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हिंदी को दूसरों पर थोपना ग़लतः केदारनाथ सिंह

तारेंद्र किशोर बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए ऐसे समय में जब हिंदी को गैर हिंदी भाषी राज्यों में बढ़ावा देने पर विवाद चल रहा है, हिंदी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह को साहित्य का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई है. उनका कहना है कि यह पुरस्कार केवल उनका ही नहीं बल्कि हिंदी […]

ऐसे समय में जब हिंदी को गैर हिंदी भाषी राज्यों में बढ़ावा देने पर विवाद चल रहा है, हिंदी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ सिंह को साहित्य का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई है.

उनका कहना है कि यह पुरस्कार केवल उनका ही नहीं बल्कि हिंदी और इसकी लंबी परंपरा का सम्मान है और वह इसे कृतज्ञता से स्वीकार करते हैं.

बीबीसी हिंदी से बातचीत में केदारनाथ सिंह ने अपनी रचना प्रक्रिया, साहित्य और हिंदी को लेकर राजनीति पर बेबाकी से राय रखी. उनसे बातचीत के कुछ ख़ास अंश.

जनकवि माने जाने वाले कवि के लिए ज्ञानपीठ जैसे पुरस्कार क्या मायने रखते हैं?

जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया हूँ यह नहीं जानता. जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए.

लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं.

मेरी जड़ें ही मेरी ताक़त है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा उन्हीं के बिना पर कर पाऊँगा.

ज्ञानपीठ पुरस्कार, पूरी भारतीय परंपरा की ओर से आने वाला बड़ा पुरस्कार है और इसे मैं कृतज्ञ भाव से स्वीकार करता हूं.

एक ऐसे वक़्त में आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा हुई है जब देश के अन्य हिस्सों में हिंदी को बढ़ावा देने को लेकर विवाद चल रहा है. तमिलनाडु ने यह आरोप लगाया है कि हिंदी उनके ऊपर थोपी जा रही है, आपको क्या लगता है?

यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. मैं मानता हूं कि देश की सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं. हमारे संविधान के निर्माताओं ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था. उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं कहा, उन्होंने इसे राज भाषा कहा और यह कहते हुए उन्होंने कहीं न कहीं इस बात की संभावना छोड़ दी कि भारत की हिंदी, उर्दू, बांग्ला, तमिल, गुजराती समेत सारी भाषाएं राष्ट्र भाषा हैं.

ये सभी राष्ट्र की भाषा हैं इसलिए ये राष्ट्र भाषा हैं. मैं इसे इसी रूप में मानता हूँ.

हिंदी या अन्य किसी भाषा को दूसरों पर लादने का सवाल नहीं पैदा होता. यह उचित नहीं है और सारी भाषाओं का साहित्य मेरा साहित्य है.

मैं विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य और भारतीय साहित्य पढ़ाता रहा हूं. मैं मानता हूं कि पूरा भारतीय साहित्य एक है.

राधाकृष्णन ने भारतीय साहित्य की एक परिभाषा दी थी, साहित्य अकादमी का आदर्श वाक्य है और उसे मैं अपने आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार करता हूं. उन्होंने कहा था, ”भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है.”

मैं भाषाओं की अनेकता को स्वीकार करता हूं. बड़ी भाषा और छोटी भाषा का सवाल नहीं है. हिंदी सारी भारतीय भाषाओं की बहन है इसलिए छोटी बहन, बड़ी बहन का सवाल पैदा नहीं होता.

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हिंदी को दूसरों पर थोपना ग़लतः केदारनाथ सिंह 2

हिंदी को लेकर एक और सवाल उठता रहा है कि यह न तो बाज़ार की भाषा बन पाई और न जनसंवाद की भाषा बन पाई तो इस दौर में हिंदी को जनसंवाद या रोज़गार मूलक भाषा बनाने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है?

