारित किया गया. नये मीटर में जीआइएस (जियोग्राफिकल इंफोर्मेशन सिस्टम) और जीएसएम (ग्लोबल सिस्टम फॉर मोबाइल कम्यूनिकेशन) लगाये गये. इससे रीडिंग के लिए मीटर तक जाने की अनिवार्यता खत्म हो गयी. कॉमिर्शयल ऑफिस से मीटर की मॉनिटरिंग होने लगी. इस हाइटेक तकनीक का फायदा यह हुआ कि मीटर से छेड़छाड़ की समस्या कम हो गयी. जो जितना उपयोग करता था, उसे उतना ही भुगतान करना पड़ता था.

प्रोजेक्ट की खासियत

भूजल के तौर पर पहला ग्राउंड वाटर मार्केट डेवलप हो गया और उसकी मार्केटिंग होने लगी. टय़ूबवेल के मालिक पहले बिजली बिल बचाने के लिए पानी बेचते थे. जिन सीमांत और छोटे किसान के पास पानी रहता था, वह टय़ूबवेल वालों से मोलभाव करते थे. मीटर लगने के बाद पानी बेचने वाले अब दबाव में नहीं थे, क्योंकि उन्हें पता था कि वह जितना इस्तेमाल करेंगे उतना ही बिल देना पड़ेगा. इससे दो लाभ हुआ. बिजली बिल कम आने लगा और पानी की कीमत ज्यादा मिलने लगी.

इस प्रोजेक्ट के प्रभाव का विश्‍लेषण करने के लिए सीआइइ ने 14 जिलों के 580 किसानों पर एक स्टडी कर जानने की कोशिश की कि फ्लैट टेरिफ रेट से मीटर लगाने के बाद किसानों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है. इसमें मुख्य रूप से पंप ऑनर, वाटर वायर और ग्राउंड वाटर मार्केट पर स्टडी की गयी. इस स्टडी में यह बात सामने आयी कि इलेक्ट्रिसिटी टैरिफ 1995 से 2007 तक 10 गुणा तक बढ़ चुका था. जबकि बिकने वाले पानी में मात्र तीन गुणा वृद्धि हुई थी.

बंगाल के पावर सेक्टर के इस रिफार्म को स्टडी करने में आइडब्लूएमआइ, टाटा पावर पॉलिसी प्रोग्राम ने दो स्टडी की. यह स्टडी एक बहुत बड़े सवाल को इंगित करती है कि आखिर इतना बड़ा फैसला कैसे लिया गया. यह प्रोग्राम 2007 में शुरू हुआ और सफलतापूर्वक मीटर लगा दिया गया. यह काम उस समय किया गया जब इलेक्ट्रिसिटी एक्ट, 2003 में यह अनिवार्य था कि इस काम को करना है.

आइडब्लूएमआइ की स्टडी में कुछ फैक्ट्स हाइलाइट किये गये हैं. बंगाल में 2001 में कुंए और टय़ूबवेल माइनर इरीगेशन सेंसर था, उसमें 6.14 लाख कुंए और टय़ूबवेल थे, ये घट कर 5.91 लाख हो हो गये. इसमें से सिर्फएक लाख नौ हजार बिजली चालित थे, जबकि शेष डीजल या केरोसिन चालित. सभी पंप मालिक पहले फ्लैट टैरिफ रेट पर भुगतान करते थे, जो 8,800 रु पये सालाना से लेकर 10,000 रु पये प्रति वर्ष पांच हार्स पॉवर के लिए देते थे. मीटर लगने के बाद किसान ‘व्यस्त समय’ वाले फार्मूले के मुताबिक भुगतान करते थे.

ज्यादा इस्तेमाल, कम बिल

इस स्टडी के मुताबिक, मीटर लगने के बाद जो किसान पहले फ्लैट रेट पे करते थे, बाद में उनका बिल लगभग 25 प्रतिशत कम आने लगा. जिन किसानों के पास मीटर वाले पंप थे, उन्हें 12 से 17 प्रतिशत ज्यादा उपयोग के बाद भी बिल बराबर ही आता था. जिनके पास मीटर लगा हुआ था, वे पानी बेच रहे थे. इस वजह से किसानों में मीटर की स्वीकारोक्ति आसानी से हो गयी. चूंकि यहां पर किसानों को फ्री में बिजली नहीं दी जा रही थी, जबकि उत्तराखंड में फ्री या फिर बेहद कम रेट पर दी जाती थी. इसीलिए वैसे राज्यों में इस योजना को लागू करने में परेशानी हुई.

स्मार्ट टय़ूबवेल गर्वनेंस का स्पष्ट संकेत है कि राज्य वह राह चुनें, जो थोड़ा मुश्किल हो, लेकिन उससे लोगों की भलाई लंबे समय तक जुड़ी हो. ऐसे निर्णय लेने में हिचकना नहीं चाहिए. इलेक्ट्रिसिटी एक्ट, 2003 में इसे लागू करने के लिए भी प्रावधान था, लेकिन बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य था, जिसने इसे तुरंत लागू किया. इसे अन्य राज्यों को भी लागू करना चाहिए, ताकि किसान और सरकार के बीच बिजली के मुद्दे पर किसी तरह की परेशानी न हो.

राज्य सरकार के चार नीतिगत निर्णय

1- भू-जल कानून में बदलाव, ताकि छोटे और सीमांत किसानों के लिए कुओं और नलकूपों यानी टय़ूबवेल में निवेशआसान हो.

2- कृषि और नलकूपों के कनेक्शन के लिए शुल्क में कमी हो.

3- वन टाइम पंप इलेक्ट्रीफिकेशन के लिए पूंजी लागत में सब्सिडी यानी प्रति किसान 8,000 रु पये.

4- पंपिंगसेट खरीदने वालों के लिए सब्सिडी.

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