हिंदी बाज़ार की भाषा है. मैं इसे ज़ोर देकर इसलिए कहना चाहता हूं कि कुछ दिन पहले मेरे पास देश की एक बहुत बड़ी विज्ञापन संस्था में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी आईं.

यह संस्था अपने सारे विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनाती रही है. उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ एक समस्या पैदा हो गई है. हम बाज़ार के लिए विज्ञापन तैयार करते हैं और ज़्यादातर अंग्रेज़ी में तैयार करते हैं.

मुश्किल यह है कि वृहत्तर भारत में सिर्फ अंग्रेज़ी से काम नहीं चलेगा. बड़े शहरों में तो काम चल जाएगा, लेकिन देश अन्य छोटे शहरों और कस्बों तक पहुंचने के लिए हिंदी की ज़रूरत है.

उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ी और हिंदी में तैयार होने वाले सारे विज्ञापनों का पूरा अनुपात बदल गया है. पहले 80 प्रतिशत विज्ञापन अंग्रेज़ी में बनते थे अब वे घट कर 50 प्रतिशत पर आ गए हैं. जबकि हिंदी के विज्ञापन 20 प्रतिशत तक ही होते थे, लेकिन वे बढ़कर अब 50 प्रतिशत हो गए हैं.

बाज़ार में तो हिंदी पहुँच चुकी है और छोटे शहरों व कस्बों में वो अपनी जगह बना चुकी है. जहां तक महानगरों का सवाल है, वह एक बड़ा बाज़ार है- जिसे वैश्विक बाज़ार भी कह सकते हैं.

यह तथ्य है कि हिंदी वहां अपनी जगह नहीं बना पाई है. वहां उसे कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा है. यहाँ अंग्रेज़ी से काम चल जाता है क्योंकि यहां हिंदी की कोई अनिवार्यता नहीं है जैसे चीन या जापान की भाषा. वहां की भाषाएं बाज़ार की अनिवार्यता हैं.

इसे मैं एक भाषिक असंतुलन कहूंगा. मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी स्थिति है कि यह लंबे समय तक चलती रहेगी. इसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन इतना ज़रूर है कि एक बड़े पैमाने पर हिंदी अपनी जगह बना चुकी है.

आपके नए काव्य संग्रह सृष्टि की रचना में एक कविता है- विज्ञान के अंधेरे में अच्छी नींद आती है. क्या विज्ञान के प्रति हिंदी में जो नैराश्य भाव है वह बरकरार रहेगा या हिंदी विज्ञान को आत्मसात कर पाएगी या वह वैज्ञानिक लेखन की भाषा बन पाएगी?

देखिए, ‘विज्ञान के अंधेरे…’ का आशय विज्ञान के विरुद्ध नहीं है. यह एक सामान्य अनुभव है. जैसे सोते समय आप बत्ती बुझा देते हैं और अंधेरे में अच्छी नींद आती है. इसका सामान्यीकरण मत कीजिए.

यह विज्ञान की स्वीकृति के पक्ष में है. इस कविता में ट्रेन और वायुयान के महत्व को स्वीकार करते हुए अंत में यह पंक्ति आती है.

विज्ञान की भाषा बनने का जहाँ तक सवाल है, वह एक बड़ा सवाल है. हिंदी अभी तक विज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है. इसका एक बड़ा कारण है कि शिक्षा के बड़े संस्थान- विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में विज्ञान की पढ़ाई आज भी अंग्रेज़ी में होती है.

अभी भाषिक विकल्प की तलाश नहीं की गई है. इसे मैं बहुत सुखद स्थिति नहीं मानता हूं. अगर भारतीय भाषाओं का इस्लेमाल हो सके और उन्हें इसके सक्षम बनाया जा सके तो यह संभव हो सकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. हमारे शिक्षा जगत का ढर्रा अंग्रेज़ी के अनुकूल बैठता है. इसके लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को प्रयास करना होगा.

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